फलों के जूस के नाम पर जो बोतलबंद पेय पदार्थ मिल रहा है, उस लागत पर वह बाजार में बिकना संभव नहीं है। हम यह भी नहीं सोचते कि फलों से जूस तैयार करने, उसके प्रसंस्करण, ट्रांसपोर्ट व एजेंट से लेकर दुकानदार का मुनाफा भी अंतिम उत्पाद की कीमत में जुड़ता है। फिर भी हम खरीदते-पीते हैं और भ्रम में जीते हैं..!!
सर्व विदित है कि मुनाफाखोर,भ्रष्ट व्यापारी बाजार में लगातार भ्रामक प्रचार के जरिये पीतल को सोना बताकर बेच देता है, लेकिन अब व्यापारियों को साधु के चोले से ख्यात जमात मात कर रही है। जैसे कि सब जानते है कि फलों के जूस के नाम पर जो बोतलबंद पेय पदार्थ मिल रहा है, उस लागत पर वह बाजार में बिकना संभव नहीं है। हम यह भी नहीं सोचते कि फलों से जूस तैयार करने, उसके प्रसंस्करण, ट्रांसपोर्ट व एजेंट से लेकर दुकानदार का मुनाफा भी अंतिम उत्पाद की कीमत में जुड़ता है। फिर भी हम खरीदते-पीते हैं और भ्रम में जीते हैं।
यह खेल प्राकृतिक उत्पादों के नाम पर बिकने वाले तमाम सामानों पर किसी संत का नाम या फ़ोटो चस्पाँ करने को लेकर भी चल रहा है। यह अच्छा है कि देर से ही सही, स्वास्थ्य पर शोध करने वाली शीर्ष संस्था भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद यानी आईसीएमआर ने एक रिपोर्ट में देश के लोगों की आंख खोलने का काम किया है।
आईसीएमआर का कहना है कि असली फलों का जूस बेचने के भ्रामक दावे की हकीकत यह है कि उसमें लगभग दस प्रतिशत ही वास्तविक फलों के जूस की मात्रा होती है। कमोबेश यही स्थिति तमाम खाद्य पदार्थों को लेकर होती है। डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों को लेकर पैक पर लिखी जानकारी भी भ्रामक हो सकती है। जिस खाद्य या पेय पदार्थ को शूगर फ्री बताकर बेचा जाता है, बहुत संभव है उसमें वसा की मात्रा अधिक हो। उसमें परिष्कृत अनाज यानी सफेद आटा या स्टार्च मिला हो सकता है।
आईसीएमआर के अंतर्गत काम करने वाली हैदराबाद स्थित राष्ट्रीय पोषण संस्थान यानी एनआईएन की तरफ से बनाये गये आहार संबंधी दिशा-निर्देशों में भी माना गया है कि भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण यानी एफएसएसएआई द्वारा उपभोक्ताओं के हितों के लिये निर्धारित कड़े मानदंड दिखाने को लागू तो किये जाते हैं पर कंपनियां उपभोक्ताओं की आंख में धूल झोंकने के लिये कई तरकीबें निकाल लेती हैं। जिसमें उत्पाद को प्राकृतिक , शूगर फ्री, कम कैलोरी वाला होने का दावा किया जाता रहा है।
एक बड़ा संकट यह भी है कि सामान खरीदने वाला उपभोक्ता उत्पाद की पैकिंग पर छपी जानकारी को ध्यान से नहीं पढ़ता है। पहले तो कंपनी सचेतक जानकारी बहुत छोटे प्वाइंट साइज में लिखती है, फिर ऐसी जगह छापती है, जहां एकदम नजर ही नहीं जाती। उसमें तमाम तरह के पोषक तत्व होने के दावे तो किये जाते हैं, सवाल यह है कि किसी व्यक्ति को उपभोग के बाद वास्तव में कितना पोषण मिल रहा है। अकसर उत्पादों के जैविक होने का दावा किया जाता है। यहां भी देखना जरूरी है कि क्या इसको जैविक-भारत के लोगो से मंजूरी मिली है? कम कैलोरी, अधिक फाइबर व कम वसा का दावा क्या इसके उपयोग करने पर वास्तव में सही मिलता है?
आजकल खाद्य व पेय पदार्थों को प्राकृतिक उत्पाद बताने का फैशन बाजार में चला हुआ है। राष्ट्रीय पोषण संस्थान ने कई उदाहरणों के जरिये बताने का प्रयास किया है कि उपभोक्ता किसी उत्पाद को प्राकृतिक व पोषक बताने के दावे से भ्रमित न हों। किसी उत्पाद में एक-दो नाम के प्राकृतिक अवयव डालने से कोई उत्पादन प्राकृतिक नहीं हो जाता। एनआईएन ने पोषण संबंधी तथ्य और पोषक तत्वों संबंधी दावों में फर्क करने का आग्रह किया है। पोषण संबंधी तथ्य यह है कि किसी उत्पाद के उपयोग से वास्तव में शरीर को कितना पोषक तत्व मिलता है। विडंबना यह भी है कि तमाम डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों पर लगे लेबल पर सही जानकारी नहीं दी जाती।किसी संत के नाम या फ़ोटो की आड़ ले लेना आम बात है।
वैसे इस संबंध में हाथी के दांत दिखाने के अलग और खाने के अलग वाली कहावत ही चरितार्थ होती है। जिसका खमियाजा आम उपभोक्ता को भुगतना पड़ता है। हाल ही में आईसीएमआर ने एक शोध के बाद कहा था कि देश में 56.4 प्रतिशत बीमारियां गलत खानपान की वजह से होती हैं। इसके अलावा आईसीएमआर व एनआईएन की निदेशक की अगुवाई वाली विशेषज्ञ समिति द्वारा तैयार आहार संबंधी दिशा-निर्देशों में कहा गया है कि शारीरिक सौष्ठव के लिये इस्तेमाल होने वाले प्रोटीन सप्लीमेंट का प्रयोग नुकसानदायक हो सकता है। निस्संदेह उपभोक्ताओं को भी सजग होकर देखना चाहिए कि किसी खाद्य-पेय पदार्थ में कोई कृत्रिम रंग, फ्लेवर या पदार्थ न मिला हो।