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कमलनाथ की ‘शोभा’ और ‘नूर’ चकनाचूर

सार

कांग्रेस की शर्मनाक हार के लिए जिम्मेदार ढूंढने में अंधे व्यक्ति को भी कोई गफलत नहीं होगी. कांग्रेस नेता एक दूसरे के कपड़े फाड़ने की राजनीति कर रहे थे और प्रदेश की जनता ने कांग्रेस की ही कपड़े फाड़ दिए. कांग्रेस के नाथ अनाथ हो गए हैं. यह परिणाम साफ साबित कर रहे हैं कि कमलनाथ का सीएम चेहरा हारा है. उनका अहंकार, तानाशाही, दुर्व्यवहार और धनलुलुप्ता हारी है.

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विस्तार

मध्यप्रदेश में  कांग्रेस नेता जमीनी नब्ज से बेखबर कैबिनेट बना रहे थे. पीसीसी पर बधाई के होर्डिग लगा रहे थे. नकुलनाथ चुनावी अभियान में 7 दिसंबर को उनके पिता कमलनाथ के मुख्यमंत्री की शपथ समारोह के लिए निमंत्रण बांट रहे थे. कांग्रेस नेताओं में इतनी गलतफहमी कैसे आई, इस पर शोध की जरूरत है. कमलनाथ ने मध्यप्रदेश की कांग्रेस को यूपी के रास्ते पर डाल दिया है. यह ढलान उत्तर भारत में कांग्रेस के रहे सहे वजूद को भी रसातल पर पहुंचा देगा.

बुढ़ापे में CM की कुर्सी से प्यार कांग्रेस को ही ले डूबा. अगर किसी युवा को नेतृत्व का मौका दिया गया होता तो इतनी शर्मनाक हार शायद नहीं होती. कमलनाथ के इर्द-गिर्द सलाहकारों और नेताओं की प्रवीणता का ऐसा जाल बन गया था कि सच्चाई दिखाई ही नहीं पड़ रही थी. सपनों का महल ऐसा बना लिया गया था कि 'जय जय कमलनाथ' के अलावा कांग्रेसी विचारधारा के लोग भी नाशुक्रे लगने लगे थे.

राजनीति सेवा के लिए होती है लेकिन कमलनाथ ऐसे पहले राजनेता हैं जिन्होंने अपने चुनावी शपथ पत्र में पॉलिटिक्स को ही अपना प्रोफेशन बताया है. जिसका प्रोफेशन ही पॉलिटिक्स है उसकी सारी प्रॉपर्टी इसी प्रोफेशन से ही बनाई हुई मानी जा सकती है. प्रॉपर्टी और पावर का गुरूर और सुरूर आम इंसान को इंसान ही नहीं समझने दे रहा था. छिंदवाड़ा जिले का राजनीतिक दोहन विकास का एक कृत्रिम और आभासी माहौल बनाकर दशकों से किया जाता रहा है. प्रदेश की जनता ने कमलनाथ के नेतृत्व को रिजेक्ट करके विकास के ‘छिंदवाड़ा मॉडल’ को भी गलत मानते हुए रिजेक्ट कर दिया है.

छिंदवाड़ा से जो राजनीति शुरू हुई थी, वह राजनीति छिंदवाड़ा से ही खत्म होती दिखाई पड़ रही है. अभी भी वक्त है. उम्र के आखिरी पड़ाव पर अगर सच्चाई स्वीकार कर ली जाएगी तो जिंदगी का आखिरी दौर सुकून से बीत सकेगा. अन्यथा चाटुकारों और सलाहकारों की गलतफहमी तो सब कुछ समाप्त ही कर देती है.

कांग्रेस की हार ने यह भी साबित कर दिया है कि 2018 में कांग्रेस को जो भी बहुमत मिला था उसमें ज्योतिरादित्य सिंधिया का योगदान था. कांग्रेस के जो नेता सिंधिया को गद्दार साबित करना चाहते थे प्रदेश के लोगों ने उन्हीं नेताओं को दोबारा अस्वीकार कर दिया है. 2003 में कांग्रेस की दिग्विजय सिंह सरकार 38 सीटों पर सिमट गई थी. कांग्रेस के 'जय और वीरू' शायद पराजय में भी एक दूसरे से छोटे भाई और बड़े भाई के ही रिश्ते को साबित कर रहे हैं. 

बीजेपी के 18 साल की सरकार के बाद भी कांग्रेस की पराजय नेताओं की ही हार है. मध्यप्रदेश को लेकर दो दिन पहले जब एग्जिट पोल आए थे, तब सबसे ज्यादा विवाद कांग्रेस द्वारा पैदा किया गया था. एग्जिट पोल वाली एजेंसी और उनके मालिकों को ऐसा साबित कर दिया गया था कि जैसे उन्होंने सरकार से पैसा लेकर एग्जिट पोल बीजेपी के पक्ष में दिखाया है. सोशल मीडिया में तो यहां तक लिखा गया कि एग्जिट पोल में बीजेपी की प्रचंड जीत दिखाने वाली एजेंसियों को सरकार के जनसंपर्क विभाग द्वारा करोड़ों रुपए की मदद दी गई है. विभाग के नाम पर चैनल की एक सूची भी सोशल मीडिया पर वायरल की गई. कांग्रेस और कांग्रेस समर्थित मीडिया से जुड़े लोग इस हद तक एक तरफा निर्णय सुना रहे थे कि जनसंपर्क के कुशल अधिकारियों की कार्य पद्धति को भी सवालों में खड़ा कर दिया था.

भाजपा सरकार अपनी नीतियों और उपलब्धियां को जनता तक पहुंचने में जहां सफल रही है वहीं कांग्रेस के चेहरों की विश्वसनीयता हमेशा से संदिग्ध रही है. कांग्रेस का कोई भी वायदा काम नहीं आया. यहां तक की OPS का अनैतिक वादा भी अपना वांछित परिणाम नहीं दिखा सका. लाडली बहना योजना निश्चित रूप से चुनाव में गेम चेंजर साबित हुई है लेकिन कांग्रेस की हिंदुत्व विरोधी छवि भी चुनाव परिणाम में देखी जा सकती है. सनातन विरोधियों के साथ कांग्रेस का खड़ा होना जनता को पसंद नहीं आया. राम मंदिर का होर्डिंग उतारने की कांग्रेस की मांग और फिलिस्तीन एवं हमास का समर्थन भी कांग्रेस के लिए वाटरलू साबित हुआ है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कठोर और अशोभनीय भाषा में संबोधित करना भी जनता को रास नहीं आया.

कांग्रेस की 15 महीने की सरकार की एंटीइनकम्बेंसी भी इस चुनाव में महसूस की गई है. कमलनाथ मंत्रिमंडल के अनेक पूर्व मंत्री चुनाव हार गए हैं. इन सारे नेताओं ने अहंकार और दंभ के मामले में सारी सीमाएं तोड़ दी थी. कमलनाथ के सॉफ्ट हिंदुत्व के कारण मध्यप्रदेश में मुसलमानों का भी पूरा समर्थन कांग्रेस को नहीं मिल सका है. कमलनाथ सरकार के 15 महीने के गवर्नेंस और भ्रष्टाचार के कारण भी कांग्रेस को पराजय का सामना करना पड़ा है. जिन चेहरों ने 15 महीने मे शासन व्यवस्था का चीरहरण कर दिया था. उन्ही चेहरों को फिर से जनता किसी हालत में भी चुन नहीं सकती थी.

कमलनाथ की ‘चलो-चलो’ की शैली जनता में इतनी लोकप्रिय हो गई थी कि जनता ने उन्हें ही ‘चलो-चलो’ कर दिया. टिकट वितरण में जिस तरीके का व्यवहार और तानाशाही नेतृत्व द्वारा की गई थी उसका भी खामियाजा परिणाम में दिखाई पड़ता है. कांग्रेस द्वारा प्रत्याशी बदलने की जो कवायद की गई थी उसने भी कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति के किस्सों को तार-तार कर दिया था. 

कमलनाथ के कारण कांग्रेस को केवल मध्यप्रदेश ही नहीं खोना पड़ा है. राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस को इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा. सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव को मध्यप्रदेश कांग्रेस द्वारा इतना आहत किया गया है कि उत्तरप्रदेश में अब कांग्रेस को दिन में तारे दिखाई पड़ जाएंगे. राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस मोदी विरोधी ताकतों को एकजुट करने में असफल हो जाएगी. खासकर उत्तर भारत में अब लगभग यह तय हो गया है कि पब्लिक कांग्रेस के साथ नहीं जा रही है. इसके कारण कोई भी क्षेत्रीय दल कांग्रेस के साथ जाकर अपनी लुटिया नहीं डूबाना चाहेंगे. 

कांग्रेस के दिग्गज जिस तरीके से चुनाव में धराशाई हुए हैं उससे तो यही लग रहा है कि कांग्रेस में अब कपड़े फाड़ो प्रतियोगिता बड़ी तेजी से चलेगी. दिग्विजय सिंह लम्बी सोच के साथ राजनीति करते हैं. कमलनाथ द्वारा दिग्विजय और जयवर्धन के कपड़े फाड़ने के राजनीतिक बयान को वह कभी भी नहीं भूल सकेंगे. क्योंकि, उनके साथ व्यवहार को तो भूल भी जाते लेकिन उनके बेटे को टारगेट कर दिया गया. जिसका हिसाब वह जरूर चुकता करेंगे.

कमलनाथ मध्यप्रदेश कांग्रेस के लिए अशुभ और पनौती साबित हुए हैं. उनको मध्यप्रदेश की राजनीति का सीधा कोई बहुत अनुभव नहीं था. सलाहकारों और ओएसडी के माध्यम से जैसे सरकार चलाते हुए उनको असफलता मिली थी, कमोवेश उसी स्टाइल में उन्होंने पार्टी संगठन को भी चलाया. संगठन में विरोधी का भी सम्मान किया जाता है लेकिन कांग्रेस में तो गुटों के अलावा हर दूसरे व्यक्ति को ठिकाने लगाने की रणनीति पर काम किया गया. 

हंसी-मजाक में सुरूर के लिए कहा जाता है कि ''पी... शीशी'', लगता है कि पीसीसी में तो चारों तरफ सुरूर ही सुरूर दिखाई पड़ रहा है. मध्यप्रदेश के मतदाता हमेशा सही फैसला करता है. इस चुनाव में जीत का फैसला मध्यप्रदेश के भविष्य को खुशहाल करेगा. कांग्रेस की खुशहाली का नारा जनता ने उनके बदहाली में बदल दिया है.