आज अगर निर्वाचित सदस्यों को कानून से नियंत्रित नहीं किया जाए, तो अराजकता फैल सकती है, व्हिप को केवल विश्वास प्रस्ताव पर मतदान तक सीमित किया जा सकता है|
बरसों- बरस से देश में चुनाव हो रहे हैं, अभी भी देश के कुछ राज्य चुनाव के दौर से गुजर रहे हैं |यह अनुभव में आया है कि देश की अधिकतर पार्टियोंके भीतर लोकतांत्रिक कार्यप्रणाली का बेहद खराब हैं| शायद,माकपा और भाजपा जैसी पार्टियों ही शेष हैं , जहां नियमित चुनाव के माध्यम से एक हद तक आंतरिक लोकतंत्र की व्यवस्था है| वैसे तो भारतीय संविधान राजनीतिक दलों की संस्था को मान्यता देता ही नहीं है| ऐसा ही अन्य बड़े लोकतंत्रों में है, उनके संविधानों में ‘राजनीतिक दल’ का उल्लेख एक बार भी नहीं आता| देख जाये तो आज राजनीतिक दल संविधान से इतर साझा विचारों, दर्शन, सोच और हितों के आधार पर लोगों को संगठित करने की व्यवस्था हैं| सांसद या विधायक कहने को लोगों के प्रतिनिधि होते हैं| उनका किसी पार्टी से संबद्ध होना या न होना केवल संयोग है| आज उनका उद्देश्य निर्वाचकों के हितों की रक्षा करना करने के स्थान पर कि कुछ नेताओं के हितों का संरक्षण मात्र रह गया है |
भारत में निर्वाचित प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार नहीं है, क्योंकि संभवत: इसे व्यावहारिक नहीं मन जाता है| यदि निर्वाचकों को इस अधिकार का प्रस्ताव भी आये, तो कौन वर्तमान सांसद इसे कानून बनाना चाहेगा|
यह तर्क कि अधिकतर सदस्य पार्टी की वजह से निर्वाचित होते हैं, कुछ हद तक सही है, पर यह तभी सही है, जब पार्टी का गठन व संचालन समुचित तौर पर किया गया हो | यदि राजनीतिक दल को एक संवैधानिक संस्था के रूप में संविधान में शामिल करना है, तो पहले इसका कानून बनाना होगा| देश में अधिकतर पार्टियां लोकतांत्रिक कार्यप्रणाली का बेहद खराब उदाहरण हैं|
सब जानते हैं कि कांग्रेस कैसे अपने ‘चुनाव’ कराती है वहां तो वह ‘आला कमान’ के जरिये फैसले करती है| लालू यादव, के चंद्रशेखर राव, स्टालिन, अखिलेश यादव, मायावती, और बादल जैसे ‘नेता’ ऐसी प्रक्रियाओं को दिखावा मानते हैं| इनके पास अपने निजी हितों व मर्जी के अनुरूप निर्देश देने या व्हिप जारी करने की शक्ति और वैधता है| सबको याद होगा कैसे एक नामित कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी ने कांग्रेस संसदीय दल के निर्वाचित नेता पीवी नरसिंहा राव को २४ घंटे के भीतर इस्तीफा देने का निर्देश दे दिया था|
आज अगर निर्वाचित सदस्यों को कानून से नियंत्रित नहीं किया जाए, तो अराजकता फैल सकती है, व्हिप को केवल विश्वास प्रस्ताव पर मतदान तक सीमित किया जा सकता है| इसमें यह व्यवस्था की जा सकती है कि व्हिप के विरुद्ध वोट करनेवाले सदस्य को छह माह या निर्धारित अवधि में जनता का भरोसा फिर से जीतना होगा| दल बदल करनेवाले सदस्य को मंत्री पद नहीं देना भी ठीक नहीं है क्योंकि इससे इंगित होता है कि मंत्री पद एक पुरस्कार है, योग्यता का रेखांकन या सेवा का उत्तरदायित्व नहीं| मध्यप्रदेश में चलती सरकार इसका बुरा उदहारण है |
कहने को चुनाव आयोग इन दलों तथा इनके नेताओं के अधिकारों को चिह्नित करता है, पर विभिन्न मामलों में उसकी बेबसी एक शर्मनाक मुद्दा है| अगर राजनीतिक दल, दल बदल कानून को मामूली राजनीतिक और दार्शनिक वैधता भी देते है, तो सबसे पहले पार्टियों में उचित आंतरिक लोकतंत्र सुनिश्चित करना होगा| पार्टियों ने दिखा दिया है कि वे स्वयं ऐसा कर पाने में अक्षम हैं| पहले चुनाव आयोग इस मुद्दे को उठा चुका है, पर उसे तेज आवाज में बोलना होगा तथा संसद से अधिक अधिकार पाने पर जोर देना होगा|
राजनीतिक दलों को सरकारी फंडिंग को देने के विकल्प को एक समाधान के रूप में अक्सर रखा जाता है | एक प्रश्न यहाँ भी खड़ा है कि क्या हम ऐसे दलों को धन देना स्वीकार करेंगे, जिनके यहां न तो आंतरिक लोकतंत्र है और न ही लोकतांत्रिक ढांचा| उनके आलाकमान में भी पारिवारिक सदस्य हैं| कुछ को छोड़ दें तो किसी भी भारतीय राजनीतिक दल में साफ-सुथरे ढंग से आंतरिक चुनाव नहीं होते हैं| राजकीय फंडिंग देने का मतलब सरकारी पैसे को निजी उद्देश्यों के लिए देना होगा | सबसे बड़ी बीमारी दल बदल का मुद्दा देश में हमेशा बना रहेगा |कोई इस पर आवाज कभी अनहि उठाएगा उठायेगा, सबके अपने निजी स्वार्थ पहले है | व्यक्ति से बड़ा दल और दल से बड़ा देश जैसा आदर्श तो दूर की कौड़ी हो गया है|