• India
  • Sat , Jul , 27 , 2024
  • Last Update 07:00:AM
  • 29℃ Bhopal, India

मीडिया : किसकी गोदी और गोदी में कैसे ?  

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Mon , 27 Jul

सार

लोकतंत्र के चार स्तम्भों में एक और महत्वपूर्ण स्तम्भ प्रेस है, इसमें से गोदी मीडिया कौनसा है और तीखा सच बयान करने वाला कौनसा, इसकी पहचान वैसे भी आजकल कठिन होती जा रही है..!

janmat

विस्तार

विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में सत्ता और प्रतिपक्ष ने इन दिनों “मीडिया”को निशाने पर ले रखा है। दोनों ने चुन रखा है कि उसकी नज़र में कौन “गोदी मीडिया” है। लोकतंत्र के चार स्तम्भों में एक और महत्वपूर्ण स्तम्भ प्रेस है, इसमें से गोदी मीडिया कौनसा है और तीखा सच बयान करने वाला कौनसा, इसकी पहचान वैसे भी आजकल कठिन होती जा रही है। गोदी मीडिया क्या वह होता है जिसे सरकार ने या धनपतियों ने गोद ले रखा हो? क्रांति या यथार्थ मीडिया वह, जिसकी ज़ुबान सच बयान करते हुए तनिक भी न थरथराए। ऐसी दूर की कौड़ी तलाश कर लाए कि आदमी को किसी सनसनीखेज घटना से टकराने का एहसास हो जाए। 

आज की सबसे बड़ी परेशानी यह है कि प्रेस और मीडिया के दोनों रूप एक-दूसरे को गोदी और अपने आप को यथार्थ कहते फूले नहीं समाते। कुछ भी अघटनीय घट जाए, लेकिन जो जिसके हाजमे में नहीं उतरता, वह उसके बारे में चुप लगा कर अभयदान की मुद्रा में आ जाता है और मीडिया का दूसरा रूप उसकी नकाबनोच सनसनी फैला देता है। मीडिया का एक रूप अगर बिका हुआ या कालाबाजारियों का पिट्ठू कहलाता है तो दूसरा देश द्रोह और धर्म, जाति तथा क्षेत्र विभाजन के आम फहम लांछनों को उछालने वाला। जांच चल रही है और जल्द ही झूठों की नकाबें नुच जाएंगी और खरे सोने सा सच सबके सामने चौंका देगा कि दावे हवा में उछलते रहते हैं। 

मजे की बात यह है कि ये दावे दोनों तरह के मीडिया की ओर से किए जाते हैं। पाठक बौराया कभी सनसनी भरे धूल धक्कड़ का सामना करता है, और कभी कीचड़ भरी दलदल में उतर जाता है। फिर शीर्षक की यह उखाड़-पछाड़ थक कर मौन हो जाती है। मीडिया के दोनों पक्ष किसी नए या अविष्कृत हैडिंग का कनकौआ लूटने के दौड़ भाग करने लगते हैं। धीरे-धीरे मौन पसरने लगता है।

कल की जलती हुई खबरें बासी हो जाती हैं। खड़े जल में किसी ने पत्थर फेंक दिया था। कटी पतंग बीच राह लूट ली गई। पाठक और श्रोता जांच के थैले से बिल्ली के बाहर आने का इंतजार करते रहते हैं। इंतजार जब लम्बा हो जाए तो लगता है यहां चन्द नारे उछालने के कोलाहल के सिवाय कभी कुछ और तो होता ही नहीं। इसलिए क्यों न बड़े बूढ़ों की बात को बीती सदी सा शिरोधार्य कर लिया जाए कि एक चुप में ही तेरे हजार सुख छिपे हैं। 

यह मन्त्र सिद्ध वाक्य केवल लोकतंत्र के एक स्तम्भ के लिए ही सिद्ध सूत्र नहीं। स्तम्भ तो अभी तीन और हैं- विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। पहले विधायकों की बात न ले बैठना। यहां तो चुप्पी तोड़ी तो सांप और सीढ़ी का खेल चलने लगता है। जो चुना जाए, वह चाहे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का बासी हो या सबसे पुराने लोकतंत्र का, एक जाना-पहचाना लेबुल तो उसके माथे पर लगना ही है कि भ्रष्ट तरीके से वोटों की खरीद-फरोख्त कर नेता जीते आ रहे  हैं। जीतने वाला आरोपित है, और हारने वाला छटपटाता रहता है। कुछ राज्य सरकार पिछले चुनाव के बाद इस तर्ज़ पर बनी ही नहीं चली और धलड्डे से चल भी रही है। ऐसी पार्टियाँ ज़रूर मीडिया के एक हिस्से को अपने साथ मिला लेती है और वो मीडिया गोदी मीडिया की संज्ञा पा जाता है।