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मानसून: भारत में रूठ भी सकता है?

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Tue , 27 Jul

सार

भारतीय मॉनसून का पैटर्न बदल रहा है, विश्व पर इसके जो भी प्रभाव हो भारत में इसका ख़ासा अर्थ है..!

janmat

विस्तार

विश्व की भाँति भारतीय मॉनसून का पैटर्न बदल रहा है, विश्व पर इसके जो भी प्रभाव हो भारत में इसका ख़ासा अर्थ है। भारत की तो जीवन रेखा ही मानसून है। भारत के प्रधानमंत्री इसी दम पर विश्व का पेट भरने की बात कह आए हैं। भारत तो क्या विश्व की 40 प्रतिशत आबादी की खाद्य सुरक्षा और सामाजिक-आर्थिक खुशहाली इसी मॉनसून की कृपा पर निर्भर है। यदि हम इतिहास के पन्ने पलट कर देखें तो यह समझने में देर नहीं लगेगी कि मॉनसून की वर्षा में वृद्धि या कमी ने अक्सर भारतीय उप-महाद्वीप में सभ्यताओं के उदय और पतन एक बड़ा कारक है।

कभी देश में मॉनसून की बेरुखी से सिंहासन डोलते रहे हैं  और वर्षा की कमी से आज की सरकारों के गणित गड़बड़ा जाते हैं। पृथ्वी के बढ़ते तापमान से अब भारतीय मॉनसून सिस्टम के स्थायित्व को खतरा पैदा हो गया है। ग्लोबल वार्मिंग का असर पूरे विश्व के मौसम पर पड़ रहा है। कहीं बहुत ज्यादा बारिश हो रही है तो कहीं सूखा पड़ रहा है। समुद्री चक्रवातों के प्रकोप में वृद्धि हो रही है। पिछले कुछ भारत में भी मौसम की अनियमितता के प्रभावों का अनुभव साफ़ दिख रहा है।

वैसे तो भारतीय उप-महाद्वीप में जलवायु के बारे में दीर्घकालीन डेटा उपलब्ध नहीं है जिससे इस दिशा में अध्ययन में कठिनाई हो रही है। मौजूदा जलवायु मॉडलों से पता चलता है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण इस सदी के अंत तक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन की उच्च दर बने रहने पर मॉनसून की वर्षा में 14 प्रतिशत की वृद्धि होगी। यदि उत्सर्जन की दर माध्यमिक स्तर पर बनी रही तो मॉनसून की वर्षा 10 प्रतिशत बढ़ सकती है।

जर्मनी के रिसर्च संस्थानों के वैज्ञानिकों ने पिछले 13,000 वर्षों में भारतीय ग्रीष्मकालीन मॉनसून की वर्षा के पैटर्न को पुनर्निर्मित करके जलवायु पूर्वानुमानों को सुदृढ़ करने की कोशिश की है। उनके अध्ययन में पहली बार यह बात सामने आई कि अतीत में भूमध्य और उष्णकटिबंधीय हिंद महासागर में समुद्री सतह पर निरंतर उच्च तापमान रहने से भारतीय मॉनसून कमजोर पड़ गया था।

यह इस बात का संकेत है कि आधुनिक समय में समुद्री तापमान बढ़ने से सूखे और अकाल की स्थितियों में वृद्धि होगी। अतीत में तापमान आज की तुलना में अधिक गर्म था। अक्सर यह माना जाता है कि सूरज का विकिरण भारतीय मॉनसून की तीव्रता को प्रभावित करता है। सौर विकिरण के उच्च स्तर से नमी और हवा के प्रवाह में वृद्धि होती है जिससे अंततः वर्षा की परिस्थितियां पैदा होती हैं।

पहले भी भारतीय मॉनसून के पैटर्न को पुनर्निर्मित करने के लिए शोधकर्ताओं ने उत्तरी बंगाल की खाड़ी से तलछट के एक दस मीटर लंबे टुकड़े को चुना और इसमें संरक्षित ‘लीफ वैक्स बायोमार्करों’ में हाइड्रोजन और कार्बन के आइसोटोप्स का विश्लेषण किया। वैज्ञानिक लीफ वैक्स अथवा पौधों की मोम का प्रयोग अतीत की जलवायु को पुनर्निर्मित करने में किया जाता है।

इस विश्लेषण के आधार पर वैज्ञानिक पृथ्वी की पिछली दो गर्म जलवायु अवधियों में वर्षा के पैटर्न में परिवर्तनों का पता लगाने में सफल रहे। गर्म जलवायु का पिछला अंतराल 130000-115000 वर्ष पहले हुआ। किए गए विश्लेषण में सबसे चौंकाने वाली बात यह थी कि अतीत में सौर विकिरण के उच्च स्तर पर होने के बावजूद भारतीय मॉनसून की तीव्रता वर्तमान अवधि की तुलना में कम थी। इससे इस धारणा पर सवाल उठता है कि सिर्फ सूरज का विकिरण ही मॉनसून की तीव्रता को प्रभावित करता है?

अनुमानित निष्कर्ष है कि समुद्री सतह का तापमान बढ़ने से भारतीय मॉनसून की विफलताओं में वृद्धि हो सकती है। जल चक्र में परिवर्तनों से न सिर्फ कृषि भूमि पर असर पड़ता है बल्कि कुदरती इकोसिस्टम भी प्रभावित होते हैं। इन सबका असर बड़ी संख्या में लोगों की रोजी-रोटी पर पड़ता है।

हमें मॉनसून की वर्षा को नियंत्रित करने वाली कार्य प्रणाली के बारे में अपनी समझदारी में सुधार करना पड़ेगा ताकि बाढ़ और सूखे जैसी मौसम की विषमताओं का बेहतर ढंग से पूर्वानुमान लगाया जा सके और ऐसी परिस्थितियों को झेलने के उपाय खोजे जा सकें।