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देश की ज़रूरत- न्यायिक सुधार 

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Thu , 30 Apr

सार

भारत की अवरुद्ध न्याय प्रणाली को वैश्विक स्तर पर बदनामी हासिल है जिसकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के निवेश संबंधी निर्णयों में भी भूमिका रहती है..!!

janmat

विस्तार

देश की न्यायपालिका का शीर्ष भी महीनों तक फ़ैसले न करने वाले न्यायमूर्तियों से खुश नहीं है। कई न्यायाधीशों ने मामलों की आंशिक सुनवाई के बाद उन्हें आगे बढ़ाने और फिर  से नए सिरे से मुक़दमों की सुनवाई से जन सामान्य में न्यायपालिका की छवि गड़बड़ाती है। वैसे भी भारत की अवरुद्ध न्याय प्रणाली को वैश्विक स्तर पर बदनामी हासिल है जिसकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के निवेश संबंधी निर्णयों में भी भूमिका रहती है। 

इस सबसे चिंतित देश के मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ ने पिछले दिनों सुनवाई पूरी करने के बाद कहा कि उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के फैसलों को लंबे समय तक सुरक्षित रखने की प्रवृत्ति को  उच्च न्यायपालिका के लिए चेतावनी करार दिया है।

उन्होंने न्यायाधीशों से ऐसे मामलों की जानकारी मांगते हुए जिनमें फैसला तीन महीनों से सुरक्षित है, मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि उन्होंने पाया है कि ऐसे भी मामले हैं जहां फैसले को 10 महीनों तक सुरक्षित रखा गया है। इससे भी बुरी बात यह है कि उन्होंने पाया कि कई न्यायाधीशों ने मामलों की आंशिक सुनवाई के बाद उन्हें आगे बढ़ा दिया जिससे उन्हें नए सिरे से उनकी सुनवाई करनी पड़ी।

जैसा कि मुख्य न्यायाधीश ने कहा किसी फैसले को 10 महीने तक रोके रखना न्यायिक समय की बरबादी है क्योंकि संबंधित न्यायाधीश को शायद ही मौखिक बहस इतने समय तक याद रहे। यह पहला मौका नहीं है जब सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालयों से गति बढ़ाने को कहा है। 2022 में एक आपराधिक मामले की सुनवाई कर रहे दो न्यायाधीशों के पीठ ने कहा था कि संबंधित उच्च न्यायालयों को सभी दलीलें पूरी होने के बाद जल्दी से जल्दी निर्णय सुनाने की सलाह दी जाती है।

फैसले आरक्षित रखने से अदालतों में मामलों का अंबार लगता जा रहा है। यह एक स्थापित संस्थागत समस्या है जो समूची न्याय व्यवस्था में अंतर्निहित है। सरकार का प्रदर्शन दिखाता है कि जिला एवं अधीनस्थ न्यायालयों में चार करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं जिनमें से एक लाख से अधिक मामले 30 साल से ज्यादा पुराने हैं। ऐसी देरी की एक अहम वजह न्यायिक पीठों में बड़ी तादाद में रिक्तियों का होना भी है।

हालांकि सर्वोच्च न्यायालय फिलहाल ऐसे दुर्लभ अवसर से गुजर रहा है जब वहां न्यायाधीशों का कोरम पूरा है। उच्च न्यायालयों में 329 रिक्तियां हैं। आश्चर्य नहीं कि उच्च न्यायालयों में लंबित मामलों की तादाद समय के साथ बढ़ती जा रही है। चूंकि उच्च न्यायालय और अधीनस्थ न्यायालय मिलकर देश की व्यवस्था में न्याय की पहली पंक्ति तैयार करते हैं। ऐसे में देश के नागरिकों को बड़े पैमाने पर न्याय पाने में मुश्किल होती है। निश्चित तौर पर लंबे समय तक मामलों के अदालत में लंबित रहने से भ्रष्टाचार की संस्कृति को बढ़ावा मिलता है।

न्यायिक नियुक्तियों को लेकर कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच मतभेद के कारण भी हालात खराब हुए हैं, परंतु न्यायाधीशों की संख्या में कमी भी इस कहानी का एक हिस्सा है। समूचा न्याय तंत्र खराब हालत में है, खासकर उसका निचला स्तर। खुद सरकार का मानना है कि अदालतों में बुनियादी ढांचे की कमी और सहायक कर्मचारियों की तादाद में कमी और जांच एजेंसियों एवं वादियों-प्रतिवादियों की अदालती निर्देशों को समझने और उसका पालन करने की कमी ने भी न्यायपालिका की तस्वीर पर असर डाला है। बार-बार स्थगन और अपीलों ने भी अदालतों का बोझ बढ़ाया है जो केंद्र और राज्य सरकारों के विधानों में विस्तार के कारण पहले से दबाव में हैं।

इसके असर को भारत के प्रमुख आर्थिक साझेदारों द्वारा आदर्श द्विपक्षीय निवेश संधि दस्तावेज को पूरी तरह खारिज करने में देखा जा सकता है जिसका कहना है कि विदेशी निवेशकों को सभी न्यायिक उपचार भारतीय व्यवस्था में ही हासिल करने होंगे। उसके बाद ही वे मध्यस्थता का प्रयास कर सकते हैं। वोडाफोन को पिछली तारीख से लागू कर वाले मामले को भारतीय अदालतों में निपटाने में 13 वर्ष का समय लगा और यह एक चेतावनी की तरह है।

न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने उच्च न्यायालयों के व्यवहार पर जो टिप्पणी की है वह समस्या के केवल एक पहलू की ओर इशारा करता है, परंतु यह हमें याद दिलाता है कि केंद्र और राज्य के स्तरों पर न्यायिक सुधारों को तत्काल तवज्जो देने की जरूरत है। भारत जल्दी ही दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा और उसे मजबूत आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था कायम रखने के लिए विश्वस्तरीय न्याय व्यवस्था की जरूरत है।