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कानूनी मामलों में राजनीतिक दबाव का नेगेटिव प्रभाव

सार

मध्य प्रदेश कांग्रेस ने ग्वालियर से संविधान बचाओ अभियान शुरू किया. इस रैली में खाली कुर्सियां और मंच पर बैठने की प्रतिद्वंदिता यही बता रही है, कि नागरिकों में तो कांग्रेस बची नहीं है. जो कार्यकर्ता बचे हैं, वह मंच पर बैठने के लिए हाथापाई तक करने लगते हैं..!!

janmat

विस्तार

    मंच पर अनियंत्रित भीड़ भोपाल में कांग्रेस जनों को लहू-लुहान कर चुकी है. मंच जब टूटता है, तो शरीर पर चोट लगती है, लेकिन पार्टी में प्रतिद्वंदिता जड़ों को लहू-लुहान करती है. संविधान तो बचा हुआ है, जरूरत कांग्रेस बचाने की है. अगर ईमानदारी से कांग्रेस बचाओ अभियान पार्टी चला सके तो संविधान अपने आप बच जाएगा.

    कमलनाथ को हटाने के बाद संगठन और विधायक दल में जो नया नेतृत्व दिया गया था, उसके कारनामे भी सकारात्मक बदलाव नहीं ला सके. वही गुटबाजी, वही अराजकता, वही धन लोलुपता, वही पद लिप्सा अभी भी कायम है. कोई भी सैक्रिफाइज के लिए तैयार नहीं होता. ताकतवर लोग भविष्य में उनके रास्ते का कांटा बनने वाले को ठिकाने लगाने में व्यस्त दिखाई पड़ते हैं. सरकार बनने का दूर-दूर तक कोई चांस नहीं दिखता लेकिन मुख्यमंत्री के लिए कांग्रेस में रस्साकशी चौबीस घंटे चलती है. 

    संगठन की रैली और कार्यक्रम भी एक नेता का कार्यक्रम मान लिया जाता है. उसको सफल करने के लिए सामूहिक प्रयास से ज्यादा नेता को कमजोर साबित करने के लिए कार्यक्रमों को बिगड़ा जाता है. कांग्रेस का ग्वालियर में आयोजित संविधान बचाओ अभियान पर न्यूज़ चैनल में जो रिपोर्ट दिखाई गई, उसमें कुर्सियां खाली पड़ी हैं. मंच पर धक्का-मुक्की के हालात हैं.

    शायद इसीलिए पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को पीसीसी प्रेसिडेंट से मंच पर बैठने की प्रतिद्वंदिता पर अंकुश लगाने की मांग करनी पड़ी. उन्होंने तो यह संकल्प घोषित किया कि भविष्य में वह मंच पर नहीं बैठेंगे. मंच के सामने बैठेंगे और भाषण देने के समय ही मंच पर आएंगे. यह त्याग नहीं बल्कि बढ़ते संकट से अलग होने का तरीका है.

    कांग्रेस ने संविधान बचाओ अभियान शुरू करने के पीछे नेशनल हेराल्ड मामले में सोनिया गांधी और राहुल गांधी के विरुद्ध दायर की गई चार्जशीट को आधार बनाया है. रैली में आरोप लगाया गया कि भाजपा सरकार जांच एजेंसियों का दुरुपयोग कर विपक्ष की आवाज दबाने की कोशिश कर रही है. 

    नेशनल हेराल्ड मामला प्योरली कानूनी है. अदालत में चार्जशीट दायर हो चुकी है. अब इस पर अंतिम फैसला अदालत से ही आएगा. आपराधिक मामलों में राजनीतिक दबाव का नागरिक जगत में नेगेटिव प्रभाव ही होता है. दिल्ली में अरविंद केजरीवाल ने शराब घोटाले के मामले में भी इसी प्रकार से राजनीतिक प्रदर्शन किए थे. चुनाव के समय इन सारे राजनीतिक उपायों का प्रभाव दिखाई पड़ा. आम आदमी पार्टी को सत्ता से बेदखल होना पड़ा. 

    राजनीतिक मामलों का राजनीतिक मुकाबला किया जाना चाहिए, लेकिन जो मामला भले ही शुरु राजनीति से हुआ हो लेकिन अदालत पहुंच गया है, तो फिर उस पर राजनीति को पब्लिक पसंद नहीं करती है और ना ही अदालत पर कोई प्रभाव होता है.

    संविधान बचाओ की माला कांग्रेस फेरती रहती है. संविधान के कारण ही कांग्रेस की केंद्र सरकार का पतन हुआ और बीजेपी सरकार स्थापित हुई. संविधान बचाने के नाम पर कांग्रेस बीजेपी को हटाने के अभियान में लगी हुई है. तमाम सारी नैतिक और अनैतिक बातों और अफवाहों के बावजूद जन समर्थन के मामले में कांग्रेस पिछड़ जाती है. गठबंधन के बावजूद कांग्रेस बीजेपी को केंद्र में तीसरी बार सत्ता में आने से नहीं रोक सकी. यह बात जरूर है कि भाजपा के सांसदों की संख्या स्पष्ट बहुमत से कम हो गई है. संविधान बचाने के नाम पर कांग्रेस की इसे आशिंक सफलता कहा जा सकता है.

    कांग्रेस संविधान बचाने का राजनीतिक अभिनय करती है. तो बीजेपी सरकार संविधान के नाम पर पॉलीटिकल करप्शन मिटाने का अभियान चलाती है. नेशनल हेराल्ड मामले में अदालत में यही तय होना है, कि यह एक्शन संविधान सम्मत और कानून के अनुरूप है. इस मामले में कोई अपराध हुआ है या नहीं हुआ है.

    वैसे तो संविधान बचाने और मिटाने की बात ही तथ्य परक नहीं कही जा सकती. संविधान में ही यह उल्लेख है कि नागरिकों की आवश्यकता के अनुसार इसमें संशोधन किया जा सकता है. संविधान संशोधन कांग्रेस ने भी कम नहीं किेए हैं और बीजेपी सरकार भी संविधान संशोधन करती रही है. संविधान में संशोधन देश की जरूरत का विधान होता है. संशोधन संविधान मिटाना कैसे हो सकता है. संविधान में बदलाव जब लोकतांत्रिक सरकार का अधिकार है, जिसका उपयोग कांग्रेस ने किया है और बीजेपी भी करती है. तो फिर संविधान बचाने की बात ही राजनीतिक लगती है. 

    हर राजनीतिक दल अपने वैचारिक धरातल के अनुसार जनता की जरूरत के मुताबिक कानून बनाती है. इसके लिए आवश्यकता पड़ने पर संविधान में संशोधन भी किया जाता है. लड़ाई उन मुद्दों पर होना चाहिए जो किसी पार्टी ने संशोधन के जरिए लागू की है. अगर बात मुद्दों की होगी तो फिर कांग्रेस मुश्किल में पड़ सकती है. धर्म पर आरक्षण संविधान में नहीं है,  लेकिन कांग्रेस कर्नाटक में मुसलमान को आरक्षण देती है. समान नागरिक संहिता संविधान की मंशा है, लेकिन कांग्रेस की सरकारों ने एक समुदाय के पर्सनल कानूनों को संविधान का हिस्सा बनाया. सेकुलर सिविल कोड भारत में अगर नहीं है, तो इसके लिए पूरी जवाबदेही कांग्रेस की ही बनती है.

    संविधान बचाने के राजनीतिक अभिनय से अधिक महत्वपूर्ण पार्टी बचाने का अभियान हो सकता है. कांग्रेस पार्टी का संविधान अस्त-व्यस्त पड़ा हुआ है. पार्टी अनुशासन खंड-खंड हो गया है. आलाकमान को खुश रख पद पर बने रहने का  मंत्र कांग्रेस जनों का मिशन बन गया है. अपनी लंबी लकीर से ज्यादा दूसरे की लकीर छोटी करना कांग्रेस का अघोषित संविधान बना हुआ है. सोनिया गांधी और राहुल गांधी के समर्थन में  ग्वालियर से शुरू हुआ अभियान फ्लॉप हो गया. इस पर भी कांग्रेस में कोई चिंतन-मनन शायद ही होगा.

    वैसे भी ग्वालियर में कांग्रेस अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है. ज्योतिरादित्य सिंधिया जो इस रीजन में कांग्रेस के आइकॉन हुआ करते थे, वह अब बीजेपी के आइकॉन बने हुए हैं. कांग्रेस संगठन पत्तों को सींचने की कोशिश करता है, जबकि पार्टी की जड़ें सूख रही हैं. जड़ों को पानी देने में मेहनत लगेगी पद पर बैठे किसी नेता को पद पर रहने की समय सीमा पर भरोसा नहीं है. इसलिए हर नेता का तदर्थ अभियान यही है. भले ही कांग्रेस अंधकार की ओर बढ़ रही हो लेकिन उनके चेहरे पर उजाला दिखना चाहिए. इस उजाले के लिए विरोधी से भी हाथ मिलाना पड़े, तो ना कोई सिद्धांत है, ना कोई संविधान है.

    केवल खुदगर्जी ही कांग्रेस में सबसे बड़ा संविधान है. जहां खुदगर्जी का संविधान हो वहां सारा प्रयास अपने को बचाने का होता है. इसीलिए कांग्रेस अपने को बचा ले संविधान तो बचा है और बचा रहेगा.