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ना ऐसा कोई पद, ना चलता कोई ऐसा संदेशा

सार

राजनीति में नंबर दो की कल्पना और धारणा भले ही विवादों को जन्म देती रहती है लेकिन ना ऐसा कोई पद है और ना कोई मापदंड और ना ही कोई ऐसा संदेशा है, जो यह स्थापित कर सके कि कौन नंबर 2 है?

janmat

विस्तार

किसी कवि की कविता बहुत मौजू है-

रोज रोज जलते हैं,
फिर भी खाक न हुए..!
अजीब हैं कुछ ख्वाब भी,
बुझ कर भी राख न हुए...!!

नंबर दो की गलत अवधारणा पर रोज-रोज झटके लगते हैं. फिर भी चांदनी रात में धूप का एहसास न मालूम लोग क्यों करते हैं?

सामान्यतः पार्टी में नंबर दो के लिए परसेप्शन की लड़ाई उतनी नहीं होती जितनी सरकारों में होती है. केंद्र और राज्य सरकारों में दल के नेता प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री बनते हैं. यही संविधान में व्यवस्था है. इसके अलावा मंत्रिपरिषद होती है, सामूहिक जिम्मेदारी और एक टीम होती है, नंबर एक के अलावा नंबर दो तो कोई पद है ही नहीं. सरकारी नौकरी में वरिष्ठता है लेकिन राजनीति में ऐसा कोई पद नहीं होता.

आजकल राज्यों में संतुष्टिकरण के लिए उप मुख्यमंत्री के पद भी बनाए जाते हैं. इस पद का भी संवैधानिक रूप से कोई महत्व नहीं है. उप मुख्यमंत्री और मंत्री के अधिकारों में कोई अंतर नहीं है. जब उपमुख्यमंत्री नंबर दो नहीं माना जाता तो किसी खास विभाग के मंत्री नंबर दो कैसे माने जा सकते हैं? नंबर दो की थोथी लड़ाई सरकारों में टकराव का कारण बनती है. एक ऐसा मैसेज लगातार फैलता रहता है कि नंबर एक और नंबर दो में टकराव है.

कभी भी और किसी भी परिस्थितियों को इसी स्वरूप में लाकर खड़ा कर दिया जाता है जबकि स्थिति यह है कि नंबर दो का कोई पद ही नहीं है. आजकल जो राजनीतिक हालात हैं उसमें तो नंबर एक ही सुपर पॉवर है, चाहे वह केंद्र के स्तर पर हो चाहे राज्यों के स्तर पर हो. परिवारवादी राजनीतिक दलों में तो नंबर एक और नंबर दो का कोई विवाद ही नहीं होता, क्योंकि वहां हमेशा नंबर एक परिवार होता है.

दूसरा कोई उसको चुनौती देने के बारे में सोच भी नहीं सकता. ऐसी स्थिति सभी क्षेत्रीय दलों में भी विद्यमान है. कांग्रेस में भी कमोबेश ऐसे ही हालात है. जहां नंबर एक गांधी परिवार है और दूसरे नंबर पर कोई नहीं है क्योंकि दूसरा नंबर होता ही नहीं है. नंबर दो के परसेप्शन की लड़ाई उन दलों में देखी जाती है जहां परिवारवादी नेतृत्व नहीं होता. जहां कार्यकर्ता उच्च स्तर तक पहुंच सकता है.

बेहतर भविष्य की कल्पना हर इंसान करता है, करना भी चाहिए. नंबर एक मुख्यमंत्री ही होता है जो मंत्रिपरिषद के सदस्यों में से ही एक है. राज्यों में मंत्रिपरिषद के कई सदस्य कभी विभाग के महत्व के आधार पर तो कभी जाति के महत्व के आधार पर या कभी किसी अन्य कारण से अपने आपको नंबर दो समझने लगते हैं. कोई खुली आंखों से सपना देखे तो उसमें कुछ भी नहीं किया जा सकता लेकिन जो स्थान है ही नहीं उसके बारे में कोरी कल्पना वर्तमान में मिले पद का आनंद भी प्रभावित करती है.

राजनीतिक कारणों से उप मुख्यमंत्री पद भी नंबर दो के परसेप्शन के लिए बनाए गए. मध्यप्रदेश में बीजेपी ने तो अभी तक उपमुख्यमंत्री का पद नहीं बनाया है. दिग्विजय सरकार में उप मुख्यमंत्री के पद बनाए गए थे. प्यारेलाल कंवर, सुभाष यादव और जमुना देवी ने उप मुख्यमंत्री के रूप में काम किया था.

उपमुख्यमंत्री और मंत्री के बीच में कोई ना अधिकारों का अंतर है ना साधन सुविधाओं का अंतर है. यह पद भी संविधान सम्मत नहीं है. यह तो राजनीतिक दलों की मजबूरी होती है कि जाति और समाज को साधने के लिए उस वर्ग के नेता के महत्व को प्रतिपादित करने की दृष्टि से ऐसा करते हैं.

वर्तमान में उत्तर प्रदेश में भी दो उपमुख्यमंत्री काम कर रहे हैं. उत्तर प्रदेश में नंबर 1 योगी आदित्यनाथ के मुकाबले कोई भी नंबर दो होने का सोच सकता है? केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नंबर दो बनने के बारे में कोई विचार कर सकता है? हमेशा नंबर वन लीडर ही पार्टी का चेहरा होता है. जनादेश भी उसी चेहरे के समर्थन में माना जाता है. आजकल तो पीएमओ और सीएमओ पूरी गवर्नमेंट का केंद्र बने हुए हैं. किसी भी मंत्रालय में पीएमओ और सीएमओ के संदेश नियम जैसे माने जाते हैं.

प्रशासकीय तंत्र भी नंबर वन के ही नियंत्रण में रहता है. मंत्रिपरिषद के बाकी सदस्यों के प्रमुख सचिव और सचिव भी सीधे मुख्यमंत्री को रिपोर्ट करते पाए जाते हैं. भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने भोपाल में इसी स्थिति का उल्लेख करते हुए कहा है कि अधिकारी सीधे मुख्यमंत्री से नहीं मिलना चाहिए बल्कि मंत्री के माध्यम से मुख्यमंत्री के पास जाना चाहिए. 

हालात ऐसे हैं कि अधिकांश विभागों में मंत्री और प्रशासनिक मुखिया के बीच में टकराव आम बात हो गई है. कई बार तो मंत्रियों की चाल पर नकेल के लिए कड़क अफसर पदस्थ किए जाते हैं. फिर सालों साल यही विवाद चलता रहता है कि अधिकारी मंत्री की नहीं सुनते और मंत्री अधिकारी की नहीं सुनते. सरकारों में नंबर दो के परसेप्शन के लिए भी एक नहीं कई लोग एक साथ मैदान में होते हैं. नंबर दो एक मनोदशा है. 

वैसे तो हर आदमी नंबर एक के लिए प्रयास करता है लेकिन सबको तो नंबर एक मिल नहीं सकता. फिर जो मिला है उसी में खुश रहना एक मात्र रास्ता है. जो लोग ऐसी मनोदशा को स्वीकार कर लेते हैं वह अपने वर्तमान को भी अच्छा बनाने में सफल होते हैं और उनका भविष्य भी उज्जवल होता है. जो लोग हमेशा नंबर दो होने का दंभ पालते हैं, वह कई बार उल्टे मुंह जमीन पर गिरते हुए देखे गए हैं.

मीडिया के लिए यह बहुत अच्छी परिस्थिति है कि कई लोग नंबर दो की मनोदशा से पीड़ित हों. ऐसा होने पर खबरें मिलती रहती हैं. मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री सख्त दिखते नहीं है लेकिन राजनीतिक रूप से उनकी सख्ती कईयों को घर बैठा चुकी है. पार्टी ने किसी को नंबर वन बनाया है लेकिन पार्टी ने किसी को नंबर दो का खिताब तो नहीं दिया है?

फिर अक्सर अखबारों में ऐसी खबरें कैसे आ जाती हैं कि सरकार में नंबर दो की अहमियत रखने वाले नेता के साथ ऐसा दुर्व्यवहार हुआ. नंबर दो कहां से आया? प्रकृति की तरह खिलना स्वभाविकता है. एक बार जो ढल जाएंगे वह शायद ही खिल पाएंगे. जो भी मौका है उसका समाज में आनंद बिखेरेंगे तो नंबर वन और नंबर दो के द्वंद से ऊपर आगे बढ़ते ही जाएंगे.