कड़ी टक्कर वाले एमपी चुनाव में विरोध और बग़ावत के मामलों में भी दोनों दलों में कड़ी टक्कर हो रही है। दोनों दलों में बगावती सायरन चुनावी विस्फोट के संकेत कर रहे हैं। दोनों दलों के सुरक्षा कवच धराशायी हो गए से लगते हैं।
अनुशासन, सिद्धांत और विचारधारा एक अदद टिकट के लिए अपनी इज्जत बचाने मारे-मारे फिर रहे हैं। बाप-बेटों की राजनीति ने सुरक्षा सिस्टम की चूले हिला दी हैं। चुनाव में मुख्य प्रतिद्वंद्वियों के बीच बड़ी संख्या में विधानसभा सीटों का भविष्य भितरघात की भेंट चढ़ गया है।
असंतुष्ट न तो किसी भी बात को सुनने को तैयार दिख रहे हैं और ना ही उनको मनाने वाले नेताओं में आस्था और विश्वास का नैतिक अधिकार दिख रहा है। लोकतंत्र के भाग्य विधाता बनने के लिए लिप्सा, लालच और लालसा आम लोगों की इन धारणाओं को बल दे रही है कि राजनीति सबसे बिकाऊ और कमाऊ धंधा है। एक बार जिन्हे इसकी लत लग गई फिर वह दल, विचारधारा तो क्या परिवार और जीवंत रिश्ते भी कुर्बान करने को तैयार हो जाते हैं।
इस चुनाव में पहली बार होशंगाबाद में दो सगे भाई मैदान में हैं। सागर में जेठ और बहु आमने -सामने हैं। देवतलाब में चाचा और भतीजे मैदान में ताल ठोक रहे हैं। इसमें भी ख़ुशी ये है कि जीते कोई भी विधायकी तो परिवार में ही रहेगी। रिश्तेदार, परिवार, सगे, संबंधियों के नजरिये से देखा जाये तो न मालूम कितने प्रत्याशी चुनावी मैदान में दोनों दलों ने उतारे हैं।
विधानसभा प्रत्याशियों में तो उम्र की कोई सीमा ही नहीं हैं। चुनाव ही जातिवाद की जड़ों को मजबूती प्रदान करते हैं। महिला और ओबीसी की भागीदारी की बातें किसी भी लक्ष्य तक नहीं पहुंच सकी हैं। जिस ढंग से टिकट दिए और बदले गए वह भी पार्टियों में संगठन और सुरक्षा सिस्टम की पोल खोल रहा है।
मध्यप्रदेश में पिछले जनादेश के बाद बगावत के उपरांत हो रहे इस आम चुनाव में बग़ावत की बहार दिखाई पड़ रही है। किसी दल में ज्यादा या कम बग़ावत आंकना बहुत कठिन है। प्रदेश का कोई अंचल ऐसा नहीं जहां बग़ावत की बमबारी न हो रही हो। ग्वालियर-चंबल में जहां कांग्रेस अपने लिए बड़ी संभावनाओं की आशा कर रही थी वहां टिकट वितरण में गड़बड़ी के कारण विकट स्थिति निर्मित हो गई है।
इस अंचल में बढ़त देखने वाली कांग्रेस के सामने अपनी पुरानी उपलब्धि दोहराना भी अब तो चुनौती लग रही है। शिवपुरी से वीरेंद्र रघुवंशी को टिकट नहीं मिलना और केपी सिंह की पिछोर सीट बदलने के पीछे किसकी राजनीति काम कर रही है इस पर कई सवाल खड़े हो रहे हैं। कांग्रेस के जानकार सूत्रों पर भरोसा किया जाए तो दोनों दलों में कई सीटों पर एक दूसरे के तालमेल को खोजा जा सकता है।
वीरेंद्र रघुवंशी को कांग्रेस से टिकट नहीं मिलने के पीछे क्या सिंधिया परिवार की कोई राजनीति काम कर रही है? चुनाव के दौरान इस तरह के आरोप-प्रत्यारोप सामने आ सकते हैं। सरकार बदलने के बाद उपचुनाव में पराजित जिन प्रत्याशियों की ओर से टिकट न मिलने पर विरोध दिखाई दे रहा है उसे नैतिकता की दृष्टि से ठीक नहीं कहा जा सकता। कई ऐसे प्रत्याशियों को मौका मिला है जिन्हें पिछले चुनाव में टिकट नहीं दिया गया था।
लहरविहीन और मुद्दाविहीन इस चुनाव में प्रत्याशी के चेहरे पर काफी फैसले हो सकते हैं। असंतोष और भितरघात की संभावनाएं कई सीटों पर चुनावी नतीजों में उलटफेर कर सकती हैं। जो राजनीतिक दल अगले एक सप्ताह में अपने असंतोष को नियंत्रित करने में सफलता प्राप्त कर लेगा, उसका चुनावी भविष्य उज्जवल हो सकेगा। प्रचार और चुनावी प्रबंधन में बीजेपी आगे दिखाई पड़ रही हैं। कांग्रेस में असंतोष मैनेजमेंट की कार्रवाई को प्रभावी भूमिका निभानी होगी।
एमपी की पॉलिटिक्स क्या उत्तर भारत के दूसरे राज्यों की तर्ज पर अशांति की तरफ बढ़ रही है? राजनीतिक दलों की भूमिका क्या स्वार्थी राजनीति को बढ़ावा दे रही है? एमपी का यह चुनाव भविष्य के मध्यप्रदेश का आधार निर्धारित करेगा। राजनीतिक मूल्यों के प्रति स्पष्टता और राज्य के प्रति प्रतिबद्धता ही राज्य का आत्म विश्वास बढ़ाएगी। हमारे लीडर्स को केवल अपनी वाह-वाही नहीं बल्कि कमजोरियों पर भी बात करनी चाहिए।
राज्य तभी आगे बढ़ेगा जब राजनीति पर भरोसा बढ़ेगा। भरोसा तभी मजबूत होगा जब इस पर बात करते समय राजनीति शीशे की तरह साफ़ होगी। सत्ता की मलाई अगर लड़ाई का आधार है तो फिर बगावत और भितरघात राजनीतिक जीवन की मज़बूरी बनी ही रहेगी।