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बांटने की सियासी कव्वाली, आधा भरा-आधा खाली

सार

     चुनाव आया कि बांटने और काटने का काम तेज हो जाता है. बंटवारे की सियासी कव्वाली शुरु हो जाती है. ‘बटेंगे तो कटेंगे’ और ‘जाति जनगणना’ बांटने का ही सियासी एजेंडा है. राजनीति के दोनों गठबंधन बाँटने और काटने का ही काम कर रहे हैं. एक दूसरे पर विभाजनकारी आरोप लगाने वाले ‘बाँट’ कर ही सफल होने का प्रयोग कर रहे हैं. बँटवारा ही बहुमत का आधार है. जब बटेंगे नहीं,कटेंगे नहीं तो फिर बहुमत और अल्पमत कैसे साबित होगा?

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विस्तार

    बटेंगे और कटेंगे की सियासत गिलास के आधा भरा और आधा खाली होने जैसा है. दोनों गठबंधन अपने मतदाताओं और समर्थकों को एक तरफ सेफ रखना चाहते हैं और दूसरे के हिस्से में बंटवारा चाहते हैं. हिंदू मुस्लिम चल गया तो बीजेपी को फायदा और जाति का गणित चला तो कांग्रेस गठबंधन को फायदा मिलता है. बीजेपी, जाति का विभाजन रोकना और धार्मिक ध्रुवीकरण को तेज करना चाहती है.

    वहीं कांग्रेस गठबंधन अल्पसंख्यकों को अपना वोट बैंक मानकर जाति विभाजन को अपनी जीत का आधार मानती है. यही सियासत महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव में हो रही है. चाहते सब हैं, कि हमारे तो एक रहे और सेफ रहें और दूसरे के कटें-बंटें ताकि EVM में बहुमत का समीकरण फिट बैठे. योगी आदित्यनाथ का बटेंगे तो कटेंगे और पीएम मोदी का एक रहेंगे तो सेफ रहेंगे के मैसेज में कोई अंतर नहीं है. इसी प्रकार राहुल गांधी की जाति जनगणना भी बटेंगे और कटेंगे का ही एक रूप है. अंतर केवल इतना है कि  दोनों गठबंधन कर एक ही काम रहे हैं, लेकिन उसको देखने का नज़रिया अलग-अलग है.

    सियासत यह जानती है कि जब बटेंगे नहीं तो जीतेंगे कैसे? पार्टीयों के प्रत्याशियों के अलावा निर्दलीय और बागी प्रत्याशी बांटने और काटने का ही टेस्टेड फॉर्मूला है. हरियाणा में इसका सफल प्रयोग बीजेपी ने किया है. इन दोनों राज्यों में भी इनके जरिए वोटों को बांटने और काटने का काम हो रहा है.

    असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी को तो वोट कटवा पार्टी के रूप में ही देखा जाता है. वोट  ज़िहाद अगर कांग्रेस की कुंजी है, तो हिंदुत्व NDA का तिलक है. दोनों में अंतर कुछ भी नहीं है, सियासत को समाज की एकता से कोई लेना-देना नहीं है. चुनाव और बहुमत तो बंटवारे का ही परिणाम है. कोई बंटें कोई कटे, सियासत का लक्ष्य तो केवल, हम कैसे सत्ता पर डटे.

    बंटने और कटने की बात सियासी भीड़ तंत्र का मंत्र है. इंसान तो परम स्वतंत्र है. किसी हाथ की लकीरें मेल नहीं खाती. यहां तक की वृक्षों के पत्ते भी अलग-अलग होते हैं. आत्म शक्ति को भीड़ शक्ति सियासत नें ही बनाया है. एक भी इंसान ऐसा ढूंढना मुश्किल है, जो हिंदू, मुसलमान, सिख, इसाई, जैन या बौद्ध ना हो. खालिस इंसान मिलेगा ही नहीं.

    स्वतंत्रता इंसान की सबसे बड़ी पूंजी है लेकिन सियासत व्यक्तिक स्वतंत्रता का हनन करती है. व्यक्तिगत स्वतंत्रता को भीड़ तंत्र बनाकर बांटने और काटने का सियासी हथियार बनाया जाता है. व्यक्तिगत जीवन में जो भी अशुभ है, वह सब सियासत में शुभकारी माना जाता है. व्यक्तिगत विचार और स्वतंत्रता सियासत को स्वीकार नहीं है. भीड़ में भेड़ जैसा चलने को जो तैयार है,वही सियासत का आधार है.

    पूरी सियासत विभाजन, लालच और डर पर सिमट गई है. बांटने और काटने का डर दिखाया जाता है. निजी जीवन में लालच को बुरा माना जाता है लेकिन सियासी दल लालच को ही अपना घोषणा और संकल्प पत्र बनाते हैं. चुनाव की बेला में मुफ्त खोरी की योजनाएं नगद अनुदान की योजनाएं ऐसे घोषित की जाती हैं, जैसे सियासी लोग अपनी जेबों से यह सब दे रहे हैं.

    सियासत द्वारा लालच की जो भावना बढ़ाई जा रही है, उससे समाज का नुकसान हो रहा है. कर्महीनता बढ़ रही है, जो दल जितना ज्यादा देने का वादा कर सकता है, वह कर रहा है. जिसकी बंटवारे की राजनीति सफल हो गई, वही चुनाव जीत जाता है. जो अपनी विचारधारा के समर्थकों और मतदाताओं को एकजुट करने में सफल रहता है साथ ही दूसरे के समर्थक मतदाताओं को बांटने में सफल होता है, वही सियासत का सिकंदर बन जाता है.

  जगत से जाता तो सिकंदर भी खाली हाथ है, लेकिन सिकंदर बनने के लिए बांटेंगे, काटेंगे, जातियों में तोड़ेंगे लेकिन बात करेंगे कि हम भारत जोड़ेंगे. यह रियासत का लालची प्रभाव है कि पार्टियां टूट रही हैं. परिवार टूट रहे हैं.  भरोसे के लिए पार्टी में केवल परिवार और भाई-बहन ही दिखाई पड़ रहे हैं. झारखंड में भाई और भाभी टूट गए हैं. महाराष्ट्र में भी चाचा भतीजे बंट गए हैं. अब चाचा और भतीजे ही आमने-सामने लड़ रहे हैं. 

   बटेंगे तो कटेंगे और जातीय  जनगणना केवल नारा नहीं है बल्कि आज की सियासत का, यही सबसे बड़ा सहारा है. प्रत्याशी उतारने में भी जातियों में बंटवारा साफ दिखाई पड़ता है. अगर कोई गठबंधन एक भी मुस्लिम प्रत्याशी नहीं उतारता तो यह भी ध्रुवीकरण का ही प्रयास है. यह भी बांटने और काटने को तेज करने का फार्मूला है.

    बंटने और कटने की बात हरियाणा से शुरु हुई है लेकिन ऐसा लगता है कि इसका सबसे उपयुक्त राज्य झारखंड और महाराष्ट्र ही है. महाराष्ट्र में तो परिवार बंट गए हैं. आमने-सामने लड़ रहे हैं. शिवसेना और एनसीपी का नाम दोनों गठबंधन में मैदान में है. मराठा आरक्षण के नाम पर भी बंटवारे को गति दी जा रही है. कोई आखिरी चुनाव के नाम पर अपने समर्थकों का बंटवारा रोकना चाहता है. 

    महाराष्ट्र में मतगणना के दिन, कौन सा गठबंधन जीतेगा, इसका तो केवल अनुमान लगाया जा सकता है. लेकिन एक बात जो निश्चित लग रही है वह यह है कि  महाराष्ट्र का वास्तविक चुनाव नतीजे के बाद शुरू होगा. कौन सा गठबंधन सत्ता में आएगा? कौन सा दल किस गठबंधन के साथ जाएगा? यह सब चुनाव परिणाम के बाद तय होगा. जो गठबंधन भी चुनाव मैदान में है वह भी बटेंगे और कटेंगे.

    तेईस नवंबर को परिणाम आएंगे और महाराष्ट्र में सरकार के गठन के लिए केवल तीन दिन का समय रहेगा. इस बात की उम्मीद की जा सकती है कि जिस तरीके से गठबंधन का नजारा दिखाई पड़ रहा है, इतने कम समय में सरकार का गठन वहां संभव नहीं होगा. इसलिए इसकी पूरी संभावना है कि चुनाव परिणाम के बाद सरकार गठन की प्रक्रिया में विलंब के कारण महाराष्ट्र में फिर इस बार राष्ट्रपति शासन लगाने की आवश्यकता पड़े. 

    बंटना और कटना, हमारी नियति है. बातें जोड़ने की होती है लेकिन काम काटने के होते हैं. बंटने और कटने की सियासत खत्म नहीं होने वाली. यह हर चुनाव में अधिक तेज होगी. जबसे लोकतंत्र आया है, तब से बाँट बाँट कर ही सरकारें बनी है. सिविल कोड में भी हम बंटें हैं तो यह भी सरकारों की बांटने की नीति का ही नतीजा है. लोकतंत्र में तो बांटो-काटो लेकिन इंसानियत में एक रहेंगे तो हम भी सेफ रहेंगे और देश भी सेफ रहेगा.