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PM मोदी की नाकामियों पर पनपती विपक्षी हसरतें 

सार

हवाई सपनों से हटकर जमीन के खुरदुरे धरातल को भी  टटोलने की जरुरत है और सिर्फ राष्ट्रवाद के नाम पर वोट हासिल करने की हसरतों से आगे बढ़कर जो भी करने की जरुरत है

janmat

विस्तार

देश में इन दिनों एक अलग सा सियासी भूचाल है। आम आदमी पार्टी का एक मंत्री जेल में है, दूसरा शराब नीति के गड़बड़झाले में जेल जाने की तैयारी में है। लेकिन आम आदमी पार्टी इसे अपनी सरकार के स्वास्थ्य और शिक्षा के मॉडल और पंजाब में जीत की कामयाबी बताकर आप प्रमुख अरविंद केजरीवाल को 2024 में  देश का पीएम बनाने का दावा ठोक रही है।

ममता के सबसे करीबी मंत्री पार्थ चटर्जी शिक्षक भर्ती घोटाले में  सलाखों के पीछे हैं लेकिन तृणमूल पार्टी की बम्पर जीत का सेहरा बांधे ममता बनर्जी भी देश का मुखिया बनने के लिए ताल ठोक रही हैं। भाजपा का दामन छोड़ लालू की दागदार राजद की गोद में जा बैठे नीतीश बाबू भले ही नकार रहे हों लेकिन उनके सिपहसालार उनको पीएम की रेस का तगड़ा घोड़ा बताने पर आमादा हैं। 

क्षेत्रीय दलों के इन दावों के बीच दहाई के अंक से दूर सपा के अखिलेश बाबू के समर्थक भी कहां पीछे रहने वाले हैं। फिर देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के नेता राहुल गांधी को मोदी के उत्तराधिकारी के दावे से भला कैसे पीछे रख सकते हैं। सवाल यह है कि प्रधानमंत्री की कुर्सी की लड़ाई के पौने दो साल पहले देश में 1996 के दौर का देवगौड़ाई नेरेटिव क्यों खड़ा हो रहा है या किया जा रहा है। 

इसके जवाब तलाशेंगे तो भाजपा ही इसके पीछे नजर आएगी। इसमें कोई शक नहीं कि मोदी-शाह की जोड़ी ने देश में उच्च स्तर से लेकर निचले स्तर तक भ्रष्टाचार के खिलाफ जो जंग छेड़ी है उसने विपक्षी दलों को खासा बेचैन कर दिया है। पटवारी दरोगाओं से ऊपर उठकर उच्च स्तर पर पनपे भ्रष्टाचार के खिलाफ मोदी-शाह की पहल प्रशंसनीय है। इसे और भी जारी रहना चाहिए और तार्किक परिणिति तक पहुंचना चाहिए।

इससे इतर देखें तो मोदी-शाह या निर्मला सीतारमन या फिर मोदी सरकार के कारिंदों के आम जनता को लेकर अपनाए गए अप्रोच ने अवाम में त्राहिमाम वाले हालात पैदा कर रखे हैं। देश में बढ़ती महंगाई से त्रस्त जनता को वैश्विक मंहगाई के कुतर्कों से जोड़कर जख्मों पर नमक मिर्च छिड़का जा रहा है। लोग एक हद तक इसे वैश्विक ट्रेंड मान भी लें, लेकिन जीएसटी से बढ़ती आय के बावजूद खाने पीने की और भी चीजों को उसके दायरे में लाना देश की जनता को चिढ़ाने जैसा है। 

यह मान लेने का भाव हावी है कि तुम्हारी इनकम बढ़े या न बढ़े बढ़ा टेक्स तो आपको झक मारकर देना है। टेक्स टेरेरिज्म का यह रवैया ठीक नहीं है। लेकिन भाजपा यह मानकर चल रही है कि महंगाई भले आसमान छुए पर आप तो झक मारकर राष्ट्रवाद के नाम पर वोट तो भाजपा को ही मिलेंगे। यह सोच और मानसिकता खतरनाक है। इसी अप्रोच के चलते 2014 में दिल्ली से यूपीए की विदाई हुई थी। 

जब पैट्रोलियम पदार्थों की कीमतें अंर्तराष्ट्रीय दरों से जोड़ कर रखी हैं तो फिर कच्चे तेल की दरें घटने पर पेट्रोल डीजल की कीमतें क्यों नहीं घट रही? पर्यावरण की रक्षा के लिए जब इलेक्ट्रिकल वाहनों के साथ सस्ती सीएनजी को बढ़ावा देने की नीति अपनाई तो फिर छह महीनें में सीएनजी के दाम बीस रूपए किलो क्यों बढ़ गए ?  स्मार्ट सिटी जैसी खर्चीली योजनाएं क्यों परवान नहीं चढ़ रहीं? दरअसल ऐसे ही कई मुददें पर लगातार अनदेखी से आहत जनता की नब्ज को समझते हुए विपक्षी दलों के कई नेताओं ने पीएम बनने के सब्जबाग देखने शुरू कर दिए हैं।

एनडीए से जिस तरह से लगातार घटक दल छिटक रहे हैं, उसको देखते हुए मोदी और भाजपा की चुनौती अपने बूते बहुमत प्राप्त करने की रहेगी, वरना लूले लंगड़े बहुमत की सरकार बनेगी तो देश फिर एर बार जोड़तोड़ की सरकारों के दौर में पहुंच जाएगा और दस साल की सारी मेहनत पर पानी फिरने में देर नहीं लगेगी। पौने दो साल का वक्त कम नहीं होता है।

इसलिए हवाई सपनों से हटकर जमीन के खुरदुरे धरातल को भी  टटोलने की जरुरत है और सिर्फ राष्ट्रवाद के नाम पर वोट हासिल करने की हसरतों से आगे बढ़कर जो भी करने की जरुरत है जिसे जितनी जल्दी समझ लिया जाए उतना ही बेहतर है।