झांकी पर झंझट: एमपी मौन, फिर केरल बंगाल ने क्यों मचाया घमासान ? अलग-अलग दलों की सरकारों में इतना गंभीर विश्वास का संकट क्यों ? गणतंत्र दिवस पर झांकियों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए निर्धारित समय में जितनी अधिकतम झांकियां शामिल हो सकती हैं, उतनी ही झांकियां विशेषज्ञों द्वारा चुनी जाती हैं| अलग-अलग दलों की सरकारों के बीच विश्वास का संकट इतना ज्यादा गहरा गया है कि केंद्र सरकार के विरोधी दलों की राज्य सरकारों ने उनकी झांकियां नहीं शामिल होने पर राजनीतिक घमासान खड़ा कर दिया है..
गणतंत्र दिवस परेड में राजपथ पर राज्यों की सांस्कृतिक झांकियों में इस बार मध्य प्रदेश की झांकी भी शामिल नहीं की गई है| केंद्र सरकार ने इस बार झांकियों का विषय राज्यों में स्वाधीनता के नायकों पर केंद्रित रखा है| सभी राज्यों की ओर से अपने प्रस्ताव भेजे गए थे| मध्यप्रदेश से भी झांकी में शामिल होने के लिए सूबे के स्वाधीनता के नायको की झांकी प्रदर्शित करने का प्रस्ताव भेजा गया था| इसे शामिल नहीं किया गया| ऐसा सामान्य रूप से होता है कि सभी राज्यों की झांकियां कभी भी गणतंत्र दिवस परेड में शामिल नहीं हो पाती| इस बार भी कई राज्यों की झांकियों को शामिल नहीं किया गया है|
पश्चिम बंगाल, केरल और तमिलनाडु की झांकियों को खारिज किए जाने पर राजनीतिक बबाल खड़ा हो गया है| इन तीनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने केंद्र सरकार पर भेदभाव का आरोप लगाया है| केंद्र सरकार की ओर से सफाई भी आई है जिसमें कहा गया है झांकियों का चयन विशेषज्ञों की समिति द्वारा किया जाता है| उसमें सरकार की भूमिका नहीं होती| केंद्र ने ये भी कहा है कि 2014 के बाद उनकी सरकार के कार्यकाल में विरोध करने वाले राज्यों की झांकिया भी कई बार शामिल हो चुकी हैं|
इस तरह की राजनीतिक परिस्थितियां देश के लिए गंभीर चिंता का विषय हैं| अलग-अलग पार्टी की सरकारों में कामकाजी विश्वास भी नहीं बचा है| गणतंत्र दिवस की सांस्कृतिक झांकियों को भी राजनीतिक चश्मे से देखा जाएगा तब राष्ट्रीय मुद्दों पर इन दलों की सरकारों के बीच व्यवहार कैसा होगा ? पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री तो केंद्र से टकराहट में सामान्य शिष्टाचार को भी राजनीतिक रंग देने में नहीं चूकती| पश्चिम बंगाल के मुख्य सचिव प्रधानमंत्री की बैठक छोड़कर मुख्यमंत्री के साथ चले गए थे| इसे प्रशासनिक दृष्टि से अनुशासनहीनता माना गया था| इस संबंध में न्यायिक प्रक्रिया अभी चल रही है| इसी प्रकार की दूसरी घटना अभी हाल ही में हुई है, जब प्रधानमंत्री द्वारा कैंसर इंस्टीट्यूट के ऑनलाइन उदघाटन कार्यक्रम में शामिल ममता बनर्जी राजनितिक स्कोर हासिल करने से बाज़ नहीं आती|
अभी हाल ही में प्रधानमंत्री की पंजाब में सुरक्षा चूक मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जांच समिति बनाई गई है| इस घटना में भी केंद्र और राज्य में अलग-अलग दलों की सरकारों के बीच भरोसे की कमी साफ़ दिखाई पड़ती है| राजनीतिक अविश्वास इस सीमा तक बढ़ गया है कि राज्य की जनता को इसका खामियाजा कई बार भुगतना पड़ता है| कई राज्यों ने केंद्र की कई योजनाएं लागू नहीं की क्योंकि उन्हें लगता है कि इसका राजनीतिक लाभ उनके विरोधी दल की केंद्र सरकार को मिल सकता है|
कोरोना वैक्सीन के मामले में भी इसी तरह की राजनीति हुई थी| उत्तर प्रदेश के सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने तो यहां तक ऐलान किया था कि ये वैक्सीन भाजपा सरकार की है इसलिए वे टीका नहीं लगवाएंगे| सोचिए कि जो वैक्सीन जीवन रक्षा के लिए है उसे भी राजनीतिक नजरिए से देखना क्या राजनीतिक दलों के बीच भरोसे के संकट को नहीं दर्शाता है ? राजनीतिक दलों के बीच सत्ता के लिए चुनावी संघर्ष सामान्य बात है| लेकिन विभिन्न दलों की सरकारों के बीच इस तरह के टकराव का खामियाजा अंततः आम लोगों को ही भुगतना पड़ता है|
विभिन्न दलों की सरकारों के बीच भरोसे के संकट का शिकार प्रशासनिक तंत्र तो होता ही रहता है| जब भी सरकारों में बदलाव होता है तब पुरानी सरकार के साथ काम कर रहे अफसरों को दंडित और अपमानित किया जाता है| यह भी राजनीतिक दलों की प्रतिद्वंद्विता का ही परिणाम है| प्रशासनिक तंत्र किसी राजनीतिक दल का कर्मचारी नहीं होता| वह सरकार के लिए काम करता है| उस समय जो भी सरकार शासन में होती है उसके साथ काम करना उसका दायित्व है| सरकार बदलने पर उसी दायित्व का निर्वहन वह दूसरे के साथ ईमानदारी से करेगा| लेकिन राजनीतिक दल अपनी प्रतिद्वंदिता का दंड प्रशासकीय तंत्र को देकर अपना ईगो सेटिस्फाई करते हैं|
आजादी का अमृत महोत्सव देश मना रहा है, इतने सालों में तमाम राजनीतिक दल और नेता आए और गए| पहले राजनेताओं में आपसी गरिमा का सदैव ध्यान रखा जाता था| पाकिस्तान से युद्ध के बाद बांग्लादेश बनाने पर तत्कालीन विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेई ने, तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को दुर्गा कहकर उनकी प्रशंसा में क्या-क्या शब्द नहीं कहे थे| आज इस तरह की परिस्थितियां देखने सुनने को नहीं मिलती हैं| इसके उलट आज तो राजनेता एक दूसरे पर इस तरह के आक्षेप और आरोप, राजनीतिक दृष्टि से लगाते हैं, जो राजनीतिक बिरादरी के प्रति आम लोगों में सवालिया निशान खड़े करती है|
आज समाज में राजनीति और राजनेताओं का वो सम्मान नहीं बचा है जो पहले हुआ करता था| आज तो केवल चुनाव का अर्थमैटिक ही राजनीति की सफलता है| विभिन्न दलों और उनकी सरकारों के बीच गहराता विश्वास का संकट जनतंत्र को ही कटघरे में खड़ा कर रहा है| आज राजनीति का सम्मान समाज में बढ़ता रहे इसके लिए सभी राजनीतिक दलों और नेताओं को आचरण और व्यवहार को कसौटी पर कसना पड़ेगा| किसी शायर ने कहा है पहले सियासत में मोहब्बत थी अब मोहब्बत में सियासत है| सियासत में जनसरोकारों के लिए मोहब्बत आज की ज़रूरत है|