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​​​​​​​संकल्प नया विकल्प वही

सार

लोकसभा की102 सीटों के लिए पोलिंग समाप्त हो गई है. नतीजों की नियत मत पेटियों में बंद हो गई है. चुनाव में सब कुछ 2019 के चुनाव जैसा ही लग रहा है. प्रचार अभियान से लेकर संकल्प और विकल्प की विचारधाराएं भी वैसी ही हैं, जैसी पिछले लोकसभा चुनाव में थीं..!!

janmat

विस्तार

    हिंदुत्व की राजनीतिक धारा अपनी विकास की धारा के साथ चुनाव मैदान में है, तो हर राज्यों में तुष्टिकरण के अलग-अलग प्यादे अपनी शतरंज की बिसात बिछाए हुए हैं. दिल्ली की कुर्सी बिना यूपी जीते मिल नहीं सकती. यूपी ही 10 साल से भारत को प्रधानमंत्री दे रहा है. इस बार भी प्रधानमंत्री यूपी से ही चुनाव लड़ रहे हैं. 

    यूपी में मुकाबले के लिए तुष्टीकरण के प्यादे दो शहजादे फिर एक साथ आए हैं. पहले भी आए थे और अलग-अलग से भी खराब नतीजे मिले थे. इस बार फिर वही धार वही विचार वही वार सब कुछ पुराना ही लग रहा है. नेता वही, नियत वही, नीति वही और गठबंधन का नाम नया. 2014 के बाद हिंदुत्व राजनीति की मुख्य धारा बन गई है. बीजेपी की विचारधारा हिंदुत्व की समर्थक है, तो बीजेपी के विकल्प के रूप में सामने उपलब्ध दूसरे राजनीतिक दल हिंदुत्व के विरोधी हैं. 

    बीजेपी की विचारधारा हिंदुत्व पर आगे बढ़ती दिख रही है. सनातन को भारत की आत्मा स्वीकार करती है, तो कांग्रेस और उसके गठबंधन की विचारधारा जातिवादी हिंदुत्व के साथ मुस्लिम तुष्टिकरण को अपना आधार मानती है. जातिगत जनगणना का वायदा जातिवादी विभाजित हिंदुत्व को बढ़ाने का प्रयास है. 

    लोकसभा चुनाव का फोकस दक्षिण और उत्तर में बंटा हुआ दिखाई पड़ रहा है. उत्तर में भाजपा मजबूत है,तो दक्षिण में कांग्रेस या उसके गठबंधन बड़ी उम्मीद लगाए हुए हैं. राहुल गांधी और अखिलेश यादव का गठजोड़ यूपी में सेंघ लगाने के लिए मेहनत कर रहा है, तो पीएम मोदी और सीएम योगी की जोड़ी यूपी की पहली पसंद बनी हुई है. 

    बीजेपी उत्तर प्रदेश की सभी अस्सी सीटें जीतने की कोशिश कर रही है. कांग्रेस तो उत्तर प्रदेश में लुफ्तप्राय सी ही लग रही है. समाजवादी पार्टी ज़रूर जातिगत गणित में अपने जनाधार को बनाए हुए है. बहुजन समाज पार्टी के अलग चुनाव लड़ने से कांग्रेस और उसके गठबंधन को नुकसान की उम्मीद है. बशर्ते बसपा अपने जनाधार को क़ायम रख सके. सीट वार विश्लेषण करने पर कई स्थानों पर बसपा, भाजपा के प्रत्याशियों को भी नुकसान पहुंचा रही है. लेकिन ज्यादातर सीटों पर बसपा कांग्रेस और सपा गठबंधन की संभावनाओं पर ही पलीता लगा रही है.

    भाजपा मजबूत सरकार और मजबूत नेतृत्व के सहारे जहां आगे दिख रही है, वहीं असफल चेहरे और असफल नेतृत्व के भरोसे कांग्रेस और उसके गठबंधन सियासी शोर मचा रहे हैं. बहुसंख्यकों का ध्रुवीकरण 2019 की तुलना में बढ़ा और मजबूत हुआ है. 

    राम मंदिर के निर्माण और प्राण प्रतिष्ठा के बाद आशा और विश्वास के साथ ही वायदा निभाने वाले दल के रूप में बीजेपी इस चुनाव में जनादेश मांग रही है. कश्मीर में धारा 370 हटाकर राष्ट्रवाद के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को बीजेपी ने देशवासियों के सामने साबित किया है. CAA,NRC और UCC के संबंध में की गई कार्यवाहियों से राष्ट्रीय समस्याओं के समाधान के लिए बीजेपी पर विश्वास मजबूत हुआ है. लोकसभा का यह चुनाव CAA,NRC और UCC के समर्थन और विरोध में जनादेश के रूप में भी देखा जा रहा है. 

    पश्चिम बंगाल में तो TMC ने अपने घोषणा पत्र में वादा किया है, कि पश्चिम बंगाल CAA,NRC और UCC लागू नहीं किया जाएगा. कांग्रेस ने भी ऐसा ही वादा किया है. मुस्लिम पर्सनल लॉ का समर्थन कांग्रेस के घोषणा पत्र में किया गया है. इसका सीधा मतलब है,कि UCC को लेकर कांग्रेस की भी वही राय है, जो TMC की है. एक तरह से यह चुनाव CAA,NRC और UCC पर जनमत संग्रह भी हो जाएगा. 

    राहुल गांधी चुनाव प्रचार में कह रहे हैं, यह चुनाव दो विचारधाराओं के बीच में है. उनके अनुसार एक बीजेपी और RSS की विचारधारा है और दूसरी तरफ कांग्रेस की विचारधारा है. बीजेपी और RSS की विचारधारा तो हिंदुत्व सनातन के साथ है, लेकिन कांग्रेस की विचारधारा पर भ्रम पूर्ण स्थिति बनी हुई है. 

    सबसे पहले कांग्रेस को अपनी विचारधारा स्पष्ट करना चाहिए. सनातन धर्म को गाली देने वालों के साथ गठबंधन का मतलब क्या यह है, कि कांग्रेस की विचारधारा सनातन के विरोध में है. राम मंदिर प्राण-प्रतिष्ठा का आमंत्रण ठुकराकर तो कांग्रेस ने इस विषय पर अपनी विचारधारा पहले ही स्थापित कर दी है. 

    कांग्रेस के महासचिव राम गोपाल यादव रामनवमी पर प्रतिक्रिया देते हैं, कि पूजा पाठ का पाखंड वह नहीं करते हैं, जो लोग पूजा पाठ करते हैं. वह राम गोपाल यादव की नजर में पाखंडी हो सकते हैं. हिंदुत्व सनातन धर्म को लेकर उनकी विचारधारा भी इसके साथ ही स्पष्ट हो गई है. 

    कांग्रेस और उसके गठबंधन यह कहते हैं, कि बीजेपी देश में ध्रुवीकरण करने की कोशिश कर रही है. देश में राजनीति की ऐसी हालत है, कि अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण की प्रवृत्ति ही ध्रुवीकरण को मजबूत कर रहा है. ध्रुवीकरण प्रतिक्रिया स्वरूप लग रहा है. ध्रुवीकरण का अगर कोई लाभ भाजपा को मिल रहा है, तो उसके लिए कांग्रेस और उसके सहयोगी दल ही जिम्मेदार माने जा सकते हैं. 

    जब देश के सामने 2014 और 2019 में जो संकल्प और विकल्प उपलब्ध थे, वही इस चुनाव में भी उपलब्ध हैं. जब पिछले दो चुनाव में मोदी के संकल्प के मुकाबले जनादेश ने विपक्ष के विकल्प को नामंजूर कर दिया है, तो दो बार नामंजूर किया हुआ विकल्प फिर इस बार विकल्प कैसे बन पाएगा. यह बड़ा सवाल है. 

    अगर राजनीतिक विचारधारा जनादेश का कोई आधार है, तो फिर भाजपा ही इस मामले में अग्रणी दिखती है. कांग्रेस तो कब की अपनी विचारधारा छोड़ चुकी है. पीएम मोदी भ्रष्टाचार से लड़ाई की विचारधारा का नेतृत्व कर रहे हैं, तो कांग्रेस अपने राजनीतिक गठबंधन के चेहरों से ही अपनी छवि भ्रष्टाचार में शामिल स्थापित कर रही है. कांग्रेस और विपक्ष मोदी सरकार के खिलाफ 10 सालों में कोई बड़ा मुद्दा स्थापित नहीं कर सकी है. भ्रष्टाचार का कोई मामला भी सामने नहीं ला सकी है. 

    विपक्ष की एक कमजोरी यह भी है,कि जो भी मुद्दे उसके द्वारा उठाए जाते हैं, वह बहुत तात्कालिक और बिना तथ्य आधारित होते हैं. उनका कोई दीर्घकालिक प्रभाव नहीं होता और मुद्दों को जल्दी-जल्दी छोड़ दिया जाता है. मुद्दों पर थिंक-टैंक के मामले में भी कांग्रेस और विपक्षी गठबंधन कमजोर साबित हो रहे हैं. तुष्टिकरण की राजनीति भी कुछ ढीली पड़ रही है. मुस्लिम महिलाओं में बीजेपी के प्रति आकर्षण बढ़ रहा है. पसमांदा और बोहरा मुसलमानों में भी बीजेपी के लिए पसंदगी तुष्टीकरण की राजनीति को कमजोर कर रही है.

    बीजेपी ने पिछले 10 वर्षों में हिंदुत्व के राजनीति के सहारे अपने वजूद को मजबूत किया है, तो दीर्घकालीन राजनीति में विकास का एक नया मॉडल स्थापित किया है. सर्वधर्म समभाव की योजनाओं से सामाजिक एकीकरण और ध्रुवीकरण को गति मिली है. 

    आजादी के बाद देश की जो समस्याएं अभी तक लंबित रखी गई थीं, उन सब पर कदम उठाकर बीजेपी ने राष्ट्रवाद के प्रति अपनी प्रतिबद्धता पर भी देश का विश्वास मजबूत किया है. विश्व में भारत की बढ़ती साख भी पीएम मोदी और बीजेपी के पक्ष में चुनाव में लाभ पहुंचाती दिखाई पड़ रही है. बेरोजगारी और महंगाई जैसे मुद्दों को कांग्रेस और विपक्ष सही ढंग से स्थापित करने में असफल रहा है. इसके साथ ही राष्ट्रवाद के मुद्दे पर यह मुद्दे कमजोर साबित हो रहे हैं. 

    पीएम मोदी ने भारत और विश्व के अंदर जो सम्मान हासिल किया है, उसका मुकाबला कांग्रेस और विपक्षी गठबंधन के लिए नामुमकिन लगता है. उनकी ईमानदार छवि और भ्रष्टाचार के खिलाफ उठाए गए सख्त कदम भविष्य के भारत की बानगी पेश कर रहे हैं.

    राहुल गांधी कह रहे हैं, कि बीजेपी 150 सीटों पर सिमट जाएगी. अखिलेश यादव गाजियाबाद से गाजीपुर तक बीजेपी की सफाई की बात कर रहे हैं. यह दोनों शहजादे अपनी जीतने वाली सीटों की संख्या के बारे में तो अनजान हैं, लेकिन बीजेपी की संभावनाओं के प्रति अति आशावान दिखाई पड़ रहे हैं. राजनीतिक रूप से राहुल गांधी और अखिलेश यादव की यह शेखी भी गलत है. बीजेपी समर्थक विपक्षियों के इस तरह के वक्तव्य से अपनी सुस्ती छोड़कर पूरी ताकत से पीएम मोदी और बीजेपी के पक्ष में मतदान करने के लिए एकजुट होते दिखाई पड़ रहे हैं., 

    भारत की राजनीतिक विचारधारा हिंदुत्व, सनातन की विचारधारा से अलग नहीं हो सकती. जो राजनीतिक दल इस मूल बिंदु को ही समझने में ही भूल कर रहे हैं, उनका राजनीतिक भविष्य भारत में कैसे उज्जवल हो सकता है. कांग्रेस विचारधारा का विकल्प दे नहीं पा रही है. अर्थव्यवस्था का विकल्प दे नहीं पा रही है. विकास का कोई रोडमैप सामने ला नहीं पा रही है, तो इसके कारण तुष्टिकरण के परंपरागत विचार पर कांग्रेस आगे बढ़ रही है. बहुसंख्यकों की भावनाओं का अनादर किया जा रहा है. 

    भारत की राजनीति जब 10 साल पहले ही नए रास्ते पर जा चुकी है, तो फिर जो राजनीतिक दल और नेता पुराने रास्ते पर टिके हुए हैं और सियासी शोर मचा रहे हैं. उन्हें भारत की लोकतांत्रिक खामोशी की आवाज शायद महसूस नहीं हो रही है. तुष्टिकरण का व्याकरण ही इस बार बिगड़ेगा.  सर्वधर्म समभाव की नीतियां सबको प्रभावित कर रही हैं.

     देश में पिछले 10 सालों से जो संकल्प और विचार मजबूती के साथ आगे बढ़ रहा है. विकास के जो विचार नियत और नतीजे सामने दिख रहे हैं, उनके विकल्प के रूप में नीतियां और रोड मैप सामने लाने में विपक्ष फेल रहा है. जब कोई नया विकल्प नहीं है, तो फिर चुनाव नतीजे में उलट फेर पर सोचना नासमझी के अलावा कुछ नहीं है. 

    खाली पर्दे पर फिल्मी बातें जैसे मनोरंजन के लिए होती हैं, वैसे ही दो शहजादों की बातें भी राजनीतिक मनोरंज ही साबित होंगी. बिना त्याग, बिना तपस्या किसी तपस्वी से मुकाबला भारत में तो संभव नहीं हो सकता. आशाओं और उम्मीदों के संकल्पों की सिद्धि के साथ ही नए संकल्पों  के साथ आगे बढ़ रहे नरेंद्र मोदी के मुक़ाबले विपक्ष विकल्पहीन लगता है.