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भोजन का अधिकार, ईमानदारी जरूरी है

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Mon , 08 Dec

सार

आयोग का कहना है कि भूख का अर्थ मौलिक अधिकारों से वंचित करना है, भूख के सबूत के लिए भुखमरी की आवश्यकता नहीं है, जरूरी है संकट को पहले ही पहचान लेना चाहिए..!

janmat

विस्तार

प्रतिदिन विचार-राकेश  दुबे

10/10/2022

एक बड़ा सवाल है ?भोजन का अधिकार वैधानिक अधिकार है, मौलिक अधिकार है या मानवाधिकार? अनुदान पर भोजन, मिड-डे मील योजना, गर्भवती महिलाओं के लिए पोषण योजना आदि में भी मानवाधिकार और मौलिक अधिकार के तत्व हैं| दुःख तो तब होता है, जब इन योजनाओं के तहत  मिलने वाला अनाज खुले बाज़ार में बिकता दिखता है | यह एक राष्ट्रीय शर्म का विषय है और जीवन उपयोगी सुविधा का दुरूपयोग | कहने को  भारत ने 1966  के आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकारों की घोषणा पर हस्ताक्षर किया है, जिससे भोजन का अधिकार विषय निकला है| इस प्रकार इस अधिकार में सीमाओं से परे मानवाधिकार होने के तत्व हैं| भारत के राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इसे संविधान के अनुच्छेद 21  (सम्मान से जीवन का अधिकार), 39  (ए) और 47  से जोड़ते हुए इसे एक मौलिक अधिकार माना है| आयोग का कहना है कि भूख का अर्थ मौलिक अधिकारों से वंचित करना है| भूख के सबूत के लिए भुखमरी की आवश्यकता नहीं है|जरूरी है  संकट को पहले ही पहचान लेना चाहिए|

भारत के मानवाधिकार आयोग ने सार्वजनिक नीति में व्यापक बदलाव करने तथा सभी नागरिकों के लिए विशेष प्राथमिकता के तौर पर भोजन व पोषण सुनिश्चित करने का आह्वान किया है| भूख और परेशानी को नासूर  के रूप में देखा जाना चाहिए तथा ऐसी स्थिति के लिए राज्य को दंडित किया जाना चाहिए|  अगर राजकोष का भारी खर्च भी हो, तब भी भूख मिटाना प्रमुख नीतिगत प्राथमिकता होनी चाहिए| इस सुविधा के दुरूपयोग पर कड़े दंड का भी प्रावधान होना चाहिये |

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की दृष्टि के तहत  मुफ्त राशन कार्यक्रम की अवधि को  और बढ़ाने के सरकारी निर्णय अब और महत्वपूर्ण हो जाता  है|  प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना राशन, दुनिया की सबसे बड़ी और सबसे अधिक समय तक चलने वाली मुफ्त राशन वितरण योजना है , जो लगभग 33  माह चलेगी| भोजन के अधिकार के प्रति भारत की अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धता है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि भोजन मुफ्त में दिया जाना चाहिए, लेकिन भुखमरी से हुई मौतों द्वारा इंगित गंभीर स्थिति ने मुफ्त राशन देना जरूरी कर दिया है|कोई बीस साल पहले भारत में भोजन के अधिकार का अभियान शुरू हुआ था, जिसके मूल में  सर्वोच्च न्यायालय में दायर जनहित याचिका  थी| उस याचिका की जरूरत इसलिए पड़ी थी कि सरकारी गोदाम अनाज से भरे थे, लेकिन देशभर में भूख और कुपोषण के सबूत सामने थे|  2013  में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून पारित किया गया| इस पर कई लोगों, विशेषकर वित्तीय आयामों को लेकर चिंतित लोगों, ने आपत्ति जतायी, जो भारी वित्तीय बोझ को लेकर चिंता जता रहे थे|

 इस कानून के तहत हर परिवार को प्रति व्यक्ति पांच किलो चावल, गेहूं या ज्वार/बाजरा क्रमशः तीन, दो और एक रुपये किलो की दर से हर माह देने का प्रावधान है| तब  एक मंत्री ने कहा था कि चूंकि एक किलो चावल पैदा करने में 20 रुपये लगते हैं, पर अब इस कानून के तहत तीन रुपये में एक किलो चावल मिलेगा, तो कोई किसान चावल पैदा करने के लिए क्यों परेशान होगा? यह  भारी वित्तीय खर्च की ओर संकेत था|

आज  इस कानून के दायरे में ग्रामीण आबादी का तीन-चौथाई हिस्सा तथा शहरी आबादी का आधा हिस्सा आते हैं| यह संख्या लगभग 81 करोड़ है|सबसे गरीब तबके को हर माह प्रति परिवार 35  किलो अनाज अंत्योदय अन्न योजना के तहत दिये जाते हैं| बहुत अधिक अनुदान पर मिलने वाले अनाज के साथ यह संभावना हमेशा रहती है कि लाभार्थी इसे खुले बाजार में बेच दें, पर प्रधानमंत्री अन्न योजना ने अनाज को पूरी तरह मुफ्त कर दिया| अगर खाद्य सुरक्षा कानून के तहत मिलने वाले अनाज को बाजार में बेचा जा सकता है, तो यही  संभावना मुफ्त अनाज के साथ भी है|

इसे कैसे रोका जा सकता है? प्रधानमंत्री मुफ्त अनाज योजना कोरोना के कारण अप्रैल, 2020  में शुरू हुई थी| भारत जीवनयापन के संकट को व्यापक खाद्य संकट में बदलना नहीं चाहता था| इस योजना की अवधि छह बार बढ़ायी गयी है और अब यह दिसंबर, 2022  तक जारी रहेगी|  इस बात के ठोस सबूत हैं कि इस योजना से सत्तारूढ़ पार्टी को चुनावी लाभ मिला है| यह दिलचस्प है कि भारी वित्तीय बोझ के कारण इस वृद्धि का वित्त मंत्रालय ने विरोध किया है| मुफ्त अनाज योजना के कारण स्वास्थ्य, शिक्षा, इंफ्रास्ट्रक्चर, सेना, पेंशन आदि में कुछ कटौती होती दिख रही है |

यह सच है कि कोई भी सरकार इन कठिन वित्तीय चुनौतियों से भाग नहीं सकती है, यदि आर्थिक वृद्धि धीमी होती है और अपेक्षित कर संग्रहण नहीं होता है तथा अनुदान और कल्याण योजनाओं पर खर्च बढ़ता है, तो हिसाब संतुलित करना आसान नहीं होगा| यहाँ  हर लाभार्थी को विचार करना होगा की वो देश के साथ कितना है ? ब्याज दरें बढ़ रही हैं, इसलिए सरकार का उधार लेना भी महंगा होगा| देश के लिए हर देशवासी को सोचना चाहिए | देश को इस सबकी भारी कीमत चुकानी होती है | इस योजना का लाभ उन्हें ही मिलना चाहिए, जो ईमानदारी से इसके हकदार  हैं |