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गंभीर मेडिकल आपदा और मौन संविधान

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Tue , 27 Jul

सार

हेराल्ड जे लास्की अपनी मौलिक पुस्तक ‘ए ग्रामर ऑफ पॉलिटिक्स’ में याद आती है जिसमे लिखा है “समय के परिप्रेक्ष्य में, राज्य व्यवस्था का हर सिद्धांत सदैव समझ में आने लायक नहीं होता।

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विस्तार

देश के ५ राज्यों में चुनाव का बिगुल बज चुका है, कोरोना दुष्काल भी अपनी पूरी शक्ति दिखाने पर आमादा है | ऐसे समय में देश में जो संवैधानिक चेतना जागृत होनी चाहिए थी, वो नदारद है और देश का कल्याणकारी संविधान मौन है |

जरा उन ३१ देशों की ओर गौर करें ,जहाँ के चुनाव आयोग ने निर्धारित प्रावधानों से परे हटकर, विभिन्न स्तरों पर होने वाले चुनावों को आगे टाल दिया है। ऐसा कदम केवल संवैधानिक संशोधन के माध्यम से किया जा सकता है, जिसके लिए राष्ट्रीय स्तर की राजनीतिक सहमति की जरूरत है जो इन दिनों भारत में नदारद है। संवैधानिक लचीलेपन पर सवाल उठना लाजिमी है |”अभूतपूर्व परिस्थिति में ‘जीवंत संविधान’ का वादा, जो मुश्किल आपदा में ध्यान राष्ट्रीय चिंताओं पर केंद्रित रहे, क्या इस पर खरा उतरता है?” विगत में संवैधानिक संशोधन करने वाले प्रावधान का इस्तेमाल कई बार तात्कालिक राष्ट्रीय चिंताओं का उपाय करने में भी अक्षम रहा है। करने को इस ‘गंभीर राष्ट्रीय मेडिकल आपातकाल’ पर आधारित संवैधानिक संशोधन के जरिए विधानसभाओं के कार्यकाल में अल्पकालिक विस्तार करने वाला प्रावधान जोड़ा जा सकता था । जो सोचा तक नहीं गया |

देश वर्तमान हालत और लग्गू प्रतिबंध, जैसे कुछ राज्यों में रात्रि-सप्ताहांत कर्फ्यू और अन्य स्थानीय प्रतिबंधों वाले उपाय फिलहाल विधानसभा चुनाव करवाने के एकदम विपरीत हैं। लॉकडाउन लगाने में बरती गई अत्यंत अतार्किकता और इसके विपरीत चुनावी गतिविधियों की इजाजत देना, लोगों की समझदारी का मजाक उड़ाना और हमारे नेताओं के उद्देश्यों पर सवालिया निशान है। देश को यह पूछने का हक है कि विशिष्ट परिस्थिति और लाखों लोगों पर आसन्न गंभीर खतरे के आलोक में सर्वोच्च न्यायालय से इस मामले में संज्ञान की अपेक्षा करना क्या बहुत बड़ी आस है? ऐसा नहीं था कि चुनावों को कुछ हफ्तों या महीनों तक आगे सरकाने से हमारी लोकतंत्र व्यवस्था को गंभीर खतरा पैदा हो जाता |

पिछला अनुभव बताता है कि ८ प्रतिशत संक्रमित लोग आगे ६० से ८० प्रतिशत लोगों को दूषित करने की वजह बने थे । ओमीक्रोन रूपांतरण की संक्रामक क्षमता बहुत अधिक होने की वजह से आगामी हफ्तों में इसकी अधिकतम तीव्रता बनने की उम्मीद है, नतीजतन संक्रमितों की संख्या में भारी उफान आएगा। देश के अनेक जिलों से टेस्ट में पॉजिटिव आए मामलों की संख्या १० प्रतिशत होने की खबरें पहले से ही हैं। दूसरी लहर के बाद, इस तीसरी लहर में कोविड मामले पिछली उच्चतम गिनती के मुकाबले ज्यादा हो सकते हैं। यह साफ संकेत है कि देश में गंभीर मेडिकल आपदा आसन्न है |

मतदाता को अपना मताधिकार इस्तेमाल करने का हक है, किंतु यह हक बीमारी के डर और प्रतिबंध रहित मुक्त माहौल में मिले , तभी सार्थक है। मौजूदा हालात में, यह कल्पना ही है कि सरकार या चुनाव आयोग एक मुक्त एवं साफ-सुथरे चुनाव करवाने को जरूरी महत्वपूर्ण पूर्व-शर्तों की गारंटी दे सकते हैं, मसलन, विचार-विमर्श, समान भागीदारी, चुनाव प्रबंधन की गुणवत्ता, चुनाव लड़ने वालों को समान अवसर का पूर्ण एवं प्रभावी मौका देना और मेडिकल संहिता समेत अन्य नियम लागू करवाना एक साथ संभव नहीं है । चुनाव प्रक्रिया शुरू हो चुकी है, लेकिन स्वास्थ्य संहिता अनिवार्य रूप से लागू करवाने का कोई तंत्र मौजूद नहीं है।

जनता को यह जानने का हक है कि नागरिकों के मूलभूत अधिकार -स्वतंत्रता, जीवन और साफ-सुथरे चुनाव- अक्षुण्ण रखें, इसको देश का चुनाव आयोग और न्यायालय कैसे सुनिश्चित करेंगे। अभी तो मौजूदा प्रावधान, मूल संवैधानिक मूल्य, जीने के अधिकार सुनिश्चित करने में अड़चन बन रहे हैं।

हेराल्ड जे लास्की अपनी मौलिक पुस्तक ‘ए ग्रामर ऑफ पॉलिटिक्स’ में याद आती है जिसमे लिखा है “समय के परिप्रेक्ष्य में, राज्य व्यवस्था का हर सिद्धांत सदैव समझ में आने लायक नहीं होता। देशवासी बृहद संवैधानिक ध्येय की पूर्ति हेतु स्व-हितों की बलि देना गवारा नहीं कर सकते, खासतौर पर जीने के अधिकार को|” मौजूदा आपातकाल मुश्किलों से पार पाने में राजनीतिक नेतृत्व और तार्किक लोकतांत्रिक सीमाओं की क्षमता का इम्तिहान है। राजनीतिक नैतिकता की दरकार है कि हम पिछले अनुभवों से सबक लें और राजनीतिक लाभ एवं महत्वाकांक्षा की वेदी पर गलत चयनों का त्याग करें।