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टूट पर उपदेश, पुत्रमोह में जकड़ी कांग्रेस

सार

लोकसभा चुनाव के मुकाबले में खड़ी होने के बजाय कांग्रेस अपने टूट रहे नेताओं को संघर्ष का उपदेश देने में लगी है. प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पार्टी छोड़ने वाले नेताओं को नजरअंदाज करते हुए कहते हैं कि नई पार्टी बनाएंगे, नया मकान बनाने के लिए जैसे समतल प्लाट की जरूरत होती है वैसे ही इन नेताओं के जाने से कांग्रेस समतल प्लाट बन रही है. इस पर नई इमारत खड़ी करेंगे. .!!

janmat

विस्तार

कांग्रेस छोड़ने वाले नेताओं को महत्वहीन बताने की कोशिश कांग्रेस की भूमिका को ही महत्वहीन बना रही है. मध्यप्रदेश की कांग्रेस इकाई में क्या कोई बुनियादी दोष आ गया है जिसके कारण संगठन का चलना मुश्किल हो रहा है? पार्टी छोड़ने वाले नेताओं को संघर्ष का उपदेश दिया जा रहा है. मध्यप्रदेश में कांग्रेस ने कब संघर्ष किया था? यह बात विश्लेषकों को भी स्मरण नहीं है. जब बीजेपी मध्यप्रदेश में ताकत के साथ स्थापित नहीं थी, छत्तीसगढ़ भी मध्यप्रदेश में ही शामिल था.

परंपरागत रूप से कांग्रेस की सरकार मध्यप्रदेश में बनती थी. तब तो कांग्रेस ने कभी संघर्ष नहीं किया. छत्तीसगढ़ विभाजन के बाद 10 साल की सरकार के बाद मध्यप्रदेश में जब भाजपा सत्ता में आई थी तब से कांग्रेस को विपक्ष के रूप में संघर्ष करने की जरूरत थी. 2003 के बाद जितने चुनाव हुए हैं हर चुनाव के पहले मध्यप्रदेश में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बदले गए. यह परंपरा हाल ही में हुए चुनाव में तो बदली लेकिन नतीज़ा नहीं बदला. पराजय के बाद ज़रूर कांग्रेस अध्यक्ष को बदल दिया गया. 

कांग्रेस पुत्रमोह की रणनीति में संगठन की बलि चढ़ा रही है. जैसे लोहे से पैदा जंग ही लोहे को बर्बाद कर देती है वैसे ही कांग्रेस के पुत्रमोह में नेतृत्व ही संगठन की बुनियाद को हिला रहा है. धृतराष्ट्र के पुत्रमोह जैसी महाभारत आधुनिक समय में कांग्रेस में चल रही है. कई बार ऐसा दिखाई पड़ता है कि पुत्र योग्य है, सक्षम है, जनसेवा के लिए समर्पित है लेकिन इसके बाद भी पुत्र के रास्ते को निष्कंटक बनाने के लिए धृतराष्ट्र नीति तो काम करती ही रहती है. 

अभी हाल ही में छिंदवाड़ा के युवा मुस्लिम नेता सैयद  जफर ने बीजेपी में शामिल होने के बाद अपनी प्रतिक्रिया में इसी भाव का इजहार किया था. जफ़र का कहना था कि कमलनाथ का नेतृत्व सिर माथे पर था लेकिन पुत्र नकुलनाथ का नेतृत्व स्वीकार नहीं कर सकते. हाल ही में ऐसा कम्पाइलेशन भी सामने आया है जिसमें बताया गया है कि पिछले वर्षों में कितने वरिष्ठ नेताओं ने कांग्रेस छोड़ी है. कम से कम एक दर्ज़न से अधिक पूर्व मुख्यमंत्री कांग्रेस छोड़ चुके हैं. राज्य का मुख्यमंत्री होना जनसेवा की लंबी तपस्या का ही प्रतिफल होता है. पद से उतरने के बाद किसी भी नेता को उस पार्टी को छोड़ना कष्टकारी होता होगा जिस पार्टी ने उसे मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाया है. एक नहीं ऐसे दर्जनों नेताओं ने अगर कांग्रेस छोड़ी है तो इसका मतलब है कि गड़बड़ी कहीं न कहीं कांग्रेस के संचालन सूत्र ही कर रहे हैं.

मध्यप्रदेश में पूर्व केंद्रीय मंत्री और वरिष्ठ नेता सुरेश पचौरी के कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में जाने पर कांग्रेस की प्रतिक्रियायों में ऐसे उपदेशों की झड़ी लगा दी गई कि कांग्रेस के संघर्ष के समय में उन्हें पार्टी नहीं छोड़नी चाहिए थी. सबसे पहला सवाल तो यह है कि कांग्रेस ने ऐसा कैसा संघर्ष किया है कि विरोधी पार्टी बीजेपी कमजोर होने की बजाय मध्यप्रदेश में मजबूत होती चली गई है. 2003 में उमा भारती जितनी विधानसभा सीटें जीतकर लाईं थी लगभग उतनी ही सीट 2024 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी जीतने में सफल हुई है. बीजेपी का यह विजय अभियान क्या कांग्रेस के संघर्ष का परिणाम है? या कांग्रेस के स्वार्थ की राजनीति, जन भावनाओं की उपेक्षा और पुत्रमोह की परिणिति है. 

दस साल की कांग्रेस सरकार की पराजय के बाद जब मध्यप्रदेश में पहला चुनाव 2008 में हुआ था तब सुरेश पचौरी पीसीसी प्रेसिडेंट थे. कांग्रेस 2003 में 38 सीटों पर सिमट गई थी. इसके बाद चुनाव में पचौरी की लीडरशिप में कांग्रेस 71 सीटें जरूर जीती थी लेकिन सत्ता तक पहुंचने में सफल नहीं हो पाई थी. जहां तक पचौरी का सवाल है वे तो संघर्ष के दौरान घायल भी हुए थे. उनको गंभीर चोटें आने के बाद लंबे समय तक इलाज कराना पड़ा था.

मध्यप्रदेश कांग्रेस की सबसे बड़ी समस्या यह है कि जो भी नेतृत्व होता है उसको सभी नेताओं द्वारा सहयोग और समर्थन करने की बजाय उसको कमजोर करने की रणनीति पर काम चालू हो जाता है. पचौरी की लीडरशिप में जब विधानसभा चुनाव हो रहे थे तो जिस तरह से कांग्रेस में बगावत कर विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की संभावनाओं को धूमिल किया गया था वह अपने हाथों से खुद को नुकसान पहुंचाने की ही रणनीति मानी गई थी.

पार्टी छोड़ने वाले नेता संघर्ष में साथ छोड़ रहे हैं, ऐसा तो दिखाई नहीं पड़ता है, अगर कांग्रेस बीजेपी के खिलाफ अपने सभी नेताओं और कार्यकर्ताओं को संघर्ष के मोड में रखने में सफल होती तो ना तो कोई नेता पार्टी छोड़ता और ना ही किसी नेता को बीजेपी अपनी पार्टी में शामिल करती. कांग्रेस हमेशा से संघर्ष का अभिनय करती दिखाई पड़ती है. सारे नेता सरकार से एडजस्टमेंट की रणनीति पर काम करते हैं. कांग्रेस का ऐसा कौन सा बड़ा नेता है जिसे भाजपा की सरकार में कोई राजनीतिक या प्रशासनिक नुकसान हुआ हो. सब कुछ समन्वय के साथ चलता दिखाई पड़ता रहा है. 

किसी भी पार्टी के लिए लोकसभा चुनाव से ज्यादा तो संघर्ष का कोई समय नहीं हो सकता. इस समय कांग्रेस मध्यप्रदेश में कौन सा संघर्ष कर रही है? कांग्रेस छोड़कर जाने वाले नेताओं को अपमानित करने का सिलसिला पार्टी में भी चल रहा था और पार्टी से जाने के बाद भी उनके बारे में आ रही प्रतिक्रियाएं इसी तरफ इशारा कर रही हैं. नए निर्माण के लिए प्लाट समतल करने की हमेशा जरूरत नहीं होती. आज टेक्नोलॉजी ऐसी है कि खड़े मकान पर भी पिलर के माध्यम से भव्य मकान बनाया जा सकता है. राजनीतिक दल में समतल प्लाट की परिकल्पना नेतृत्व के अहंकार की पराकाष्ठा ही कही जाएगी. कांग्रेस लगातार कई राज्यों में समतल होती जा रही है. यूपी में कांग्रेस के खड़े होने के लिए जमीन ही नहीं बची है. रायबरेली और अमेठी अब कांग्रेस को डराने लगे हैं. 

मध्यप्रदेश भी उत्तर प्रदेश बनने से अब ज्यादा दूर नहीं लगता है. लोकसभा चुनाव में ऐसे प्रत्याशी उतारे जा रहे हैं जो केवल चुनाव लड़ने के लिए तैयार हो जाएं? जीतने का विचार तो शायद कांग्रेस ने छोड़ ही दिया है. यह इसलिए लगता है कि जो वरिष्ठ नेता चुनाव में बीजेपी को कड़ी चुनौती दे सकते थे वह सब चुनाव से दूरी बना चुके हैं. प्रत्याशियों की पूरी सूची जब सामने आ जाएगी तब विशलेषण  किया जा सकेगा कि विधानसभा में हारे और जीते कई प्रत्याशियों को कांग्रेस लोकसभा चुनाव लड़ा रही है. इन सीटों पर ताकतवर प्रत्याशी की संभावना को देखते हुए चुनाव लड़ने से कन्नी काट रहे हैं. इसीलिए ऐसे नेताओं को जो चुपचाप आदेश पालन करते हैं उन्हें हारने के लिए मैदान में उतारा जा रहा है.संघर्ष तो कांग्रेस के डीएनए से ही समाप्त सा लगता है.

संघर्ष तब पैदा होता है जब नेतृत्व संघर्ष से पैदा होते हैं. जब नेतृत्व पुत्रमोह में थोपे जाते हैं तो फिर संघर्ष की जमीन धीरे-धीरे समाप्त हो जाती है. पुराने नेताओं ने तो थोड़ा बहुत संघर्ष किया होगा लेकिन अब तो कांग्रेस संघर्ष के अभिनय में ही अपना भविष्य तलाश रही है. कांग्रेस विरोधियों से संघर्ष से ज्यादा अंदरूनी संघर्ष में व्यस्त है. कांग्रेस में नेताओं के टूटने का सिलसिला अंदरूनी संघर्ष का ही नतीजा है. 

मध्यप्रदेश में तो यह संघर्ष कुछ ज्यादा तेज दिखाई पड़ रहा है. इसका कारण शायद यह है कि मध्यप्रदेश में खास परिवार और खास नेता कांग्रेस में लंबे समय से अपनी जड़ें जमाए हुए  हैं. उनकी खुशी और नाखुशी नेताओं के सम्मान और अपमान का कारण बनती है. नए लोगों को आगे बढ़ाने की बजाय पीछे धकेलने की राजनीति एमपी कांग्रेस का मैजिक बना हुआ है. यह मैजिक ऐसे ही चलता रहेगा. संघर्ष की बातें होती रहेंगी. हर दिन नेता टूटते रहेंगे. जनता संघर्ष वाली कांग्रेस ढूंढती रहेगी और कांग्रेस नेता नई इमारत के लिए कांग्रेस के प्लाट को समतल करते रहेंगे.