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श्रीलंका के जनाक्रोश से उपजा संदेह राजनीतिक ज़्यादा व्यवहारिक कम

सार

भारत में मोदी विरोधी राजनीतिक दलों के नेता और मुस्लिम नुमाइंदे श्रीलंका के जनविद्रोह के बहाने भाजपा सरकार पर हमला कर रहे हैं। ऐसे लोगों का कहना है कि भारत की आर्थिक स्थिति भी चरमरा रही है। महंगाई ने सभी रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं, बेरोजगारी चरम पर है, लोगों की कमाई घट रही है और क्रय शक्ति लगातार कम हो रही है। भारत में व्याप्त सामाजिक असहिष्णुता और राजनीतिक कट्टरवाद की तुलना भी श्रीलंका से की जा रही है। 

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विस्तार

भारत और श्रीलंका का संबंध सनातन रहा है। लंका कांड के बिना भारतीय आस्था और संस्कृति का ग्रंथ रामचरितमानस पूरा नहीं हो सकता है। रावण की सोने की लंका आज दाने-दाने को क्यों मोहताज हो गई है? खाद्यान्न-ईंधन और दवाइयों जैसी तमाम आवश्यक वस्तुओं के लिए श्रीलंका के लोग तरस रहे हैं।

श्रीलंका के भयावह दृश्य की कल्पना कर ही सिहरन हो जाती है कि वहां के लोग अपने बच्चों को सुबह देर से जगाते हैं ताकि नाश्ते की जरूरत ना पड़े। परिवार सीमित मात्रा में उपलब्ध भोजन से ही काम चला रहे हैं। 

जो लोग श्रीलंका की तुलना भारत से करके देश के भविष्य के प्रति निराशाजनक दृश्य प्रस्तुत करने की कोशिश कर रहे हैं, वे केवल गैरजरूरी राजनीतिक हमला मात्र कर रहे हैं। भारत और श्रीलंका की तुलना नहीं हो सकती हैं। दोनों का कोई मुकाबला नहीं है। यह बात जरूर है कि भारत को श्रीलंका में उत्पन्न हालात से सबक लेने की जरूरत है। 

श्रीलंका के कर्ज के जाल में डूबने और आर्थिक हालात चरमराने के पीछे वहां की परिवारवादी राजनीति जिम्मेदार है। राजपक्षे परिवार राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री सहित अनेक पदों पर लंबे समय से जमा था। यह परिवार श्रीलंका के बहुसंख्यक सिंहली बौद्ध समाज से आता है। सिंहली, तमिल, मुस्लिम और ईसाई की धार्मिक राजनीति के सहारे राजपक्षे परिवार एक दौर में श्रीलंका के राजनीतिक नायक माने जाते थे। उनके  नायकत्व को मजबूत करने के लिए श्रीलंका में सामाजिक असहिष्णुता चरम पर पहुंच गई थी। तमिल नरसंहार का पाप भी राजपक्षे परिवार पर है।  

आज श्रीलंका में राजपक्षे परिवार को छिपकर जान बचाना पड़ रही है। राष्ट्रपति अपना सरकारी आवास छोड़कर गुप्त स्थान पर चले गए हैं। प्रधानमंत्री भी छिपे हुए हैं। राष्ट्रपति भवन पर श्रीलंका की जनता ने कब्जा कर लिया है। राष्ट्रपति ने इस्तीफे का ऐलान तो किया है लेकिन अभी तक इस्तीफा नहीं दिया है।आंदोलनकारी भी तब तक राष्ट्रपति भवन छोड़ने को तैयार नहीं है, जब तक राष्ट्रपति अपना पद वास्तव में छोड़ नहीं देते। 

श्रीलंका के विनाश के लिए परिवारवादी राजनीति को ही जिम्मेदार कहा जा सकता है। भारत में भी परिवारवादी राजनीति लंबे समय से हावी रही है। अभी भी कई राजनीतिक दल राज्यों में परिवारवाद के सहारे सत्ता तक पहुंच रहे हैं। श्रीलंका से भारत के लिए सबसे पहला जरूरी सबक यह है कि राजनीतिक और शासन के स्थान पर लोकतांत्रिक नियंत्रण कायम रहना चाहिए। किसी भी हालत में परिवारवाद को नियंत्रण का अवसर और अधिकार नहीं मिलना चाहिए।

भारतीय राजनीति में परिवारवाद एक मुद्दा बन रहा है। परिवारवादी राजनीति के श्रीलंका में जो नतीजे आए हैं, उनको देखते हुए भारत में ऐसी राजनीति अब शायद ही आगे बढ़ सके। परिवारवाद की राजनीति का सबसे बड़ा संकट ये होता है कि फैसले तानाशाही ढंग से लिए जाते हैं। विचार विमर्श की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को नजरअंदाज किया जाता है। ऐसी स्थिति में जब फैसले असफल होते हैं तो देश में अराजकता का ऐसा ही आलम होता है जैसा श्रीलंका में दिखा है। 

श्रीलंका की अर्थव्यवस्था मुख्यतः पर्यटन पर आधारित रही है। कोरोना के समय पर्यटन गतिविधियां सुस्त होने के कारण श्रीलंका की अर्थव्यवस्था चरमराती चली गई। इसके अलावा राजपक्षे परिवार ने जिस तरह की घरेलू नीतियां बनाकर विदेशी संस्थाओं से कर्ज लिया उसके कारण भी श्रीलंका कर्ज के जाल में फंस गया। चीन से कर्ज लेकर श्रीलंका ने सबसे बड़ी गलती की। श्रीलंका में मुफ्तखोरी की सियासत भी मौजूदा हालात के लिए जिम्मेदार मानी जा रही है। यह विडंबना ही है कि हमारे देश में भी अब मुफ्तखोरी की राजनीति जोर पकड़ रही है।

श्रीलंका के जन विद्रोह में आज हर समाज का व्यक्ति शामिल है क्योंकि उनके सामने जीवनयापन का संकट बना हुआ है। राजपक्षे परिवार ने निरंकुश शासन चलाया, बेतुके फैसले लिए। जिस दौर में पर्यटन समाप्त हो रहा था, उसी दौर में राजपक्षे सरकार ने रासायनिक उर्वरक पर प्रतिबंध लगा दिया और प्राकृतिक खेती पर जोर दिया। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कृषि उत्पादन घटा और कृषि पर निर्भर देश की 27% आबादी तंगहाली का शिकार हो गई।

राजपक्षे परिवार की नीतियों के साथ मुफ्तखोरी की राजनीति का दुष्परिणाम आज श्रीलंका की जनता भुगत रही है। बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक की राजनीति भी इसके लिए जिम्मेदार कही जा सकती है। राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे जो आज अपनी जान बचाने के लिए छिपे हुए हैं, वही थोड़े समय पहले तक बहुसंख्यक समाज के राजनीतिक नायक माने जाते थे।  

किसी भी राष्ट्र में लोकतांत्रिक मापदंडों पर शासन व्यवस्था का चलना हमेशा कारगर होता है। किसी व्यक्ति को राजनीतिक नायक के रूप में प्रस्तुत कर हासिल राजनीतिक सफलता के हमेशा फेल होने का खतरा बना रहता है। पूरी दुनिया में जहां भी तानाशाह शासक रहे हैं, उन सबको अंततः पतन के गर्त में ही जाना पड़ा है।

श्रीलंका में शासन व्यवस्था के स्वतंत्र संस्थानों को भी राजपक्षे सरकार ने स्वतंत्रता से काम नहीं करने दिया। सरकार में लोकतांत्रिक नियंत्रण और संतुलन के साथ नीतियों पर बहस की शैली अगर चलती रहती तो उनका वैसा हश्र नहीं होता जो आज हुआ है।

भारत को भी इस बात से सबक लेना जरूरी है कि लोकतांत्रिक संस्थाओं की मर्यादा और गरिमा बनी रहे। मीडिया और स्वतंत्र संस्थान अपनी जिम्मेदारी निभाते रहें। न्यायपालिका स्वतंत्रता के साथ काम करती रहे। श्रीलंका में ऐसे हालात राजपक्षे सरकार ने बना दिए थे कि सारी संवैधानिक संस्थाएं काम करने में घुटन महसूस कर रही थीं। 

श्रीलंका से भारत के लिए यह भी एक सबक है कि राजनीतिक वर्चस्व के लिए सामाजिक सहिष्णुता को दांव पर नहीं लगाना चाहिए। बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक समुदाय के नाम पर सत्ता हासिल की जा सकती है लेकिन राष्ट्र के निर्माण और विकास में राजनीतिक विभेद कारगर नहीं होता। धर्म और नस्ल के नाम पर बहुत लंबे समय तक लोगों को बरगलाया नहीं जा सकता। 

आज श्रीलंका में सर्वदलीय पहल शुरू हुई है। जब देश डूब गया तब सभी दलों के लोग देश को उबारने के लिए चिंतन मनन कर रहें हैं। ऐसी स्थिति सामान्य समय में क्यों नहीं हो सकती? हर राजनीतिक दल जो लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में चुनकर आते हैं, उनकी देश के प्रति जवाबदारी होती है। बहुमत वाला दल सरकार चलाता है तो अल्पमत वाला दल विपक्ष की भूमिका निभाता है। इसका आशय ये नहीं होता कि पक्ष और विपक्ष के बीच में दुश्मनी हो और इसका खामियाजा देश को भुगतना पड़े। 

भारत में राजनीतिक दलों के बीच राजनीतिक सौहार्द लगातार कम होता जा रहा है। राष्ट्रीय मुद्दों पर भी राजनीतिक दलों के बीच में एक राय नहीं बनना राष्ट्र के लिए शुभ संकेत नहीं माना जा सकता। अगर श्रीलंका में पहले ही सर्वदलीय भावनाओं का सम्मान किया जाता तो शायद इतनी गलत और गैर जिम्मेदार नीतियां लागू नहीं हो पाती और देश के हालात इतने खराब नहीं होते। 

अर्थव्यवस्था के मुद्दे पर भी पक्ष और विपक्ष की अलग-अलग राय और कार्यप्रणाली हैं। भारत दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्था है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मुद्रास्फीति के कारण बढ़ रही महंगाई का शिकार भारत भी है। मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में भारत को अभी काम करने की जरूरत है। भारत की "Per Capita Income" क्यों घट रही है? निर्यात में हो रही कमी भी सवाल पैदा कर रही है।

भारत श्रीलंका को उभारने के लिए हर संभव मदद कर रहा है। भारत की तुलना श्रीलंका से करने वाले सही दृष्टिकोण से विचार नहीं कर रहे हैं। भारत सक्षम है लेकिन भारत को कुछ बुनियादी मामलों में सबक लेकर आगे बढ़ने और काम करने की जरूरत है।