मध्यप्रदेश फिर गोवा की तरह विधायकों को भाजपा में शामिल करने का यह खेल पिछले दिनों पूर्वोत्तर राज्यों, व कर्नाटक में भी देखने में आया..!
प्रतिदिन-राकेश दुबे
17/09/2022
इधर कांग्रेस का भारत जोड़ो अभियान चल रहा है, उधर कांग्रेस से कुछ लोग छूटते- टूटते जा रहे हैं | किसी और के लिए तो नहीं पर भारत जोड़ो अभियान की अगुआई कर रहे कांग्रेसी नेतृत्व के लिये यह खबर चिंता बढ़ाने वाली है, कांग्रेस के एक और दिग्गज महाराजा कर्ण सिंह ने अपनी नाराजगी जाहिर की है तो गोवा में उसके आठ विधायक टूटकर भाजपा में शामिल हो गये।
इन घटनाक्रमों के राजनीतिक निहितार्थ तो हैं ही । साथ ही इसके लिये ऐसे समय को चुनना जब राहुल गांधी के नेतृत्व में कन्याकुमारी से कश्मीर तक की भारत जोड़ो यात्रा देश का ध्यान खींच रही है और कांग्रेस द्वारा जिस तरह के चुटकुले बनाये जा रहे है और उनका जैसा दूसरी ओर से जवाब दिया जा रहा है । यह सबकुछ स्वस्थ लोकतंत्र के हित में नहीं है।
पहले भी गाहे-बगाहे देश के विभिन्न राज्यों में विपक्षी दलों के विधायकों को येन-केन-प्रकारेण भाजपा में मिलाने की मुहिम से दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को लेकर कोई अच्छा संदेश नहीं जाता था । और कुछ हो न हो इससे भाजपा की राजनीतिक शैली की विश्वसनीयता को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं। यही वजह है कि राजग के कई पुराने सहयोगी दलों ने भाजपा से किनारा कर लिया। शिवसेना से शुरू हुई इस आशंका से अलगाव की कवायद हाल ही में जदयू के अलगाव के रूप में सामने आयी है। मध्यप्रदेश फिर गोवा की तरह विधायकों को भाजपा में शामिल करने का यह खेल पिछले दिनों पूर्वोत्तर राज्यों, व कर्नाटक में भी देखने में आया।
जिसे लोकतंत्र में जनता के विश्वास से छल ही कहा जायेगा कि जनप्रतिनिधि जनता से किसी पार्टी के नाम पर वोट मांगता है और फिर दूसरे राजनीतिक दल की बांह पकड़ लेता है। जिससे विभिन्न राजनीतिक दलों के सहयोगियों में भी अविश्वास बढ़ा है। ये सारे घटनाक्रम भारतीय राजनीति में नैतिक मूल्यों के पराभव का चित्र ही उकेरता है। जिससे एक ही सन्देश निकलता है कि सत्ता में आने की बेचैनी जनप्रतिनिधियों को किसी भी हद तक ले जा सकती है। फार्म हाउसों और गेस्ट हाउसों में घेर कर ले जाये जाते विधायक इस दयनीय स्थिति को ही उजागर करते हैं। यह सब राजनीतिक पंडितों के लिये अध्ययन का विषय होना चाहिए कि विपक्ष में बैठने में विधायकों में बेचैनी क्यों होती है? वे स्वार्थों के लिये जनता के विश्वास से छल क्यों करते हैं?
इन दिनों देश में जो देश में राजनीतिक इतिहास लिखा जा रहा है वो केंद्रीय सत्ता में आये राजनीतिक दल धनबल और सरकारी एजेंसियों के जरिये भयादोहन करके विपक्ष को कमजोर करने का उपक्रम ही है | यह हमेशा होता रहा है | कांग्रेस पार्टी इससे अछूती नहीं रही है। राजनीतिक इतिहास के पन्नों पर नजर डालें तो पता चलता है कि रातों-रात कैसे सरकारें गिराई जाती थी और थोक में राज्यपाल बदले जाते थे उद्देश्य हमेशा केंद्रीय सत्ता के निष्कंटक मार्ग की स्थापना ही हमेशा रहा है | राजनीति की इन कुप्रथाओं का विस्तार वर्तमान राजग सरकार के दौर में भी दिखायी दे रहा है। ईडी, सीबीआई और आयकर विभाग के जरिये विपक्षी नेताओं की कमजोर नस पर हाथ रखा जा रहा है। यूं तो राजनीति के तमाम राजनेता गाहे-बगाहे बेनकाब होते रहते हैं लेकिन विडंबना यह है कि ये राजनेता जब भाजपा में शामिल होते हैं तो पूरी तरह पाक-साफ बन जाते हैं। यहाँ प्रश्न यह भी है कि सरकारी एजेंसियों को सत्तारूढ़ दल में कोई दागी नेता नजर नहीं आता? जो विगत में विपक्ष में रहते हुए दागदार बताया जाता रहा था,दल बदलते ही परम पवित्र कैसे हो गया ?
इन दिनों देश में चल रही प्रलोभन व भयादोहन से विपक्ष को कमजोर करने की राजनीति कहीं से भी लोकतंत्र के हित में नहीं है । सशक्त और सजग विपक्ष लोकतंत्र की अनिवार्य शर्त है। जो सत्ता पक्ष को निरंकुश होने व भटकने से बचाता है।
आज कांग्रेस को भी आत्ममंथन करना चाहिए कि वह वैचारिक स्तर पर इतनी कमजोर क्यों हो गई है? क्यों वह अपने पार्टी नेताओं व कार्यकर्ताओं को एकजुट नहीं रख पा रही है? यह सब बताता है देश की राजनीतिक पार्टियों के भीतर लोकतंत्र कमजोर हुआ है|