कर्नाटक में जीत के बाद ऐसा लग रहा था कि कांग्रेस नए भारत की वास्तविकताओं को समझेगी और अपनी चाल ढाल और विचारों को चुनावी नजरिए से आगे बढ़ाकर भारतीय संस्कृति और परंपरा के पथ पर आगे बढ़ेगी. कांग्रेस के नेता कर्नाटक जीत से इतने फूल गए हैं कि यह सफलता पार्टी के जैसे सिर पर चढ़ गई है. गीता प्रेस को अंतरराष्ट्रीय गांधी सम्मान दिए जाने का विरोध कर कांग्रेस ने अपने राजनीतिक भविष्य का ही विरोध किया है.
कांग्रेस एक तरफ सॉफ्ट हिंदुत्व को अपना चुनावी हथियार बना रही है तो दूसरी तरफ सनातन संस्कृति के प्रतीकों को खंडित करने का काम कर रही है. कर्नाटक में धर्मांतरण विरोधी कानून कांग्रेस सरकार द्वारा वापस ले लिया गया है. पाठ्यक्रमों से सावरकर और हिंदू विचारकों के पाठ्यक्रम हटा दिए गए हैं. यहां तक कि कर्नाटक के मंत्री द्वारा यह बयान दिया गया है कि जैसे सारे पशु काटे जाते हैं उसी प्रकार गाय भी एक पशु है उसे काटा जा सकता है.
एक जीत ऐसा राजनीतिक पागलपन ला सकती है इसकी कल्पना नहीं की जा सकती. भारतीय जीवन पद्धति को केवल चुनावी नजरिए से उपयोग कर सफलता हासिल करने के दृष्टिकोण पर चलने वाले लोगों को सेकुलर नटवरलाल ही कहा जा सकता है.
सनातन धर्म और परंपरा की जीवन पद्धति में रहने वाले किसी भी परिवार के लिए गीता प्रेस का स्थान पूजा का स्थान माना जाता है. हर सनातनी परिवार में छोटा ही सही लेकिन पूजा का एक मंदिर होता है और उस मंदिर में गीता प्रेस की प्रकाशित कोई ना कोई पुस्तक श्रद्धा के साथ रखी जाती है. सनातन संस्कृति और धर्म के प्रचार के लिए गीता प्रेस ने जो काम किया है वह गांधी पुरस्कार से भी कहीं अधिक महत्व रखता है.
राजनीतिक दल ऐसा क्यों सोचते हैं कि राजनीति ही देश का जीवन है. राजनीतिक दलों में पक्ष विपक्ष के बीच वैचारिक टकराव स्वाभाविक प्रक्रिया है लेकिन जनादेश से बनी सरकार के हर निर्णय का विरोध राजनीतिक समझदारी नहीं मानी जाएगी. कांग्रेस को यह बताना पड़ेगा कि गीता प्रेस को सम्मान देने का विरोध क्यों किया जा रहा है?
देश में हिंदू-मुस्लिम का विभाजन राजनीतिक कारणों से ज्यादा है. शायद बीजेपी सरकार के हर एक्शन का विरोध कांग्रेस इसलिए करती है क्योंकि इससे उसे मुस्लिम एकीकरण का लाभ मिलता है. कर्नाटक में जब से कांग्रेस को जीत मिली है तब से राजनीतिक बंदर बहुत खुश हैं. यह बंदर ऐसी राजनीतिक गुलाटियां दिखा रहे हैं कि देश भौंचक है. भारत के भीतर ही नहीं पूरी दुनिया में ऐसे बंदरों का जाल फैला हुआ है. भारतीयता और भारतीय संस्कृति की किसी भी आवाज को अल्पसंख्यकवाद से गुणा भाग करके राजनीतिक हित साधने का शर्मनाक खेल यह राजनीतिक बंदर खेल रहे हैं. वैचारिक रूप से कंगाल राजनीतिक बंदर अपने आपको ज्ञानी, ध्यानी और जीवनदानी समझने लगे हैं.
इन सियासी बंदरों को ऐसा लगने लगा है कि ये सेकुलर लीला के गिरधारी हैं. इनके ढाई घर घोड़े की चाल केवल चुनावी चाल ही होती है. इन्हें भारत और भारतीयता से केवल चुनाव के लिए ही सरोकार दिखाई पड़ता है. चुनाव के समय तो ऐसा लगता है कि इनसे बड़ा सनातनी और हिंदू कोई है ही नहीं. जब से कर्नाटक में कांग्रेस सत्ता में आई है तब से चुनावी राज्यों में बजरंगबली की गदा को कांग्रेस के कार्यालयों और कांग्रेसी नेताओं ने अपने कंधों पर उठा लिया है.
मध्यप्रदेश में चुनाव अभियान की शुरुआत करते हुए प्रियंका गांधी को भी हिंदुत्व की प्रयोगशाला में उपयोग कर लिया गया. बजरंगबली की गदा चुनावी सभा की सबसे बड़ी शोभा दिखाई पड़ रही थी. चुनावी आचरण हिंदुत्ववादी और वैचारिक आचरण हिंदुत्वविरोधी होने का सबसे बड़ा उदाहरण गीता प्रेस के सम्मान का विरोध है. राजनीतिक हलकों में ऐसा माना जा रहा था कि कर्नाटक की जीत के बाद शायद कांग्रेस अपने वैचारिक धरातल पर कुछ बुनियादी बदलाव करेगी. सियासत को तुष्टीकरण के विस्फोटक हालातों से बाहर लाकर प्रगति और विकास का नया नजरिया पेश करेगी. इसे कांग्रेस का वैचारिक दिवालियापन कहा जाएगा कि राजनीति के वर्तमान दौर के लिए कांग्रेस के ऐसे ही आचरण जिम्मेदार हैं फिर भी कर्नाटक जीत के बाद तेजी के साथ फिर कांग्रेस वही सब करने लगी है.
धर्मांतरण क्यों होना चाहिए? कर्नाटक में धर्मांतरण को रोकने के लिए कानून कांग्रेस द्वारा क्यों वापस लिया जाना चाहिए? जब कभी कांग्रेसी विचारधारा के महापुरुषों को पाठ्यक्रम से हटाया जाता है तो कांग्रेस हायतौबा मचाती है तो जनादेश से देश की सत्ता पर काबिज बीजेपी के महापुरुषों का नाम पाठ्यक्रमों से क्यों हटाया जाना चाहिए? लोकतंत्र में जनादेश सबसे ऊपर है जिसको भी जनादेश मिला है उसकी विचारधारा और मान्यता को स्वीकार करना लोकधर्म ही कहा जाएगा.
कर्नाटक से कांग्रेस के दिल की जो कली खिली है उसको मुरझाने में समय नहीं लगेगा. राजनीति को हिंदू-मुस्लिम में बांटने की गलती कांग्रेस पहले भी कर चुकी है. देश का बंटवारा भी इसी सोच पर हुआ था. देश के लोग ऐसे बंटवारे को पसंद नहीं करते. इसी कारण कर्नाटक में कांग्रेस को फिर से मौका मिला है. इस मौके का कांग्रेस को सकारात्मक नजरिए से उपयोग करना चाहिए था लेकिन यह पार्टी फिर उसी पुरानी मानसिकता पर लौट आई है. राजनीति के ज्ञानी-ध्यानी बंदर अब गीता प्रेस की खाल छील रहे हैं. तुष्टीकरण की ढाल में इन बंदरों को मोतियों का थाल सजा हुआ दिखाई पड़ रहा है. राजनीति में आचरण और विचार में दोहरापन सेकुलर नटवरलालों को बहुत समय तक और बहुत अधिक सफलता नहीं दिला पाएगा.