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सिस्टम बेहाल और राजनीति मालामाल

सार

आजकल रेवड़ी संस्कृति की काफी चर्चा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसे देश के लिए खतरा बता रहे हैं। दूसरे राजनेता कहते हैं कि जनता को रेवड़ी देना पुण्य है और मित्रों को रेवड़ी देना पाप। मुफ्तखोरी की रेवड़ी बांटकर जनता की राजनीतिक आरती और प्रार्थना का लाभ लेकर राजनीति मालामाल हो रही है। मुफ्तखोरी की योजनाएं जहां एक तरफ सिस्टम को बर्बाद कर रही हैं, वहीं पूरा सरकारी सिस्टम भी चरमराता जा रहा है।

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विस्तार

राज्य सरकारों के बीच तो कर्ज लेकर घी पीने की जैसे प्रतिस्पर्धा चल रही है। राजनेताओं के पास नोट ऐसे निकल रहे हैं जैसे नोटों की छपाई रिजर्व बैंक नहीं बल्कि राजनीति ही करती हो। झारखंड के तीन विधायक लाखों रुपए के कैश के साथ कोलकाता में गिरफ्तार किए जाते हैं। मध्यप्रदेश के एक विधायक की फोटो सोशल मीडिया पर वायरल होती है। फोटो कैप्शन में यह लिखा जाता है कि जिला पंचायत सदस्य अध्यक्ष के मतदान के बाद अपनी नई गाड़ी के साथ रवाना हुए। कोलकाता में पार्थ चटर्जी और अर्पिता मुखर्जी के घर से जितनी बड़ी संख्या में नोट निकले हैं, एक साथ इतने नोटों की गड्डियां तो शायद देश ने सार्वजनिक रूप से पहली बार देखी हैं।
 
ऐसा लगता है कि मुफ्तखोरी की योजनाएं राजनीतिक व्यापार को बढ़ाने के औजार के रूप में उपयोग की जाती हैं। धीरे-धीरे जनता और राजनीति में मुफ्तखोरी इस सीमा तक पहुंच गई है कि अब काली कमाई के खुलेआम उपयोग और प्रदर्शन से किसी को कोई असर नहीं पड़ता। 

राजनीतिक नैतिकता शब्द अब विलुप्त सा हो चुका है। देश के लिए कॉमन सिविल कोड की जरूरत महसूस की जा रही है। इस पर थोड़ी बहुत बात भी चल रही है। आगे इसका कोई स्वरूप आ सकता है लेकिन ऐसा लगता है कॉमन सिविल कोड से ज्यादा इस समय देश को कॉमन पॉलिटिकल कोड की जरूरत है। कम से कम पॉलिटिकल पार्टी जो राष्ट्र के लिए जरूरी विषयों पर एक भाषा में बात और एक ताल में काम करने के लिए तो तैयार हों। अभी तो चारों तरफ राजनीति का बोलबाला है। भ्रष्टाचारी नेता पकड़ा गया तो विपक्ष की आवाज दबाने का रोना शुरू हो जाता है। कॉमन पॉलिटिकल कोड कानून के अंतर्गत बन जाएगा तो शायद उसका कुछ पालन हो और देश को राजनीतिक अधोपतन के दौर से बचाया जा सके। 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कल ही विद्युत वितरण कंपनियों के बकाया भुगतान पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा है कि वितरण कंपनियां, जनरेटिंग कंपनी को समय पर भुगतान नहीं करते। इसके कारण पॉवर का पूरा इकोसिस्टम प्रभावित हो रहा है। जुलाई माह के अंत तक 1.13 लाख करोड़ विद्युत जनरेटिंग कंपनियों का वितरण कंपनियों पर बकाया है। यह कंपनियां पॉवर परचेज का भुगतान नहीं करतीं और राजनीतिक लाभ के लिए फ्री बिजली और बिजली सब्सिडी देने का महापाप करती हैं। राजनीतिक क्षेत्र जहाँ फ्री बिजली की रेवड़ियाँ बांटता है वहीं देश के मध्यमवर्ग को इसे भुगतना पड़ता है।    

प्रधानमंत्री द्वारा मुफ्तखोरी और रेवड़ी कल्चर पर दिए गए वक्तव्य के बाद रिजर्व बैंक सहित सभी संस्थाओं में इस पर चिंतन प्रारंभ हुआ है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी केंद्र सरकार को निर्देश दिया है कि वित्त आयोग से चर्चा कर केंद्र सरकार ऐसी कोई नीति बनाए जिससे मुफ्तखोरी की योजनाओं को रोका जा सके। जनता की मुफ्तखोरी पर तो राजनीतिक लोग रोक लगा सकते हैं लेकिन राजनीतिक क्षेत्र में जो मुफ्तखोरी चल रही है, उसको रोकना भी बहुत जरूरी है। इस मुफ्तखोरी के नमूने समय-समय पर जांच एजेंसियों के छापों और जांच के दौरान उजागर होते रहते हैं। राजनीतिक मुफ्तखोरी का मतलब यह है कि संसदीय शासन प्रणाली में शासन पर नियंत्रित करने वाली ताकतें शासन के माध्यम से ही काली कमाई करती हैं। 

रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि सब्सिडी बांटने में मध्यप्रदेश का देश में दूसरा स्थान है। एक साल में टैक्स की सरकार की कमाई से 21000 करोड़ रुपए सब्सिडी और मुफ्त खोरी की योजनाओं में बांटे गए हैं। रिपोर्ट के अनुसार, टैक्स कलेक्शन का 28.8% सब्सिडी में ही खर्च किया गया है। इस रिपोर्ट में मध्यप्रदेश के बढ़ते कर्ज पर गहरी चिंता व्यक्त की गई है। रिपोर्ट के अनुसार, मध्यप्रदेश देश का ऐसा अकेला राज्य है, जहां पिछले 2 सालों में कर्ज का बोझ घटने की बजाय 2% बढ़ गया है। पिछले वित्तीय वर्ष में मध्यप्रदेश में एसजीडीपी की तुलना में 31.3 प्रतिशत क़र्ज़ है। इस साल इसके बढ़कर  33.3% होने की उम्मीद है। 

एसजीडीपी की तुलना में कर्ज के मामले में मध्यप्रदेश देश में चौथे स्थान पर है। पंजाब, राजस्थान और पश्चिम बंगाल टॉप-3 राज्य हैं। इन तीनों राज्यों में मौजूदा वर्ष में एसजीडीपी की तुलना में कर्ज में कमी आने का अनुमान है जबकि मध्यप्रदेश में इसके विपरीत 2% वृद्धि का अनुमान इस रिपोर्ट में लगाया गया है। 10 साल पहले मध्यप्रदेश के राज्य सकल घरेलू उत्पाद में खुद के टैक्स से अर्जित राजस्व की हिस्सेदारी 8% होती थी अब यह घटकर 6% ही रह गई है। इसके साथ ही बिजली कंपनियों को बेलआउट करने पर मध्यप्रदेश सरकार पर 49,112 करोड़ रुपए का लंबी अवधि का क़र्ज़ बढ़ा है। 

रिजर्व बैंक के अनुसार, मुफ्त की योजनाएं उनको माना जाता है जिनसे अर्थव्यवस्था को कोई फायदा नहीं होता। फ्री बिजली- पानी, बस यात्रा, कर्जमाफी जैसी योजनाएं मुफ्त की रेवड़ियाँ मानी गई हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि ये योजनाएं प्रदेश के बैंकिंग सिस्टम को खोखला बना रही हैं। इनसे निजी निवेश प्रोत्साहन में भी कमी आती है। देश में कोई भी राज्य ऐसा नहीं बचा है जो क़र्ज़ के जाल में नहीं फंसा हो। 
 
सरकारों की आर्थिक सेहत चिंताजनक ढंग से खराब हालत में है लेकिन इसका असर संसदीय सिस्टम पर नहीं पड़ता। राजनीतिक क्षेत्र में काम करने वाले लोगों के पास निकल रहा कैश यही बता रहा है कि उन पर न किसी महंगाई का कोई प्रभाव है और ना ही अर्थव्यवस्था के खराब होने का। 
 
सरकारी सिस्टम में भ्रष्टाचार और काली कमाई के गठजोड़ को तोड़ने की कोशिश करने वाले के खिलाफ पॉलिटिकल टारगेट अटैक किए जाते हैं। इसी तरह का माहौल वर्तमान में दिखाई पड़ रहा है। भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई की प्रतिबद्धता राजनीतिक प्रशासकों की छवि को बचाने के लिए बहुत जरूरी है। अब यह समय आ गया है जब देश में स्वतंत्र राजकोषीय परिषद (fiscal council) बने जो केंद्र और राज्यों के खर्च पर निगरानी रख सके।