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फिर जांच और बचने बचाने का सिस्टम किसी को फंसने नहीं देता, आरोपियों के बरी होने पर गृह विभाग के जागने के क्या मायने ? सरयूसुत मिश्र 

सार

पेटलावद ब्लास्ट में 78 बेगुनाहों की मौत के मामले में सभी आरोपियों का दोषमुक्त होना, गृह विभाग के अधिकारियों के दिमाग को ब्लास्ट कर गया है| गृह विभाग ने रीवा में पुलिस बल पर हमले और बालाघाट में बच्चों के साथ अप्राकृतिक कृत्य करने वाले आरोपियों के बरी होने के प्रकरणों की भी समीक्षा की| गंभीर और संगीन अपराधों में आरोपियों के बरी होने पर मुख्यमंत्री और गृह विभाग नाराज बताया जा रहा है| तीनों मामलों में समीक्षा में गृह विभाग ने पाया कि विवेचना में कई खामियां हैं| जांच करने वालों ने जो कुछ किया उससे आरोपियों को लाभ मिला|

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विस्तार

यह पहली बार नहीं हो रहा है कि संगीन अपराधों के आरोपी दोषमुक्त हुए हों| देर से ही सही लेकिन गृह विभाग को जांच में खामियां दिखी तो सही| अब जांच करने वालों की जांच होगी| अगर यह हो सका तो यह सिस्टम पर बड़ा ब्लास्ट होगा| पूरा सरकारी सिस्टम ही बचने बचाने की बुनियाद पर खड़ा होता है| सरकारी नीतियां और कानून ही बचने बचाने का मौका देते हैं| सरकारी पजामे में ना जाने कितने छेद होते हैं, जो सबको बच निकलने का रास्ता देते हैं| सिस्टम में किसी भी स्तर पर नाराजगी भी असली होती होगी इसमें शंका होती है| ऐसा इसलिए लगता है क्योंकि नाराजगी की केवल खबरें पढ़ने को मिलती हैं, ज्यादा से ज्यादा किसी का तबादला| इसके अलावा अधिक कुछ भी होता दिखाई नहीं पड़ता| गृह विभाग जागा है तो शायद विभाग में हर स्तर पर जमीर जागे और जांच में सांच ही हो, यह तो केवल माना ही जा सकता है| क्योंकि वास्तव में कुछ होगा इतिहास तो ऐसा नहीं बताता|
 
सरकारी नीतियों के निर्माण और उनमें बदलाव की जरूरत शायद इसीलिए होती है, कि समस्या का समाधान हो, इस समाधान में भले ही अवैध  गतिविधियां वैध हो जाएं| अपराध और अवैधानिकता की मानसिकता कैसे बढ़ती है? उसको बढ़ाने में क्या सिस्टम जवाबदार नहीं होता? हमारे सिस्टम का ही कमाल है कि हजारों बेगुनाहों को मौत की  नींद सुलाने वाली  जहरीली गैस की हत्यारी कंपनी यूनियन कार्बाइड के कर्ता-धर्ता बच जाते हैं| इन मौतों के लिए ना उस समय के मुख्यमंत्री और ना ही प्रशासन पर जिम्मेदारी डाली गई|
 
किसानों और मजदूरों पर गोली चालन का आदेश करने वाले भी बच जाते हैं, भले ही जांच में उन्हें दोषी माना गया| छापों में भ्रष्ट आचरण प्रमाणित होने के बाद भी बड़े बड़े अफसर बच ही जाते हैं| आग लगने के कारण  हमीदिया अस्पताल में काल कवलित हुए अबोध बच्चों की घटना की जांच में क्या हुआ? फिर वही जांच और बचने बचाने का सिस्टम किसी को फसने नहीं देता| पेटलावद की घटना कितनी गंभीर थी, वह इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि उस समय के मुख्यमंत्री जब वहां जाते हैं, तो लोग सड़क जाम करते हैं, मुख्यमंत्री को सड़क पर बैठकर उनसे बात करनी पड़ती है| इस घटना में सरकारी तंत्र को यह पता लगाने में कितनी देर लगनी चाहिए कि भीड़भाड़ वाले इलाके में विस्फोटक रखने की अनुमति किस स्तर से और किस अधिकारी द्वारा दी गई? यह अनुमति देने वाला क्या दोषी नहीं है? इसके लिए क्या किसी जांच आयोग की जरूरत है? इतने साफ मामलों में भी आरोपी बच जाते  हैं तो इसे क्या कहा जाएगा ?
 
सरकारें और सिस्टम, कई बार अव्यवस्थाएं और अराजकता बढ़ाने के लिए जिम्मेदार होते हैं| कर्ज लेना और वापस देना, लेने वाले और देने वाले के बीच का मामला है| लेकिन सरकारों ने कर्ज माफी की गलत प्रवृत्ति को बढ़ावा देकर, न केवल बैंकों को बर्बाद किया, बल्कि अंततः कर्ज लेने वालों का भविष्य भी प्रभावित हुआ| मध्य प्रदेश सरकार ने अवैध कालोनियों के  नियमितीकरण की घोषणा कर क्या अवैध निर्माण की मानसिकता को बढ़ावा नहीं दिया है? जो ईमानदारी से निर्माण करते हैं उनके  बारे में  सोचिये| उन्हीं के मोहल्ले का अवैध निर्माण सरकार ने वैध कर मोहल्ले की आबोहवा को क्या बिगड़ने का मौका नहीं दिया? राजधानी सहित बड़े शहरों का मास्टर प्लान 20 साल से नहीं लाकर क्या सरकार ने शहरों के विधि सम्मत विकास को बाधित नहीं किया है ?

क्या सरकार ने अवैध परिवहन के लिए  कंपाउंडिंग जुर्माना देकर छूट जाने का रास्ता नहीं बनाया है? जो काम गलत है जुर्माने से वो कैंसे सही हो सकता है? अगर नदी का सीना छलनी किया गया है तो जुर्माना देने से  वह सीना क्या सिल जाएगा? मध्यप्रदेश में तो बचने बचाने का खेल शर्मनाक स्तर तक खेला गया है| एक अधिकारी जिनके खिलाफ भ्रष्टाचार का केस उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में चल रहा था| उनका केस वापस लेकर उन्हें सिस्टम का सबसे बड़ा पद दे दिया गया| सारा दारोमदार तो सरकारों पर है| जनता तो मूक होकर सिस्टम का जलजला देख और भोग रही है| सरकारें और सिस्टम एक ध्येय वाक्य पर काम करती लगती हैं कि, “जब तक सब सुरक्षित नहीं है तब तक कोई सुरक्षित नहीं है”
 
यही ध्येय वाक्य लोकतांत्रिक बहुमत के लिए सबको बचने बचाने का आधार बनता है| समाचार पत्रों में आज एक खबर छपी है जिसमें बताया गया है कि मध्य प्रदेश में 11000 से ज्यादा डीएनए सैंपल की जांच  2 साल से लंबित है| इनमें 80% दुष्कर्म के मामले हैं| यह खबर सरकार के लिए ह्रदय विदारक होनी चाहिए| इसका मतलब है कि लगभग 9000 दुष्कर्म पीड़िताएं न्याय के लिए टकटकी लगाए बैठी हुई हैं| सैंपल की जांच समय पर नहीं होना क्या सिस्टम का अपराध नहीं है? इस अपराध के लिए क्या कोई नेता या विभाग जिम्मेदारी लेने का साहस दिखा सकता है ?

सरकार और सिस्टम पर तमाचा जड़ने वाली एक और खबर छपी है व्यापम की जांच पर पुलिस और सीबीआई झगड़ रहे हैं| सीबीआई कह रही है पुलिस केस ट्रांसफर नहीं कर रही है, पुलिस आरोप लगा रही है कि सीबीआई केस वापस कर रही है| आरटीआई एक्टिविस्ट कह रहे हैं कि रसूखदारों के नाम आने से केस नहीं दर्ज किए जा रहे हैं| क्या यह सिस्टम का बचने बचाने का खेल नहीं है? कुर्सियों पर बैठने से बचने बचाने का पाप खूब फलता फूलता है| ऐसा नहीं है कि इस खेल का किसी को पता नहीं है| यह पब्लिक है सब कुछ जानती है| बस राजनीतिक जोड़-तोड़ जनता का गणित बिगाड़ देते हैं| अपराध और अनियमितताओं पर  सरकार का नजरिया स्पष्ट और कड़क होना चाहिए|

एक तरफ लाशें हैं और दूसरी तरफ अपराधियों को सांसे दी जा रही हैं| इसके बाद न्याय का दिखावा करने का अभिनय होता दिखाई पड़ता है| नाराजगी को खबरों को हिट करने का जरिया बनाया जाता है|
पट्ठावाद और आत्ममुग्धता का अतिवाद, सिस्टम को सडा रहा है| केवल कुछ घटनाओं की जांच के अकेले मामले से कुछ नहीं होगा| सरकार और सिस्टम को बचने बचाने का स्वार्थ छोड़ना होगा| निस्वार्थ जनता की सेवा का नारा चरितार्थ कर दिखाना होगा| नहीं तो होना तो सबके साथ वही है| सारे पापो का हिसाब यहीं दे कर जाना होगा| उस समय कोई दिखावा नहीं चल सकता|