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जो राजनीति से करें प्यार, वह भ्रष्टाचार से कैसे करें इनकार?

सार

दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र भ्रष्टाचार के कारण कई बार शर्मसार होता रहा है। राजनीति में भ्रष्टाचार के मामले लगातार बढ़ते हुए दिख रहे हैं। राजनीतिक दलों में हर मामले में मत भिन्नता होती है लेकिन भ्रष्टाचार एक ऐसा मामला है जिसमें दलीय सीमाएं टूटी हुई दिखाई दे रही हैं। कोई ऐसा दल नहीं है जो कभी न कभी भ्रष्टाचार के मामले में कटघरे में खड़ा न हुआ हो। अब तो ऐसा लगने लगा है कि शायद राजनीति और भ्रष्टाचार एक सिक्के के दो पहलू हैं। बहुत पहले प्रेस्टीज प्रेशर कुकर के विज्ञापन की पंच लाइन थी- ‘जो बीवी से करे प्यार, वह प्रेस्टीज से कैसे करें इनकार’। यह पंचलाइन आज राजनीतिक भ्रष्टाचार पर पूरी तरह से फिट मालूम पड़ती है।

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विस्तार

यह चुनावी व्यवस्था की कमी है या लोकतंत्र की कमजोरी? राजनीतिक भ्रष्टाचार आम बात हो गई है। चारों तरफ अब आवाज सुनाई पड़ती है कि- जो राजनीति से करें प्यार, वह भ्रष्टाचार से कैसे करें इनकार। 

सरकारी सिस्टम एटीएम जैसा हो गया है। सरकारी ठेके भर्तियां और सरकार से जुड़े कोई भी काम हों, भ्रष्टाचार और कमीशन बाजी अब कोई खोज का विषय नहीं है। सबसे बड़ी चिंता का विषय है कि सरकारी सिस्टम में चारों तरफ भ्रष्टाचार व्याप्त है लेकिन दिखाई नहीं पड़ता या जानबूझकर जिम्मेदार लोग देखना नहीं चाहते। सनातन धर्म कहता है कि ईश्वर चारों तरफ विद्यमान हैं लेकिन दिखाई नहीं पड़ता। ठीक इसी प्रकार भ्रष्टाचार चारों तरफ है लेकिन दिखाई नहीं पड़ता। राजनीतिक भ्रष्टाचार का ताजा मामला पश्चिम बंगाल से जुड़ा हुआ है। 

सरकारों में विभिन्न पदों पर भर्तियां क्या बिना भ्रष्टाचार के नहीं होती? इस संबंध में इतने मामले प्रकाश में आ चुके हैं कि अब तो यह आम धारणा हो गई है कि बिना लेन-देन के नियुक्तियां हो ही नहीं सकतीं। शिक्षक भर्ती के मामले में बंगाल में नोटों का पहाड़ पकड़ा गया। अब तक 50 करोड़ का कैश बरामद हो चुका है। इस घोटाले के जिम्मेदार पार्थ चटर्जी को मंत्री पद से हटाया जा चुका है। 

पार्टी की ओर से कहा जा रहा है कि दोषी पाए जाने पर उनके खिलाफ कार्यवाही की जाएगी। पार्थ चटर्जी के करीबी के घर पर नोटों के रूप में सिस्टम की लाश मिलने के बाद भी सरकार दोष सिद्ध होने का इंतजार कर रही है। फ्लैटों में जो नोट मिले हैं, वह किसी एक मंत्री के हों यह मानना बड़ी भूल होगी। किसी भी सरकार या सिस्टम में संस्थागत रूप से भ्रष्टाचार और घोटाला करना बिना पूरे सिस्टम और मुखिया के संरक्षण के संभव नहीं हो सकता। सादगी भरा जीवन जीने का दिखावा करने वाली ममता बनर्जी भ्रष्ट सिस्टम का नेतृत्व कर रही हैं, यह बात अब साबित हो चुकी है। 

नियुक्तियों में होने वाले घोटाले अक्सर शिक्षकों की भर्ती में पकड़े जाते हैं। कई राज्यों में पहले भी शिक्षक भर्ती घोटाले में गड़बड़ी और भ्रष्टाचार उजागर हो चुका है। हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला शिक्षक भर्ती घोटाले में ही जेल में है। मध्यप्रदेश सहित कई राज्यों में भर्ती घोटाले के केस अदालतों में चल रहे हैं। भर्ती घोटाले केवल कमीशनबाजी मानकर नहीं छोड़े जा सकते। यह घोटाले किसी हकदार के हक की हत्या के रूप में होते हैं। बंगाल में भी जो शिक्षक पैसा देकर भर्ती हुए वह आज नौकरी कर रहे होंगे और जो योग्यता पर भर्ती होने चाहिए थे वह जीवन यापन के लिए भटक रहे होंगे। भर्ती घोटाले एक पीढ़ी के साथ अपराध हैं। 

केवल कैश बरामदगी से कुछ नहीं होने वाला, जिम्मेदारों को नौकरी से बर्खास्त करने की जरूरत है। जिन लोगों ने पैसे देकर भर्तियां पाई हैं, शिक्षा जैसे पवित्र व्यवसाय में जो शिक्षक भ्रष्टाचार और गलत तरीके से भर्ती हुआ हो वह भावी पीढ़ियों को कैसी सीख देगा इसकी कल्पना की जा सकती है। भारत के राजनीतिक दलों को यह कड़वा सच स्वीकार करना पड़ेगा।

आजकल राजनीतिक भ्रष्टाचार के जो मामले उजागर हो रहे हैं. वह पहले की तुलना में बहुत ज्यादा हैं। बंगाल के अलावा अभी हाल ही में कर्नाटक में एक मंत्री के विरुद्ध एक ठेकेदार द्वारा कमीशन बाजी की शिकायत की गई थी। उसके बाद ठेकेदार की आत्महत्या की घटना प्रकाश में आई। मंत्री को पद से हटाया गया। गवर्नमेंट प्रोजेक्ट्स को क्लियर करने और ग्रामीण विकास के निर्माण कार्यों में भ्रष्टाचार की शिकायतें आम बात हैं। महाराष्ट्र में दो मंत्री काली कमाई के आरोप में जेल में हैं। सरकार की सेवाएं और अधोसंरचना के काम राजनीति के लिए भ्रष्टाचार की जननी साबित हो रहे हैं। 

यह कैसे माना जा सकता है कि सिस्टम में इतने बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार और कमीशनबाजी हो रही हो और शासन में उच्च स्तर तक इसकी जानकारी न हो। अगर ऐसा है तो इसका मतलब यह सरकार की अक्षमता है। देश में राजनीतिक भ्रष्टाचार कैसे रुकेगा, यह अभी तो समझ नहीं आ रहा है। विभिन्न राजनीतिक दल भ्रष्टाचार का राजनीतिकरण करके बचने का प्रयास करते हैं। जांच एजेंसी को विरोधी दल के इशारे पर काम करने का आरोप लगाकर राजनीतिक संरक्षण पाने की कोशिश की जाती है। 

राजनीतिक भ्रष्टाचार का इससे दुर्भाग्य जनक पहलू क्या होगा कि केंद्र सरकार के विरोधी दलों की सरकारों ने अपने-अपने राज्यों में सीबीआई जांच तक को प्रतिबंधित कर रखा है। बंगाल का शिक्षक भर्ती घोटाला भी उच्च न्यायालय के निर्देश पर खुला है। राज्य सरकार तो सीबीआई जांच करने का मौका ही नहीं देती। अब तो यह सोचना पड़ेगा कि राजनीतिक भ्रष्टाचार कहीं चुनाव प्रक्रिया से तो नहीं जुड़ा हुआ है? चुनाव में राजनीतिक दलों को और प्रत्याशियों को करोड़ों रुपए खर्च करना पड़ता है। चुनाव खर्च के लिए पूरे कार्यकाल में जनप्रतिनिधि शायद पैसा जुटाने में ही लगा रहता है। बिना भ्रष्टाचार के सरकारी सिस्टम से पैसा कैसे निकाला जा सकता है?

राजनीति में भ्रष्टाचार को रोकना आज देश के मान-सम्मान और विकास के लिए जरूरी है। आम धारणा बनती जा रही है कि राजनीति का क्षेत्र तेज गति से कमाई का सफलतम क्षेत्र है। हमारा सिस्टम क्या विकल्प हीनता का शिकार हो गया है? क्या सुधार की कोई गुंजाइश नहीं दिखती? चुनाव प्रक्रिया में सुधार कर क्या राजनीतिक भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने की कोशिश नहीं की जा सकती है?

वरिष्ठ नौकरशाहों के हालात भी चिंताजनक ढंग से समझौतावादी दिख रहे हैं। सच और साहस नौकरशाही से लुप्त सा हो गया है। जब नौकरशाहों के सहयोग से राजनीतिक भ्रष्टाचार को अंजाम दिया जाता है तो फिर नौकरशाह उसको रोकने की बजाय हिस्सेदारी को प्राथमिकता देने लगते हैं और धीरे-धीरे सारा सिस्टम इसी दिशा में आगे बढ़ जाता है।

राजनीतिक क्षेत्र सरकारी सिस्टम से जहां पैसा निकालता है वही पब्लिक को मुफ्तखोरी और रेवड़ी के माध्यम से भ्रष्ट करने की कोशिश की जाती है। पूरा वातावरण ऐसा बन जाता है कि जनता भी भ्रष्ट और नेता भी। जनता तो थोड़ा बहुत लाभ लेकर संतोष में रहती है लेकिन राजनीतिक क्षेत्र सरकारी सिस्टम को खोखला और बर्बाद करने से नहीं चूकता है। राजनीतिक भ्रष्टाचार को रोकना लोकतंत्र को बचाने के लिए जरूरी होगा। लोकतंत्र का बंटाधार रोकना है तो राजनीतिक भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने की कोशिश करना ही पड़ेगी और यह काम राजनीतिक क्षेत्र को ही करना होगा।