देश की समस्याओं पर टीवी चैनलों में होने वाली डिबेट ही अब देश की बड़ी समस्या बन गई है। चैनल्स में डिबेट का ऐसा फॉर्मेट है कि विषय से संबंधित विभिन्न विचारधारा और समूहों के प्रतिनिधियों को बिठाकर उस विषय पर अपनी बात रखने का मौका दिया जाए। चैनल ऐसा मानते हैं कि इस प्रकार वे सभी पक्षों को समान रूप से अपनी बात रखने का अवसर देते हैं..!
सवाल यह है डिबेट में जो भी बात रखी जा रही है वह वैधानिक रूप से सही है या नहीं है? डिबेट के तथ्यों से समाज में वैमनस्य तो नहीं बढ़ रहा है? यह देखना और सुनिश्चित करना क्या चैनल की जिम्मेदारी नहीं है? चैनल की डिबेट में ऐसा कोई भी तथ्य पब्लिक में नहीं जाना चाहिए जिससे किसी की भावनाएं आहत हों।
डिबेट में जुबान फिसलना तो आम बात है। हर डिबेटर अपनी बात ताकत के साथ रखने के लिए कुछ ऐसे डायलॉग और तथ्य रखने की कोशिश करता है जो एक प्रभाव डाल सके। आजकल खबरें भी उसी ढंग से सामने आती हैं। डिबेट और खबरों की स्क्रिप्ट ऐसी होती है जिसमें वह चर्चा में आए।
दस दिन पुरानी एक डिबेट में एक समुदाय की धार्मिक आस्थाओं पर टिप्पणी आज अंतरराष्ट्रीय चर्चा का विषय बना चुकी है। जिसने टिप्पणी की वह भारतीय जनता पार्टी की प्रवक्ता थीं। उन्हें पार्टी द्वारा निलंबित किया जा चुका है। भाजपा मीडिया सेल के एक अन्य पदाधिकारी को निष्कासित किया जा चुका है।
किसी भी धर्म के बारे में कोई भी टिप्पणी किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं की जा सकती है। इसके साथ ही किसी एक व्यक्ति की टिप्पणी को पार्टी या देश की टिप्पणी मानना भी तर्कसंगत नहीं हो सकता। कोई भी अगर ऐसा कुछ कहेगा जो कानून सम्मत नहीं है, जिसके कारण किसी की भावनाएं आहत होती हैं तो उसके खिलाफ कार्यवाही होनी ही चाहिए।
धर्म और जातियों के विवाद ने भारत को काफी पीछे रखा है। इस तरह के विवादों के पीछे निश्चित ही राजनीतिक हथकंडे हो सकते हैं। आज-कल एक और ट्रेंड चल रहा है कि लोग मीडिया अटेंशन के लिए कई बार जहरीली बातें करते हैं। सामान्य बात तो मीडिया के फोकस में आती भी नहीं। इसलिए जहरीली बातें कर लोग मीडिया का ध्यान अपनी ओर खींचते हैं और उसका राजनीतिक लाभ उठाते हैं।
भारत में विभाजन के समय से ही हिंदू मुस्लिम विवाद पैदा कर दिए गए थे। दोनों समुदायों ने समझदारी के साथ मिलजुल कर बीते बातें भुला सारी परिस्थितियों को संभाला है। अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की राजनीति में कई बार राष्ट्र के सामने दुविधापूर्ण परिस्थितियां पैदा होती हैं लेकिन भारत में वह शक्ति है कि इन दुविधाओं का समाधान स्वयं कर लेता है।
अयोध्या आंदोलन और बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद हिंदू मुस्लिम एकता प्रभावित हुई थी। इसके बावजूद न्यायालय के निर्णय को भारत के मुसलमानों ने सहर्ष स्वीकार किया। आज वहां राम मंदिर का निर्माण हो रहा है। काशी के ज्ञानवापी मामले में भी अदालत में प्रकरण चल रहा है।
इस मामले के सामने आने के बाद देश में हिंदू और मुस्लिमों के बीच थोड़ा तनाव दिखाई पड़ रहा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भगवत ने हर चीज में शिवलिंग देखने की प्रवृत्ति के खिलाफ स्टैंड लिया है। उनका कहना है कि ऐतिहासिक गलतियों को सुधारने के लिए हम दोबारा गलती नहीं करेंगे। भारतीयता तो मन और संस्कार बदलने में विश्वास करती है।
संघ का मानना है कि जिस तरह से सनातन धर्म के मंदिरों को मुगल आक्रान्ताओं ने तोड़ा था, उसी तरह से उस समय के हिंदुओं को जबरदस्ती धर्म परिवर्तन कर मुस्लिम बनाया गया था। मोहन भागवत कहते हैं कि भारत के हिंदू और मुसलमानों का डीएनए एक ही है।
जब एक ही डीएनए है तब उपासना पद्धति अलग होने के बाद क्या हम एक साथ, एक दूसरे के धर्म का आदर करते हुए नहीं रह सकते? बिल्कुल रह सकते हैं और रह रहे हैं। बीच-बीच में कुछ जहरीली बातें आ जाती है जिसके कारण तनाव बढ़ता है लेकिन यह परिस्थितियां भी भविष्य में और बेहतर हो जाएंगी।
अब बात जहां से प्रारंभ हुई थी। टीवी डिबेट में नूपुर शर्मा की टिप्पणी पब्लिक में आने के लिए क्या वह चैनल जिम्मेदार नहीं है? उस चैनल ने अनर्गल बात को सेंसर क्यों नहीं किया? धर्म के मामले में हमेशा ऐसा होता है। जब कोई ऐसी घटना-दुर्घटना हो जाती है तब एक पक्ष के खिलाफ कार्रवाई होने से दूसरा पक्ष खुश होता है।
इस पूरे प्रकरण में भाजपा की ओर से रणनीतिक गलती की गई लगती है। इस मामले में दस दिन पहले ही कार्रवाई कर दी जाती तो ज्यादा बेहतर होता? दो समुदायों का मामला बहुत संवेदनशील हो जाता है। कार्यवाही की जाए तो एक पक्ष नाराज, कार्रवाई नहीं की जाए तो दूसरा पक्ष नाराज। भाजपा के सामने आज ऐसी ही परिस्थितियां खड़ी हो गई हैं। ऐसे हालात में बहुत फूंक फूंक कर कदम उठाने की जरूरत है।
जो भी व्यक्ति किसी के लिए भी समर्पण के साथ काम करता है उससे गलतियां भी होती हैं। सजा भी मिलती है लेकिन दूसरे पक्ष की भावनाओं को आहत करने से बचना चाहिए।
भाजपा की स्थिति आज 32 दांतो के बीच जीभ जैसी है। देश के प्रमुख राजनीतिक दल भाजपा की नीतियों से सहमत नहीं हैं। कांग्रेस नेता राहुल गांधी तो विदेश जाकर ऐसा आरोप लगाते हैं कि भाजपा ने पूरे देश में मिट्टी का तेल छिड़क दिया है, बस केवल एक माचिस की जरूरत है।
ऐसी बातें केवल डायलॉग नहीं होती बल्कि एक काल्पनिक परिस्थितियों का विचार देती हैं। भाजपा से लड़ाई को देश की लड़ाई बनने से रोकना होगा। भाजपा का विरोध राजनीतिक दलों का दायित्व हो सकता है लेकिन यह विरोध देश के विरुद्ध तब्दील होता जाए तो चिंता होना स्वाभाविक है।
न्यूज चैनल्स अगर डिबेट की वैधानिक जिम्मेदारी नहीं लेते तो ऐसी डिबेट का क्या औचित्य है? जहरीली होती डिबेट्स पर सुप्रीम कोर्ट तक चिंता जाता चुका है। इसलिए जरूरी है कि सम्बंधित सरकारी तंत्र और न्यूज़ चैनल्स की नियंत्रक संस्थाएं सजग रह अपनी जिमेदारी को समझे,अन्यथा परिस्थिति और भी विपरीत होने की आशंका है। यह याद रखना चाहिए कि हम सबका धर्म न्यूज़ चैनल्स नहीं बल्कि देश की टीआरपी बढ़ाना है।