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विचाराधीन कैदी मत नहीं दे सकता, चुनाव लड सकता है

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Fri , 08 Dec

सार

कहने को हरेक राजनीतिक पार्टी अपराधीकरण पर चिंता जाहिर करती है और इसे रोकने के दावे करती है, लेकिन जब चुनाव में टिकट बांटने का वक्त आता है, तब दागी छवि वाले प्रत्याशियों पर भरोसा किया जाता है।

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विस्तार


विचाराधीन कैदी मत नहीं दे सकता, चुनाव लड सकता है

भारत में राजनीति और अपराध की सांठ-गांठ का खुला चेहरा सामने है | १० फरवरी को उत्तर प्रदेश में होने वाले मतदान में किस्मत अजमा रहे उम्मीदवारों में से २५ प्रतिशत दागी हैं | अनेक निर्देशों को धता बताकर राजनीतिक दलों ने इन्हें टिकट ही नहीं दिया है, बल्कि जेल में बंद उन विचाराधीन कैदियों का मजाक भी उड़ाया है , जो अब तक दोषी सिद्ध नहीं हुए |इन कैदियों को मतदान का अधिकार नहीं है, पर ऐसे ही आरोपों से सने उम्मीदवारों को राजनीतिक दलों ने उम्मीदवार महज इसलिए बनाया है कि उन्हें दोषी करार नहीं दिया गया है |

‘एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स’ यानी एडीआर की ताजा रिपोर्ट सामने है। एडीआर की यह अध्ययन रिपोर्ट कहती है१० फरवरी को उत्तर प्रदेश की जिन५८ विधानसभा सीटों पर मत डाले जाएंगे, वहां से कुल६२३ प्रत्याशी अपनी किस्मत आजमा रहे हैं। इसमें से ६१५ उम्मीदवारों के बारे में एडीआर को सूचनाएं मिली हैं। इन ६१५ प्रत्याशियों में से१५६ , मतलब २५ प्रतिशत उम्मीदवार दागी हैं। १२१ पर तो गंभीर आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं, जिनमें दोषसिद्ध होने पर पांच साल या इससे भी अधिक की सजा वाले गैर-जमानती जुर्म शामिल हैं। जैसे, हत्या-अपहरण-बलात्कार आदि-आदि |

कहने को हरेक राजनीतिक पार्टी अपराधीकरण पर चिंता जाहिर करती है और इसे रोकने के दावे करती है, लेकिन जब चुनाव में टिकट बांटने का वक्त आता है, तब दागी छवि वाले प्रत्याशियों पर भरोसा किया जाता है। जिससे चुनाव-दर-चुनाव ऐसे सांसदों-विधायकों की संख्या बढ़ती जा रही है, जिन पर आपराधिक मामले चल रहे होते हैं। उत्तर प्रदेश में ही २०१७ के विधानसभा चुनाव में जीतकर आए ४०२ विधायकों में से१४३ (३६ प्रतिशत) ने अपने चुनावी हलफनामे में खुद के ऊपर आपराधिक मामले चलने की बात कही, जबकि गंभीर आपराधिक मामलों का सामना करने वाले विधायकों की संख्या १०७ थी, यानी विधानसभा सदस्यों का २६ प्रतिशत। यह महज एक राज्य का मसला नहीं है।

एडीआर की ही रिपोर्ट बताती है कि संसद के निचले सदन में दागी छवि वाले सांसदों की मौजूदगी हर चुनाव में बढ़ रही है। मौजूदा लोकसभा के लिए २०१९ में जीतने वाले५३९ सांसदों में से २३३ , अर्थात ४३ प्रतिशत सदस्यों ने खुद पर आपराधिक मामले होने की जानकारी दी है, जबकि२०१४ के लोकसभा चुनाव में ५४२ विजेताओं में से १८५ दागी चुनकर आए थे। २००९ के लोकसभा चुनाव में यह आंकड़ा३० प्रतिशत था। २००९ से २०१९ तक आपराधिक छवि वाले सदस्यों की लोकसभा में मौजूदगी ४४ प्रतिशत बढ़ गई थी। इसी तरह, गंभीर आपराधिक मामलों में मुकदमों का सामना करने वाले सांसदों की संख्या २००९ में७६ , २०१४ में ११२ और २०१९ में १५९ थी, मतलब इसमें १०९ प्रतिशत की वृद्धि देखी आई ।

हर चुनाव में आपराधिक छवि वाले उम्मीदवारों की जीत का ग्राफ ऊपर चढ़ रहा है, इसलिए राजनीतिक दल भी मानो अब यह मान चले हैं कि दागी छवि जीत की गारंटी है। वैसे भी, चुनावों में हर हाल में जीत हासिल करना ही राजनीतिक पार्टियों का उद्देश्य होता है। इसके लिए वे हर वह तरीका अपनाने को तैयार रहते हैं, जिनसे उनकी मौजदूगी सदन में हो।

कुछ जन-प्रतिनिधि यह तर्क देते हैं कि राजनीति से प्रेरित मुकदमे उनके ऊपर लादे गए हैं|इसके विपरीत चुनाव आयोग और अदालत, दोनों का यह मानना रहा है कि जिन उम्मीदवारों के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं, उनको तो चुनाव लड़ने से रोका जाना चाहिए। चुनाव आयोग ने तो इसके लिए तीन मापदंड बनाए हैं- मुकदमा अगर साल भर से ज्यादा पुराना हो, उम्मीदवार पर पांच साल या उससे अधिक वर्ष की सजा वाले अपराध के आरोप हों और तीसरा, निचली अदालत में चार्जशीट पेश कर दी गई हो और कोर्ट ने उसे स्वीकार कर लिया हो। आयोग का मानना है कि इस तरह के उम्मीदवारों को चुनाव में टिकट नहीं मिलने चाहिए। मगर मुश्किल यह है कि राजनीतिक दल इन सिफारिशों को अपनाने को तैयार नहीं दिखते।

भारत की जेलों में चार से सवा चार लाख कैदी बंद हैं, जिनमें से २.७१ लाख के करीब विचाराधीन हैं। अदालत में उन पर मामले चल रहे हैं और वे अभी तक दोषी साबित नहीं हुए हैं, यानी निर्दोष हैं। ऐसे ‘निर्दोष’ लोगों के हमने कई मूल अधिकार छीन रखे हैं, जैसे कोई भी जीविकोपार्जन या व्यवसाय करने की आजादी का अधिकार, स्वतंत्र आवाजाही का अधिकार, सम्मानपूर्वक जीने का अधिकार आदि। उनको तो मत देने का भी अधिकार नहीं होता। जब कानूनी दायरे में इन २.७१ लाख विचाराधीन कैदियों के कई अधिकार छीन लिए गए हैं, तब दागी छवि वाले उम्मीदवारों को कुछ दिनों तक चुनाव लड़ने से रोक देने में भला क्या दिक्कत है?