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जब बना तब युवाओं को मौके, अब 76 पर पहुंचे

सार

मध्यप्रदेश का स्थापना दिवस चुनाव के चलते सबसे ज्यादा प्रभावित दिख रहा है. आचार संहिता ना होती तो राज्य का स्थापना दिवस दिव्य और भव्य तरीके से मनाया जा रहा होता. चुनावी सालों को छोड़कर हर साल राज्य का स्थापना दिवस आत्मबोध के गौरव को स्थापित करने के नए-नए प्रयास करता रहा है. चुनावी आचार संहिता के कारण शासकीय कार्यक्रम तो औपचारिक ही रहा है लेकिन मध्यप्रदेश के भाव और स्वभाव से ‘जय मध्यप्रदेश’ का गौरव गान फिजाओं में गूंज रहा है.

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विस्तार

मध्यप्रदेश अगले पांच साल के लिए अपना राजनीतिक भविष्य तय करने जा रहा है. मध्यप्रदेश आगे तो बढ़ा है लेकिन इस राज्य के भाग्य का ‘टेक-ऑफ’ अभी होना बाकी है. राज्य के विकास में जन भागीदारी और राज्य सरकारों की भूमिका बराबरी से महत्व रखती है. सरकारी व्यवस्थाएं विकास के पर्यावरण को मजबूत कर सकती हैं तो इसे प्रदूषित करने की जिम्मेदारी भी इसी पर आएगी.

राजनीतिक नेतृत्व किसी भी राज्य की दिशा को सही मार्ग और मंजिल की ओर मोड़ता है. पॉलीटिकल लीडरशिप राज्य में गेमचेंजर ही होती है. मध्यप्रदेश में सामान्यतः राजनीतिक स्थायित्व रहा है. राजनीतिक दलों में तोड़फोड़ और बगावत के कारण कई बार परिस्थितियों में बदलाव आया है लेकिन थोड़े अंतराल के बाद फिर राज्य की राजनीतिक स्थितियों ने स्थायित्व स्वरूप ही प्राप्त कर लिया.

मध्यप्रदेश का निर्माण चार प्रांतों को मिलाकर किया गया था. यहां जाति-संप्रदाय, भाषा और रहन-सहन के हिसाब से विविधता में एकता का अनुपम उदाहरण रहा है. शांतिप्रिय और सहनशील मध्यप्रदेश में सियासी कट्टरता नहीं रही है. दूसरे राज्य से आए नेता भी इस राज्य में मुख्यमंत्री बने हैं. जो राजनीतिक विकृतियां उत्तर भारत के कई राज्यों में काफी पहले पहुंच गई थीं. उनको मध्यप्रदेश में पहुंचने में काफी समय लगा है. अब तो जाति-संप्रदाय, भाषा और बोली पर विभाजन की सियासत आम हो गई है.

अब मध्यप्रदेश भी तुष्टिकरण का केंद्र बन गया है. शिक्षा-स्वास्थ्य और रोजगार के लिए मध्यप्रदेश के राजनीतिक नेतृत्व को नए सिरे से फ्रेश विचारों पर आगे बढ़ने की जरूरत है. सियासी फ्रेशनेस हमेशा राज्य के लिए कल्याणकारी रही है. मध्यप्रदेश का राजनीतिक इतिहास यही बताता है कि यहां सरकारों का राजनीतिक नेतृत्व युवाओं के हाथ में रहा है. राज्य के गठन के बाद अगर बतौर मुख्यमंत्री लंबे कार्यकाल की बात की जाये तो श्यामा चरण शुक्ल पहले मुख्यमंत्री थे जिन्होंने 1969 में 44 साल की उम्र में यह पद संभाला था. उनके नेतृत्व में राज्य में सिंचाई और अधोसंरचना के क्षेत्र में जो अभूतपूर्व काम हुए थे, उनका आज राज्य को भरपूर लाभ मिल रहा है.

इसके बाद अर्जुन सिंह ऐसे मुख्यमंत्री थे, जिन्होंने 50 साल की उम्र में पहली बार मुख्यमंत्री का पद ग्रहण किया था. राजनीतिक चढ़ाव की इस अवस्था में विचारों में नयापन और इक्जीक्यूशन की भरपूर क्षमता होती है. कांग्रेस की ओर से लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहने वाले तीसरे नेता दिग्विजय सिंह रहे हैं. उन्होंने 46 साल की उम्र में मुख्यमंत्री का पद संभाला था. वह दौर राजनीतिक अस्थिरता के साथ केंद्र और राज्य में अलग-अलग सरकारों का दौर था. राज्य के विकास की दिशा में बिजली-पानी सड़क की व्यवस्थाएं पटरी से उतर गई थीं. 

दिग्विजय सरकार के दौर की कई अभिनव नीतियां जो बाद में सफलता के साथ लागू हुई लेकिन उसका लाभ कांग्रेस की सरकार नहीं उठा सकी थी. चाहे सड़कों के निर्माण में बीओटी की योजना हो या पंचायत राज का विकास में योगदान हो, इनकी आधारशिला भले ही दिग्विजय सरकार में रखी गई हों लेकिन इससे बदलाव दूसरी सरकारों ने ही किया है.

मध्यप्रदेश के 68 साल में अधिकांश समय तो कांग्रेस की ही सरकार रही है. साल 2003 के बाद मध्यप्रदेश की राजनीतिक सत्ता पर बीजेपी ने अपना जो कब्जा जमाया है वह कांग्रेस के लिए अब मुसीबत बनता जा रहा है. उमा भारती भी युवा चेहरे के रूप में सरकार में बदलाव लाने में सफल हुई थीं. वर्तमान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जब पहली बार मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे तब उनकी उम्र 46 साल थी. ऐसे में 15 महीने के लिए बने कांग्रेस के मुख्यमंत्री कमलनाथ राज्य में सबसे उम्रदराज मुख्यमंत्री कहे जा सकते हैं. इस चुनाव में उन्हें ही कांग्रेस द्वारा सीएम फेस बनाया गया है. 

जब मध्यप्रदेश बना था तब के दौर में राजनीतिक दलों द्वारा नेतृत्व युवाओं को सौंपने की रणनीति पर काम होता रहा और अब जब राज्य 68 साल का हो गया है तब नेतृत्व के लिए 76 साल के नेता पर दांव लगाया गया है. यह स्थिति भी तब है जब मध्यप्रदेश में युवाओं की आबादी लगभग एक तिहाई है. देश के युवाओं के हिसाब से मध्यप्रदेश का स्थान नवें नंबर पर आता है.

विधानसभा के इस चुनाव में 22 लाख नए मतदाता नामांकित हुए हैं. इन नए मतदाताओं की भूमिका ही राज्य के नए राजनीतिक भाग्य विधाता का निर्धारण करेगी. युवाओं को कम से कम विचारों में नयापन तो चाहिए ही. थकी-मांदी सियासत युवाओं को प्रभावित नहीं कर सकती. चुनाव में दोनों दलों की ओर से मध्यप्रदेश के भविष्य के सपने बेचे जा रहे हैं. सपनों के सौदागरों को ऐतिहासिक हकीकत और हाल से भी जनता को रूबरू कराना चाहिए.

बिजली-पानी सड़क के मामले में आज भी मध्यप्रदेश आत्मनिर्भर नहीं है. स्थितियां सुधरी होंगी लेकिन इन क्षेत्रों में हुई प्रगति अभी बहुत पीछे है. औद्योगीकरण के मामले में तो मध्यप्रदेश कभी खड़ा ही नहीं हो पाया है. एक दूसरे को इसके लिए जिम्मेदार बताने से काम नहीं चलेगा. मध्यप्रदेश की पॉलीटिकल लीडरशिप में शायद राज्य के विकास के विजन का अभाव है. अब तो पूरी राजनीति मुफ्तखोरी की योजनाओं से जनादेश हथियाने की तरफ मुड़ गई है. अगर यही दिशा सफल होती रही तो फिर अधोसंरचना के मामले में तो मध्यप्रदेश हमेशा पीछे ही बना रहेगा. जब आर्थिक क्षमता ही नहीं रहेगी तो फिर इस दिशा में आगे कैसे बढ़ा जा सकेगा?

हर नागरिक में ‘मध्यप्रदेशी’ का बोध पैदा करने की कोशिशों के बावजूद राज्य का कोई एक सूत्र सभी को जोड़ नहीं सका है. सरकारी प्रयासों से बने मध्यप्रदेश गान को राज्य के ‘जनमन का गान’ बनाने की जरूरत है.

पॉलिटिकल फ्रेशनेस ही मध्यप्रदेश का गेम चेंजर हो सकती है. बुजुर्गों का सम्मान मध्यप्रदेश की विरासत है लेकिन विकास की विरासत का आधार युवा सोच ही रही है. बदलाव का नेतृत्व युवा सोच से ही संभव है. मध्यप्रदेश के इस विधानसभा चुनाव में पहली बार मताधिकार का उपयोग करने वाले युवा मतदाता मध्यप्रदेश के ‘सुख का दाता सबके साथी’ के भाव को चरितार्थ कर सकेंगे.