पिछले वित्त वर्ष में 1.35 के मुकाबले 2018-19 में यह 1.28 प्रतिशत रही। प्रश्न यह है कि आर्थिक उन्नति के दावों के बावजूद हमारा स्वास्थ्य बजट क्यों नहीं बढ़ रहा है..!
प्रतिदिन-राकेश दुबे
16/09/2022
एक तरफ देश की सरकार आर्थिक उन्नति के दावे करती नहीं थक रही है, वहीँ देश के सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के रूप में स्वास्थ्य बजट में गिरावट आ रही है, यह किसी कल्याणकारी राज्य के लिए शुभ नहीं है । याद कीजिये कोरोना दुष्काल के दौर ने केंद्र व राज्य सरकारों को स्वास्थ्य बजट बढ़ाने को बाध्य किया, लेकिन इस बजट में बढती आबादी के अनुपात में निरंतर वृद्धि जरूरी थी और जरूरी है, तभी आम आदमी को राहत मिलेगी।
नेशनल हेल्थ अकाउंट के जो नवीनतम आंकडे उपलब्ध है, वे इस विषय का जो पक्ष उजागर करते हैं वो इस मद में लगातार वृद्धि का है | वर्ष 2004-05 से जीडीपी के अनुपात में स्वास्थ्य बजट में जो लगातार वृद्धि जारी थी, वह वर्ष 2018-19 में गिरावट दर्ज करती है। पिछले वित्त वर्ष में 1.35 के मुकाबले 2018-19 में यह 1.28 प्रतिशत रही। प्रश्न यह है कि आर्थिक उन्नति के दावों के बावजूद हमारा स्वास्थ्य बजट क्यों नहीं बढ़ रहा है?
कोविड दुष्काल ने केंद्र व राज्य सरकारों को इस बात का अहसास कराया कि पर्याप्त बजट न होने के चलते इस दुष्काल के दौरान देश ने बड़ी कीमत चुकाई है। इसी कारण इस काल को स्वास्थ्य आपातकाल मानते हुए केंद्र व राज्य सरकारों ने सेहत की प्राथमिकताओं के चलते अपने बजट को बढ़ाया। इससे सबक लेकर हमें जीडीपी के मुकाबले स्वास्थ्य बजट में लगातार वृद्धि करनी चाहिए।
यहां फिर प्रश्न यह है कि जब वर्ष 2017 की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में 2025 तक जीडीपी के अनुपात में स्वास्थ्य बजट .5 प्रतिशत करने का लक्ष्य रखा था तो फिर इस दिशा में ईमानदार प्रयासों में निरंतरता क्यों नहीं नजर आती है? इसे देश की तरक्की के अनुपात में स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में भी विस्तार किया जाना चाहिए। देशवासियों की बेहतर सेहत भी आर्थिक प्रगति का ही सूचक है। वैसे हाल में जारी आंकड़ों का सकारात्मक पक्ष यह भी है कि भारतीयों द्वारा स्वास्थ्य की देखभाल पर जेब से किये जाने वाले खर्च में गिरावट दर्ज की गई है।
सरकारों को करदाताओं से अर्जित आय को विवेकशील ढंग से खर्च करके स्वास्थ्य सेवा से जुड़ी जरूरतों को प्राथमिकता देनी चाहिए । इसमें दो राय नहीं कि चिकित्सा सुविधाओं का विस्तार शहरों तक ही केंद्रित नहीं होना चाहिए। यदि शहरों में बड़े अस्पताल बनते हैं तो ग्रामीणों को यातायात व रहने-खाने पर अधिक खर्च करना पड़ता है, जिससे उनका स्वास्थ्य पर होने वाला खर्च बढ़ जाता है। बेहतर सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएं हर नागरिक का अधिकार है। सरकारें सुनिश्चित करें कि ग्रामीणों को निकट के कस्बों व शहरों में गुणवत्ता का उपचार मिल सके। जिससे वे फर्जी डॉक्टरों व नीम-हकीमों के चंगुल से मुक्त हो सकेंगे। यह बात शिद्दत से महसूस की जाती रही है कि ग्रामों व छोटे शहरों में भी विशेषज्ञता का उपचार उपलब्ध हो। जब सरकारें चिकित्सा सेवाओं पर पर्याप्त धन खर्च करती हैं तो मरीजों व उनके तीमारदारों की जेब पर खर्च का दबाव कम होता है।
वैसे , स्वास्थ्य सेवाएं राज्य सूची में शामिल होती हैं लेकिन केंद्र सरकार के बजट व पारदर्शी नीतियों से राज्यों की चिकित्सा गुणवत्ता में सुधार होता है। केंद्र की नीतियां बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं के अनुकूल माहौल बना सकती हैं। कोरोना दुष्काल में केंद्र की प्रभावी नीतियों से बेहतर टीकाकरण के लक्ष्य हासिल भी हुए। निस्संदेह, किसी भी लोक कल्याणकारी राज्य की सफलता बेहतर शिक्षा व चिकित्सा सेवाओं पर निर्भर करती है। कोरोना दुष्काल में निजी अस्पतालों ने मरीजों को जिस तरह उलटे उस्तरे से मूंडा, उसको देखते हुए सरकारी चिकित्सा सेवा की जरूरत का बोध होता है।
निजी अस्पतालों का विस्तार हो और उसमें निजी निवेश को बढ़ावा मिले, लेकिन संतुलन के लिये बेहतर सरकारी चिकित्सा सेवाओं का होना भी जरूरी है। केंद्र सरकार को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जीडीपी के तीन फीसदी के स्वास्थ्य सेवा पर खर्च के पैमाने के लक्ष्य को हकीकत बनाने के लिये प्रयास करने चाहिए।