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हिंदुत्व का प्रतीक क्यों, नफरत की राजनीति?

सार

सनातनी आस्थावान भारतीय होने के नाते सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी से मन को सुकून मिला कि हिंदुत्व में कहीं भी कट्टरता नहीं है. सनातन हिंदुत्व की मुखरता को कट्टरता क्यों समझा जाना चाहिए? जब हिंदुत्व और हिंदू कट्टर ही नहीं तो फिर हिंदुस्तान को कट्टर क्यों कहा जाने लगा है?

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विस्तार

सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक शहरों के नाम बदलने के लिए आयोग बनाने की याचिका को खारिज करते हुए याचिकाकर्ता पर यह टिप्पणी की कि ‘यह मुद्दे जिंदा रखकर आप चाहते हैं कि देश उबलता रहे’. न्यायाधीश महोदय की यह टिप्पणी भी बहुत प्रगतिशील है कि कोई देश अतीत का गुलाम नहीं रह सकता, हमें आगे बढ़ना है. आक्रांताओं के इतिहास को खोदकर वर्तमान और भविष्य के सामने हम नहीं रख सकते. इतिहास मौजूदा और भावी पीढ़ी को डराने वाला नहीं होना चाहिए. 

न्यायाधीश ने अपने फैसले में यह भी कहा कि धर्म का सड़कों के नाम से लेना देना नहीं है. याचिकाकर्ता उन बातों को फिर से शुरू करना चाहते हैं जिन्हें दबाना या भुला देना उचित है. विद्वान न्यायाधीश का कहना है कि अतीत को ऐसा मत कुरेदिए जो अशांति पैदा करे. 

सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी हिंदुत्व का मान बढ़ाने वाली है और समाज में कट्टरता को हतोत्साहित करने की मंशा से प्रेरित लगती है. इतिहास पर भले ही वर्तमान पूरी तरह से खड़ा ना हो लेकिन इतिहास को पूरी तरह से कैसे भुलाया जा सकता है? भारत का अतीत, सनातन की स्मृतियों से कैसे हटाया जा सकता है? भारतीय संस्कृति और आस्था को पहुंचाए गए नुकसान को बदलने के प्रयासों का कट्टर विरोध, क्या इस बात का प्रतीक नहीं है कि विरोध करने वाले भी इतिहास की गुलामी से अपने को जोड़े हुए हैं?

हिंदुत्व की बात भी भारत में सामाजिक कारणों से नहीं राजनीतिक कारणों से शुरू हुई है. सर्वोच्च अदालत ने ही भारतीय संस्कृति के मर्यादा पुरुष भगवान राम के जन्म स्थान अयोध्या में मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया है. हिंदुओं में अगर मुखरता नहीं आती तो क्या भगवान राम का मंदिर सद्भावना से बनने दिया जाता? आक्रांताओं के कृत्यों से कोई भी भारतीय अपने को जोड़कर कैसे भारतीय संस्कृति और सनातन परंपरा का विरोध कर सकता है?

नफरत की राजनीति को आज हिंदुत्व के प्रतीक के रूप में क्यों देखा जा रहा है? यह बात सही है कि हिंदुत्व में अपनी परंपरा संस्कृति और आस्था के प्रति मुखरता बढ़ी है. यही मुखरता लोगों को अखर रही है. जहां तक धर्म की धारणा है वह जीवन का विज्ञान है. इसके लिए अलग-अलग आस्था हो सकती है लेकिन पहले जीवन बाद में धर्म. व्यक्ति का ही नहीं राज्य और राष्ट्र का भी जीवन और धर्म होता है.

सनातन हिंदुत्व की आस्था और परंपरा के धर्म स्थलों पर विवाद क्या इस डर से छोड़ दिए जाने चाहिए कि हिंदुत्व पर मुखर होने से कट्टरता का एहसास होगा? किसी भी जीवन का कोई मूल्य नहीं है जब तक कि उसे अपनी जन्मभूमि, संस्कृति और गौरव पुरुषों के प्रति आस्थावान न हो. हिंदुओं के मंदिरों को लेकर जो भी विवाद न्यायालयों में चल रहे हैं, उन पर क्या ऐतिहासिक भूलों को सुधारने की सद्भावना दिखाना क्या उदारता का परिचय नहीं होगा?

सामाजिक स्तर पर धार्मिक सहिष्णुता और विभिन्न समुदायों के बीच अस्तित्व के साथ जीवनयापन भारत को दुनिया में सर्वोच्च स्थान दिलाता है. इस देश में हिंदू और मुस्लिमों की अगर बात की जाए तो सनातन और हिंदुओं की बहुलता वाले इस देश में मुस्लिम आबादी भी कम नहीं है. दुनिया के मुस्लिम राष्ट्रों में जिस तरह के हालात बने हुए हैं, उसके ठीक विपरीत भारत में हिंदू-मुसलमान बराबरी के साथ देश की तरक्की में भागीदार हैं.

भारत माँ के नयन दो,
हिन्दू-मुस्लिम जान
नहीं एक के बिना हो 
दूजे की पहचान 

धार्मिक- विवाद और विभाजन की परिस्थितियां राजनीतिक कारणों से ज्यादा बनती हुई दिखाई पड़ती हैं. क्षेत्र, भाषा और जाति के आधार पर विभाजन की स्थितियां क्या देश में आज चिंताजनक नहीं हैं? पंजाब आज क्या धर्म के कारण जल रहा है? खालिस्तान की बात पर बढ़ रही उग्रता क्या इसलिए बर्दाश्त की जानी चाहिए कि अतीत को भूलकर आगे बढ़ना है? अतीत और भविष्य होता ही नहीं है, होता केवल वर्तमान है. हमें धर्म, राजनीति, विकास, सामाजिक सद्भाव, सामाजिक न्याय, सांस्कृतिक जागरण जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर वर्तमान के आधार पर फैसले करने होंगे.

वर्तमान अतीत से निकला है और भविष्य वर्तमान से ही पैदा होगा. चाहे हिंदू हो चाहे इस्लाम हो या दूसरा कोई धर्म, उसे अतीत की मानसिकता से निकलकर वर्तमान की जरूरत के हिसाब से आगे बढ़ना होगा. राजनीति में तो पक्ष-विपक्ष होता है. पक्ष कोई भी काम करेगा, चाहे वह भले ही बहुत अच्छा हो लेकिन विपक्ष द्वारा उसका विरोध करना लाजमी है.

देश में ऐसे कितने मुद्दे हैं जिनके कारण देश बंटा हुआ दिखाई पड़ता है. सीएए और नागरिकता कानून को स्वीकार करने पर देश में आम सहमति नहीं होना किस बात का संकेत है? वह कैसी परिस्थितियां हैं जो नागरिकता रजिस्टर का विरोध कर रही हैं? भारत दुनिया का अकेला राष्ट्र है जिसका अपना कोई नागरिकता रजिस्टर नहीं है. अगर भारत इसी तरीके से राजनीतिक लाभ हानि के चक्कर में दूसरे देशों की जनसंख्या को देश में स्वीकार करता रहा तो भारत के सनातन स्वरूप का ढांचा क्या बहुत लंबे समय तक बना रह सकता है?

देश की समस्याओं के लिए किसी एक को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता. क्रिया होगी तो उसकी प्रतिक्रिया रोकी नहीं जा सकती. भारत की राजनीति में हिंदुत्व का जो काल आज आया है वह लंबी एक पक्षीय तुष्टिकरण की क्रियाओं का प्रतिफल ज्यादा कहा जा सकता है. जो भी बुद्धिजीवी हैं उन सभी की जिम्मेदारी है कि किसी भी समुदाय को ना छोटा ना बड़ा साबित करने की कोशिश की जाए. किसी को भी दोषी या किसी को कमजोर न बताने का प्रयास किया जाए. राष्ट्र और जीवन को अलग नहीं किया जा सकता. इसलिए राष्ट्र के प्रति जिम्मेदारियों को निभाना हर नागरिक का कर्तव्य है.
 
हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई से पहले इंसान भारत को महान राष्ट्र बनाएगा. मरणधर्मा इंसान को मिट जाना है.

रुका नहीं कोई यहां नामी हो कि अनाम, 
कोई जाए सुबह को कोई जाए शाम.

सनातन हिंदुत्व, इस्लाम और दूसरे धर्म से ज्यादा राजनीति की समस्या है. 

राजनीति के खेल ये समझ सका है कौन,
बहरों को भी बंट रहे अब मोबाइल फोन।