चुनाव का मौसम आया कि कट्टर ईमानदार और कट्टर बेईमान के बादल गरजने-बरसने लगते हैं। चुनाव की घोषणा के साथ ही मतदान के पहले तक राजनीतिक दलों में भ्रष्टाचार को लेकर एक दूसरे पर लगाए गए आरोप हार जीत के बाद बहुत मायने नहीं रखते हैं। चुनाव में कोई जीतता है तो कोई हारता है लेकिन भ्रष्टाचार कभी भी हारता दिखाई नहीं पड़ता।
यूपीए सरकार के भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन की अगुवाई अन्ना हजारे ने की थी। उसी आंदोलन से निकले अरविंद केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी बनाई और दिल्ली और पंजाब में सत्ता पर काबिज हैं। कट्टर ईमानदार होने का उनका दावा राजनीति का भुलावा ही साबित हो रहा है। बीजेपी और आप के बीच भ्रष्टाचार पर तकरार का हिसाब लगाना कठिन हो रहा है।
राजनीति में भ्रष्टाचार का तो अब ऐसा हाल हो गया है जैसे वायु प्रदूषण का दिल्ली में। यहाँ रहने वाले सभी दलों के नेता एक ही पानी पी रहे हैं, एक ही हवा में सांस ले रहे हैं। जब हवा ही प्रदूषित हो गई है तो फिर कोई भी उस प्रदूषण से कैसे बच सकेगा? ऐसी ही स्थिति राजनीतिक भ्रष्टाचार की बन गई है। क्या कभी भी राजनीतिक भ्रष्टाचार समाप्त हो सकता है? क्या सिस्टम में भ्रष्टाचार रोकने में राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी दिखाई पड़ती है? नैतिकता और सदाचरण जैसे शब्द क्या राजनीतिक शब्दावली से लुप्त होते जा रहे हैं।
हिमाचल और गुजरात में विधानसभा चुनाव में भ्रष्टाचार के आरोपों की झड़ी लगी हुई है। विरोधी दल सरकारों के खिलाफ आरोप पत्रों का जखीरा निकाल रहे हैं। राजनीति में भ्रष्टाचार पर आरोप-प्रत्यारोप का क्या कोई मतलब वास्तव में बचा हुआ है? देश में भ्रष्टाचार के कई ऐसे मामले चर्चा में आए हैं जिन पर विचार करने पर ऐसा प्रतीत होने लगता है कि शायद भ्रष्टाचार की गुंजाइश ना हो तो लोग राजनीति में आने से ही कतराने लगेंगे।
झारखंड राज्य के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन माइनिंग लीज़ के मामले में ऑफिस आफ प्रॉफिट के दोषी पाए गए हैं। चुनाव आयोग द्वारा उनकी विधानसभा की सदस्यता रद्द करने की अनुशंसा की गई है। महीनों पहले की गई अनुशंसा अभी भी राज्यपाल के पास विचाराधीन है। भ्रष्टाचार के मामलों में इस तरह की कार्यवाही जो तुरंत की जानी चाहिए उसमें इतने विलंब को किस दृष्टि से देखा जाए?
तेलंगाना में टीआरएस द्वारा विधायकों की खरीद-फरोख्त का आरोप लगाया गया है। इस पर पुलिस कार्यवाही भी प्रारंभ हुई है लेकिन यह सब केवल आरोप तक ही सीमित रह जाता है। इसका सच कभी भी प्रमाणिक ढंग से सामने नहीं आता है। झारखंड के कांग्रेस के तीन विधायक पश्चिम बंगाल में लाखों रुपए के साथ गिरफ्तार हुए थे। इस गिरफ्तारी को भी राजनीतिक रंग देखकर झारखंड में सरकार को अस्थिर करने की रणनीति के रूप में आरोपित किया गया था लेकिन इसकी भी सच्चाई दबा दी गई थी।
महाराष्ट्र में शिवसेना में बगावत के बाद एकनाथ शिंदे ने बीजेपी के साथ मिलकर सरकार का गठन कर लिया। असली शिवसेना की लड़ाई अभी चुनाव आयोग में चल रही है। शिवसेना उद्धव ठाकरे ग्रुप की ओर से विधायकों के पाला बदल को खरीद-फरोख्त के रूप में आरोपित किया गया है। इसकी सच्चाई भी पब्लिक के सामने आना अभी बाकी है। केजरीवाल ने तो दिल्ली में भ्रष्टाचार के आरोपों को ही राजनीतिक हथियार के रूप में उपयोग करना शुरू कर दिया है। केजरीवाल के मंत्री सत्येंद्र जैन अभी भी जेल में है लेकिन उन्हें मंत्री पद से नहीं हटाया गया है। उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया को शराब घोटाले में जांच एजेंसी सीबीआई द्वारा जब पूछताछ के लिए बुलाया गया था तब उन्होंने तिरंगे के साथ शहीदी अंदाज में खुद को पेश किया था।
कांग्रेस पार्टी के सर्वेसर्वा गांधी परिवार पर तो नेशनल हेराल्ड मामले में ईडी की जांच जारी है। सोनिया गांधी और राहुल गांधी को जब पूछताछ के लिए बुलाया गया था तब कांग्रेस ने इसे जन आंदोलन के रूप में भुनाने की कोशिश की थी। भ्रष्टाचार के अधिकांश मामले चुनाव के आसपास ही उभर कर सामने आते हैं। इसका रहस्य समझना भी थोड़ा कठिन है।
राजनीतिक भ्रष्टाचार आज वास्तविकता बन गया है। इसे दलीय सीमाओं में बांधना कठिन है। सत्ता की राजनीति और चुनाव की प्रक्रिया को पार करने के लिए भ्रष्टाचार के अलावा कोई सहारा समझ नहीं आता है। चुनावी राज्यों में करोड़ों रुपए नगद पकड़े जाते हैं। चीफ इलेक्शन कमिश्नर ने पत्रकार वार्ता में बताया था कि पिछले चुनाव में हिमाचल प्रदेश में ₹10 करोड़ जब्त किए गए थे और इस चुनाव में अब तक ₹28 करोड़ जब्त किए जा चुके हैं। जांच एजेंसियों के छापों में अरबों रुपए नगद पकड़े जाते हैं।
8 नवंबर के दिन 6 साल पहले हुई नोटबंदी के बाद इस दौर को डिजिटल लेनदेन का युग कहा जाने लगा है। इस युग में इतनी बड़ी राशि कैसे एकत्र कर ली जाती है, इस पर भी सरकारों को शोध करने की जरूरत है।
भ्रष्टाचार राजनीति में भाषण का विषय जरूर बनता है लेकिन कार्य संचालन में इसको गंभीरता से नहीं लिया जाता है। भ्रष्टाचार को लेकर आम धारणा तो ऐसी बनती जा रही है कि बिना लेनदेन के कोई काम ही सिस्टम में संभव नहीं है। भ्रष्टाचार कभी चुनावी मुद्दा नहीं बन पाता। रक्षा घोटाले के नाम पर बोफोर्स जरूर चुनाव में मुद्दा बना था और लोगों ने उस समय सरकार को बदलने के लिए जनादेश दिया था। अब तो धीरे-धीरे राजनीतिक भ्रष्टाचार पर संवेदनशीलता ही शून्य होती जा रही है। भ्रष्टाचार के आरोप प्रत्यारोप केवल सुन लिए जाते हैं उन पर चिंतन-मनन और उसके आधार पर निर्णय की प्रवृत्ति समाप्त सी हो गई है।
द्वंदात्मक जीवन में लेने वाले को भी देना पड़ता है। कोई भी केवल लेना-लेना नहीं कर सकता। प्राकृतिक संतुलन के लिए लेना और देना दोनों जरूरी है। भ्रष्टाचार की बीमारी से कौन बचा होगा यह कहना मुश्किल है। राजनीतिक भ्रष्टाचार सिस्टम और गवर्नेंस के पर्यावरण को दूषित कर रहा है। अभी तो भले सांस लेना संभव हो रहा हो लेकिन अगर ऐसे ही चलता रहा तो वह वक्त दूर नहीं है जब भ्रष्टाचार का प्रदूषण पूरी हवा को ही दूषित बना देगा।
अभी वक्त है संभलने का, राजनीतिक प्रक्रियाओं को सुधारने का, चुनाव में खर्च को सीमित करने और भ्रष्टाचार की संभावनाओं को समाप्त करने का। देश के लिए इसे सुखद माना जा सकता है कि प्रधान सेवक के विरुद्ध करप्शन का कोई भी आरोप विपक्षी दल अब तक लगाने में सक्षम नहीं हो सके हैं।