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ये सांसद तो किसी की भी मानने को तैयार नहीं

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Thu , 27 Jul

सार

वर्तमान में देश और राज्यों में इस समय गठबंधन सरकार या मामूली बहुमत वाली सरकारों का दौर है।

janmat

विस्तार

जैसे हंगामे की आशंका थी संसद का सदन वैसा ही शुरू हुआ | भारी न्यायालयीन संरक्षण के बाद भी हंगामा करने और नियमों के पार जाने वाले सांसद तो देश के उच्चतम न्यायालय की सलाह तक मानने को तैयार नहीं दिख रहे हैं | सदन में व्यवधान पैदा करने या अशोभनीय आचरण के संदर्भ में उच्चतम न्यायालय ने बेहद तल्ख टिप्पणियां की उनको नजर अंदाज करना देश की प्रजातांत्रिक व्यवस्था में अविश्वास का द्योतक है | संसद का सत्र भी चल रहा है और हंगामे भी हो रहे हैं कोई किसी की बात सुनने समझने को तैयार नहीं है | ऐसे में उन्हें उच्च न्यायालय की ताजा टिप्पणियों का ध्यान जरुर रखना चाहिए |

माननीय सदस्यों , सदस्यों के लिए सदन की कार्यवाही में व्यवधान पैदा करने या व्यक्तिगत हमलों पर इसका समय बर्बाद करने से पहले उच्चतम न्यायालय की इन हालिया टिप्पणियों पर गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत है। न्यायालय ने कहा है कि सदन में सदस्यों से राजनेता की तरह आचरण करने और सदन की गरिमा बनाए रखने की अपेक्षा की जाती है। संसद और विधानमंडल पवित्र स्थान माने जाते हैं। इनमें किसी प्रकार के अमर्यादित आचरण के लिए कोई जगह नहीं है।

सदन की गरिमा के विपरीत आचरण करने वाले सदस्यों के निलंबन के संबंध में शीर्ष अदालत भी मानता है कि सत्र की शेष अवधि से अधिक का निलंबन करना और सदस्य की अनावश्यक अनुपस्थिति उसके बुनियादी लोकतांत्रिक मूल्यों का हनन होगा। ऐसी स्थिति में मामूली गठबंधन या मामूली बहुमत वाली सरकार को सदन में अलोकतांत्रिक तरीके से विपक्षी दलों की संख्या में बदलाव का मौका मिल सकता है। न्यायालय का कहना है कि इस तरह के निलंबन से सदन में संबंधित निर्वाचन क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व भी प्रभावित होता है। महाराष्ट्र में ऐसा ही कुछ हुआ था। यह आइना है जिसमें सांसद अपना अक्स देख सकते हैं|

सब जानते हैं , वर्तमान में देश और राज्यों में इस समय गठबंधन सरकार या मामूली बहुमत वाली सरकारों का दौर है। ऐसी स्थिति में हंगामा करने वाले सदस्यों को अगर चालू सत्र से ज्यादा समय के लिए निलंबित कर दिया जाए तो निश्चित ही सरकार को सदन में विपक्ष की संख्या कम करने में सफलता मिल सकती है। इसे किसी भी तरह से लोकतांत्रिक नहीं माना जा सकता है।

शीर्ष अदालत ने इसी आधार पर पिछले सप्ताह महाराष्ट्र विधानसभा से भाजपा के 12 सदस्यों का एक साल के लिए निलंबन रद्द किया और संसदीय कामकाज में व्यवधान व सदस्यों को नियंत्रित करने के संदर्भ में कुछ गंभीर टिप्पणियां की। न्यायालय की टिप्पणियां लोकतांत्रिक प्रक्रिया में विश्वास रखने वाले संवेदनशील व्यक्तियों को परेशान कर सकती हैं क्योंकि सदन हंगामा करके कामकाज को बाधित करने का नहीं बल्कि रचनात्मक कार्यों और जन-कल्याण योजनाओं पर चर्चा करने और उन्हें मूर्त रूप देने वाला पवित्र स्थान है। उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि न्याय के मंदिर के रूप में अदालत की तरह ही संसद और विधानसभा देश की जनता के लिए न्याय का प्रथम और पवित्र स्थान है, जिसकी गरिमा की रक्षा जरूरी है।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि वर्तमान समय में सदन में होने वाली घटनाएं और सदस्यों के आचरण मौजूदा सामाजिक ताने-बाने को ही दर्शाती हैं। शीर्ष अदालत ने भी भाजपा सदस्यों के निलंबन के मामले में इसी तरह के विचार व्यक्त किये हैं।

न्यायालय ने कहा कि अब अक्सर यह सुनने में आता है कि सदन अपना निर्धारित कामकाज नहीं पूरा कर सका। इसका अधिकांश समय रचनात्मक और ज्ञानवर्धक बहस की बजाय तंज कसने और व्यक्तिगत हमलों में बर्बाद हो गया। आम जनता में भी कुछ इसी तरह की धारणा बनती जा रही है और यह पर्यवेक्षकों के लिए निराशाजनक स्थिति है। यह भी कि संसद और विधानमंडल पवित्र स्थान हैं और इनमें आचरण मर्यादित रहे।

संसदीय लोकतंत्र में सदन के सदस्यों के हंगामेदार आचरण के संदर्भ में न्यायपालिका से क्या इससे इससे ज्यादा कठोर टिप्पणी की अपेक्षा की जाती है। शायद नहीं। यह समय है कि बजट सत्र के दौरान सत्तापक्ष और विपक्ष मौजूदा हालात पर गंभीरता से विचार करें और सदन में लोकतांत्रिक व्यवस्था के अनुरूप अपनी असहमतियों का प्रदर्शन करते हुए गरिमामय आचरण पेश करके जनता को आश्वस्त करें कि वे देश और समाज की समस्याओं के प्रति गंभीर हैं। न्यायालय ने तो यहाँ तक कहा है, ‘सदन का कामकाज सुचारु तरीके से सुनिश्चित करने के लिए ऐसे आचरण से सख्ती से निपटा जाना चाहिए। लेकिन सदस्यों के खिलाफ किसी भी तरह की कार्रवाई नियमों, संवैधानिक प्रावधानों और कानून की प्रतिपादित प्रक्रिया के अनुरूप होनी चाहिए।’ सांसद जब इस तरह के आचरण करेंगे तो देश में नीचे तक क्या संदेश जा रहा हैऔर इसके क्या परिणाम होंगे सोचिये ?