स्टोरी हाइलाइट्स
हमने कई बार इस बात पर चर्चा की है कि ईश्वर का कोई रूप नहीं होता, क्योंकि सारे रूप उसी के हैं। भक्त जिस भाव से उन्हें भजता है, वह उसी रूप मे..
क्या भक्त की भावना से भगवान साक्षात प्रकट होते हैं, जानिए भगवान लड्डूगोपाल के प्रकट होने का रहस्य.. दिनेश मालवीय
हमने कई बार इस बात पर चर्चा की है कि ईश्वर का कोई रूप नहीं होता, क्योंकि सारे रूप उसी के हैं। भक्त जिस भाव से उन्हें भजता है, वह उसी रूप मे उसके सामने आते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता मे भी कहा है कि जो मुझे जिस भाव से भजता है, मैं भी उसे उसी भाव से भजता हूँ। उन्होने यह भी कहा कि वह भक्तों द्वारा अर्पित पत्र- पुष्प और भोग को ग्रहण करते हैं। ईश्वर सगुण भी है और निर्गुण भी। उनके स्वरूप को लेकर आग्रह भले ही रहे, लेकिन दुराग्रह नहीं रखना चाहिये।
आज हम भगवान के बहुत ही मनमोहक स्वरूप और उसकी उत्पत्ति की सुंदर कथा बताने जा रहे हैं। वैसे तो सगुण उपासकों के मन को भगवान के सभी स्वरूप बहुत भाते हैं, लेकिन उनके श्रीकृष्ण स्वरूप के दीवाने तो करोड़ों की संख्या मे हैं। श्रीकृष्ण की लीलाओं मे भक्त सबसे अधिक आह्लादित होते हैं। श्रीकृष्ण परमानंद के मूर्तरूप हैं। उन्हें आनंदकंद कहा जाता है। सनातन धर्म के मानने वाले अधिकतर घरों मे छोटा सा मंदिर ज़रूर होता है। इन मंदिरों मे भगवान के अनेक विग्रहों के साथ ही श्रीलड्डूगोपाल का विग्रह भी होता है। भगवान के इस शिशु रूप की पूजा-अर्चना वात्सल्य भाव की भक्ति होती है।
सुबह लड्डूगोपाल को स्नान कर उनके वस्त्र बदले जाते हैं। भोजन बनने पर सबसे पहले उन्हें अर्पित कर पूरा परिवार भोजन को उनके प्रसाद के रूप मे ग्रहण करता है। दोपहर को उन्हें शयन कराया जाता है। शामको उन्हें जगाकर आरती-स्तुति की जाती है। रात को सुबह तक के लिये शयन कराया जाता है। इस भाव की भक्ति का आनंद कोई भी शब्दों मे व्यक्त नहीं कर सकता। आइये, हम बताते हैं कि भगवान लड्डूगोपाल रूप मे कैसे प्रकट हुये और उनका यह नाम कैसे पड़ा कैसे पड़ा।
प्राचीनकाल मे ब्रज भूमि मे कुंभनदास नाम के एक कृष्ण भक्त रहते थे। उनका रघुनन्दन नाम का एक बेटा था। कुम्भनदासजी के पास बांसुरी बजाते श्रीकृष्ण का एक विग्रह था। वह सदा भक्ति मे लीन रहते थे। नियम से भगवान की सेवा करते थे। उन्हें छोड़कर कहीं नहीं जाते थे। एक दिन उन्हें भागवत कथा करने के लिये वृंदावन आमंत्रित किया गया। उन्होंने भगवान की सेवा मे विघ्न आने की बात सोचकर जाने से मना कर दिया। लेकिन लोगों के बहुत आग्रह करने पर वह मान गये। उन्होने निर्णय किया कि कथा करने के बाद वह शाम को लौट आया करेंगे।
जाने से पहले उन्होंने भोग तैयार कर बेटे से कहा कि भगवान को समय पर भोग लगा दिया करना। उनके जाने के बाद बेटे रघुनन्दन ने भोग की थाली भगवान के सामने रख दी। उसने कहा कि प्रभु आप भोजन करें। उसको ऐसा लगता था कि जिस तरह सब लोग भोजन करते हैं, उसी तरह भगवान भी करते होंगे। उसने बार बार आग्रह किया, लेकिन भोजन थाली मे वैसा ही रखा रहा। बालक उदास हो गया। वह रो रो कर भगवान से भोग लगाने की विनती करने लगा। भगवान तो भाव के भूखे होते हैं। उसकी निश्छल भावना से द्रवित होकर भगवान ने बालरूप धारण कर लिया और भोजन करने बैठ गये। बालक के आनंद का ठिकाना नहीं रहा।
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रात को जब कुम्भनदासजी वापस लौटे तो उन्होंने बेटे से पूछा कि भगवान को भोग लगाया था कि नहीं। उसके हां कहने पर उन्होने प्रसाद मांगा। बेटे ने कहा कि प्रभु ने तो सारा भोजन कर लिया। प्रसाद के लिये कुछ नहीं बचा। पिता ने सोचा कि भूख लगने पर बेटे ने ही सारा भोजन कर लिया होगा। लेकिन हर दिन ही ऐसा होने लगा। तब कुम्भनदासजी को विश्वास हो गया कि बेटा रोज़ाना झूठ बोल रहा है। एक दिन कुम्भनदासजी ने लड्डू बनाकर भगवान के भोग के लिये थाली मे सजा दिये और छिपकर देखने लगे कि यह क्या माज़रा है। बेटे द्वारा आह्वान किये जाने पर भगवान बालरूप मे प्रकट हो गये और लड्डुओं का भोग ग्रहण करने लगे।
यह देखकर कुम्भनदासजी दौड़कर गये और प्रभु के चरणों मे लौट गये। उस समय भगवान के एक हाथ मे लड्डू थादूसरे हाथ से लड्डू मुंह मे जाने को था। ऐसी स्थिति मे ही उन्होने मूर्ति का रूप धारण कर लिया। इसके बाद से ही भगवान की लड्डूगोपाल के रूप मे पूजा होने लगी। उनके इस स्वरूप को लड्डूगोपाल कहा जाने लगा। इस कथा का भाव यह है कि भगवान सिर्फ़ भाव के भूखे हैं। प्रेम से पुकारो तो उनके प्रकट होने मे कोई संदेह नहीं। प्रेम से बोलिये, लड्डूगोपाल की जय।
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