स्टोरी हाइलाइट्स
साधना कितने प्रकार की होती है?क्या संकल्प की साधना (दक्षिणायन) नीचे के मार्ग पर ले जाती है और समर्पण की साधना( उत्तरायण) ऊपर के मार्ग पर ले जाती है?क्या है “अपरा”सिद्धियाँ ?
साधना कितने प्रकार की होती है?-
श्री कृष्ण शंकर व उमिया शंकर
11 तथ्य:-
साधना शब्द का प्रयोग देवी देवताओं को उपासना के लिए भी होता है, जिससे अभीष्ट महान् कार्य की सिद्धि होती है। देश, काल, क्रिया, वस्तु और कर्त्ता में पाँचों जब साधना के लिए उपयुक्त होते हैं तभी साधना सिद्ध होती है।साधना दो प्रकार की होती है दैवी और आसुरी।इन्हीं को शास्त्र में दक्षिण और वाम मार्ग कहा गया है। दक्षिण मार्ग की साधना में साधक को लाभ चाहे न हो, परन्तु हानि तो होती ही नहीं। पर वाम मार्ग की साधना में लाभ नहीं होता तो नुकसान जरूर होता है। दक्षिण मार्ग में तत्काल लाभ नहीं दीखता, धीरे-धीरे कल्याण होता है, परन्तु वाम मार्ग में तत्काल ही लाभ-हानि हो जाती है।
दोनों में ही अक्रोध, शौच और ब्रह्मचर्य का पालन आवश्यक है। इनका पालन न करने से दक्षिण मार्ग में कोई फल नहीं मिलता परन्तु वाम मार्ग में बड़ा नुकसान हो जाता है। कभी-कभी तो प्राणों पर आ बीतती है। वाम मार्ग में जरा भी कहीं चूके कि बलिदान होते देर नहीं लगती।वेद में ब्राह्मण और मन्त्र- ये दो विभाग हैं, किसी भी देव की सिद्धि के लिए उस देवता की मूर्ति, यन्त्र और मन्त्र की जरूरत है। प्रयोग के समय वहाँ एक-दो आदमी उपस्थित रहने चाहिए। कभी-कभी तो मनुष्य एकाँत से ही डर जाता है ।
उदाहरण लिए,एक व्यक्ति ने किसी मन्त्र की सिद्धि के लिए ग्रहण के दिन श्मशान में एक आक के पेड़ के नीचे बैठकर साधना शुरू की। उन्हें सामने के पहाड़ से एक अघोरी उतरता दिखाई दिया। अघोरी ने श्मशान में पहुँच कर ..फिर वहीं गुम हो गया। यह देखकर उनका शरीर मारे डर के पसीने-पसीने हो गया, वे बड़े जोर से चीख मारकर वहीं ढुलक पड़े। वहाँ उनकी कौन सुनता? ग्रहण शुद्ध होने पर लोग नहाने को आये, तब किसी ने उनको वहाँ पड़े देखा। उठाकर मन्दिर में लाया गया। जोर से ज्वर चढ़ा था। तीन चार दिनों बाद बुखार उतरा, पर वे पागल हो गये और कुछ ही वर्षों के बाद शरीर छोड़ कर चल बसे।
एक व्यक्ति देवी के उपासक थे। वे अपने घर में रात्रि को सदा उनके मन्त्र का जाप करते। एक दिन उन्होंने एकाएक अपने शरीर पर कुछ बिच्छुओं को चढ़ते देखा। वे काँप उठे। बिच्छुओं को झड़काने लगे। फिर मंत्र शुरू किया, बिच्छू फिर चढ़ने लगे। बस, तब से उन्हें सिद्धि तो मिली ही नहीं, परन्तु जहाँ जप शुरू किया कि लगे कपड़े झड़काने! उनके मन में निश्चय हो गया कि मेरे कपड़ों पर अभी बिच्छू चढ़ रहे हैं। ऐसे समय में कोई दूसरा पुरुष पास होता तो शायद वे रास्ते पर आ सकते!
डामर-तन्त्र के मन्त्र तत्काल सिद्धि देते हैं, पर उनका फल थोड़े ही समय के लिए रहता है। स्थायी नहीं रहता। वे मन्त्र केवल चमत्कार दिखाने में ही काम करते हैं।उग्र देवता की साधना और उग्र फल की प्राप्ति के लिए बहुत बार अपने प्राणों को हथेली पर रख देना पड़ता है। गाँवों और शहरों में कितने ही ऐसे साधू फकीर मिलते हैं, जो कुछ शून्य साधना करते हैं और जरूरत पड़ने पर किसी-किसी समय वे उन्हें आजमाते हैं।
कई मन्त्र देवताओं की साधना कष्टसाध्य है। अगर कहीं जरा भी चूके कि..।किसी-किसी देवता से साधक की पूरी पटती ही नहीं, इससे वह चाहे कितनी ही साधना करे, हाथ में आई हुई बाजी भी छटक जाती है और साधना व्यर्थ होती है।सिद्ध-देव की साधना सिद्धि प्राप्त होने के बाद भी साधक को चालू रखनी चाहिये। नहीं तो, उस दैवी सिद्धि को अदृश्य होते देर नहीं लगती।साधक के लिये प्राप्त हुई सिद्धि का उपयोग स्वार्थ में न करके परमार्थ में ही करना श्रेयस्कर है। थोड़े समय के लिये साधक को स्वार्थ-साधन होता देखकर सुख होता है, परन्तु इसके लिये आगे चलकर उसे बहुत कुछ सहन करना पड़ता है।
कलियुग में माँ काली और विनायक की साधना शीघ्र सिद्ध होती है।परन्तु माँ काली और विनायक बहुत उग्र देवता हैं और उनकी सिद्धि भी बहुत उग्र है। कोई भी हो, आस्तिकता और श्रद्धा के साथ करने पर साधना सभी को फल देती है।‘शास्त्रों में सब गपोड़े भरे हैं’ यों कहने से कोई भी काम सिद्ध नहीं होगा। ‘साधना’ का शास्त्र ‘वरदान’ या शाप का शास्त्र नहीं है। साधना से भड़कने का कोई कारण नहीं है। भूख मिटाने के लिये हमें रोज का अन्न सिद्ध करना पड़ता है। यह जैसे हमेशा का ‘रुटीन’ है; इसी प्रकार किसी बड़े काम की सिद्ध के लिये हम बड़े लोगों की मदद लिया करते हैं। ठीक, इसी प्रकार हमें देवताओं की साधना करनी चाहिये। देवताओं की साधना से हमें चिर-स्थायी सुख मिल सकता है, यह निर्विवाद बात है।कर्ण, भीष्म, द्रोण आदि के पास महान सिद्धियाँ थी। इसी से वे महान् बन सके थे।
शास्त्रों के लेखानुसार तो योग संसार की सबसे बड़ी शक्ति है और इसके द्वारा मनुष्य के लिये कोई भी कार्य असम्भव नहीं रहता। प्रत्यक्ष में भी अनेक योगियों को नाना प्रकार के आश्चर्यजनक चमत्कार करते देखा गया है। अब भी योगी एक-एक महीने तक की समाधि लगाते, दिव्य दृष्टि का परिचय देते, शस्त्र, विष आदि के प्रभाव को व्यर्थ करते देखे गये हैं। उनके आशीर्वाद और शाप का प्रभाव भी कभी-कभी स्पष्ट देखने में आता है। पर ये सब बातें प्राचीन योगियों की शक्ति के सम्मुख नगण्य ही मानी जानी चाहियें।
यद्यपि उस समय के अधिकाँश साधक केवल परमात्मा की प्राप्ति के हेतु ही योग साधन करते थे, पर साधनावस्था में स्वभावतः उनको अलौकिक सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती थीं। यह बात सत्य है कि जो वास्तविक मुमुक्ष योगी होते थे, वे इन सिद्धियों की तरफ ध्यान नहीं देते थे और उनका प्रयोग भी कदाचित् ही करते थे। वे इन सिद्धियों के फेर में पड़ना और उनको अधिक विकसित करना मुक्ति -मार्ग में बाधा स्वरूप मानते थे और जहाँ तक संभव होता था उन्हें किसी पर प्रकट नहीं होने देते थे।
पर इस वक्तव्य पर से यह विचार कर लेना कि सिद्धियों की बात सर्वथा कल्पित या असम्भव है ठीक न होगा। किसी उच्चकोटि के साधक का यह कहना ठीक माना जा सकता है कि हमको सिद्धियों की ओर लक्ष्य करके मुक्ति की ओर ही बढ़ते जाना चाहिये। पर हर एक साधारण साधक का, जो योग की विधियों को भी अभी भली प्रकार नहीं जानता, यह कहना कि “सिद्धियाँ विघ्न स्वरूप हैं, इन से बच कर ही रहना चाहिये” कोई अर्थ नहीं रखता। त्याग उसी चीज का किया जाता है जो हमको प्राप्त हो चुकी है या शीघ्र ही मिलने वाली है। पर जो लोग अभी ठीक तरह से प्राणायाम करने में भी समर्थ नहीं है, उनके मुँह सिद्धियों के त्याग की बात निकलना बड़ा बेतुका जान पड़ता है।
फिर सब सिद्धियों का आशय वैभव या सम्पत्ति की प्राप्ति से भी नहीं होता। ये सिद्धियाँ वास्तव योग के साधन-काल में स्वभावतः प्राप्त होने वाली तरह-तरह की शक्तियाँ हैं जिनका चाहे तो आवश्यकतानुसार प्रयोग किया जा सकता है, अथवा नहीं भी किया जाय। पर यह मानना हमें पड़ेगा कि वे हैं बड़ी विलक्षण। विज्ञान बड़ी-बड़ी असम्भव समझी जाने वाली बातों को सत्य सिद्ध कर दिखाया है, पर योग की सिद्धियाँ उनसे भी अधिक विस्मयजनक हैं। क्योंकि विज्ञान द्वारा किये जाने वाले कार्यों में बहुत अधिक यंत्रों और सैकड़ों प्रकार की रासायनिक पदार्थों या मसालों की आवश्यकता पड़ती है, जबकि योगी जो कुछ करते हैं वह सब आत्म-बल और आन्तरिक शक्तियों द्वारा सम्पन्न होता है। योग की ऐसी सिद्धियों की संख्या बहुत अधिक है। क्या संकल्प की साधना, दक्षिणायन, नीचे के मार्ग पर ले जाती है और समर्पण की साधना, उत्तरायण, ऊपर के मार्ग पर ले जाती है?-
11 तथ्य:-
यह प्रयोग संकल्प से ही शुरू होता है। सभी ध्यान संकल्प से शुरू होते हैं, लेकिन सभी ध्यान समर्पण पर समाप्त नहीं होते। जो ध्यान संकल्प से शुरू होते हैं और संकल्प पर ही पूर्ण होते हैं, वे दक्षिणायन में ले जाते हैं।क्रमशः संकल्प छूटता चला जाता है और आप समर्पण में प्रवेश करते हैं। अंतिम क्षण में आप सिर्फ समर्पण की स्थिति में होते हैं, संकल्प छूट चुका होता है। जो ध्यान की विधियां संकल्प से शुरू होती हैं और समर्पण पर पूर्ण होती हैं, वे उत्तरायण में ले जाती हैं।
समर्पण के लिए भी संकल्प का उपयोग करना पड़ता है। यदि आप संकल्प के लिए ही संकल्प का उपयोग कर रहे हैं, तो यात्रा दक्षिणायन हो जाती है। और यदि आप संकल्प का उपयोग समर्पण के लिए कर रहे हैं, तो यात्रा उत्तरायण हो जाती है।
संकल्प हमारी स्थिति का ही प्रयोग है।यदि हम कही खड़े हैं, तो वह संकल्प हमारी स्थिति है। हमें जहां भी जाना हो, ऊपर या नीचे, संकल्प से ही जाना पड़ेगा।यदि आप संकल्प के लिए ही संकल्प कर रहे हैं.. विल फॉर विल्स सेक, तो आप नीचे उतर जाएंगे। और विल फॉर सरेंडर्स सेक, तो आप ऊपर चढ़ जाएंगे। अंतिम लक्ष्य समर्पण हो तो संकल्प की सीढ़ी का उपयोग भी किया जा सकता है। और अगर अंतिम लक्ष्य संकल्प हो तो आप समर्पण का भी उपयोग कर सकते हैं और नीचे उतर जाएंगे।
दूसरी बात भी खयाल में ले लें। पहली बात , संकल्प भी समर्पण के लिए मार्ग बन सकता है और समर्पण भी संकल्प के लिए मार्ग बन सकता है। एक आदमी सिर्फ परमात्मा के लिए इसलिए समर्पण करता है, ताकि मेरी संकल्प की शक्ति विराट हो जाए। एक आदमी कहता है, हे प्रभु, सब तेरे हाथों में छोड़ता हूं। लेकिन भीतर इच्छा होती है...
स्त्रैण चित्त, समर्पण से शुरू करता है और संकल्प पर पूरा होता है। और जिस दिन आपने उसका समर्पण स्वीकार कर लिया, उसी दिन आप उसके गुलाम हो गए।मालिक होने के भ्रम में आप गुलाम हो जाते हो। स्त्रैण चित्त की केमिस्ट्री, उसके चित्त के काम करने का ढंग ;ही यही है कि जिसे बांधना हो, पहले उसे मालिक होने का खयाल दो।
पुरुष का चित्त उलटा है। वह संकल्प से शुरू करता है और समर्पण पर पूरा होता है।वह पहले संकल्प से शुरू करता है। वह पहले स्त्री को जीतने की कोशिश करता है। उसे पता नहीं कि आखिर में हारोगे। यह जीतने से उनकी हार शुरू हो रही है।इसीलिए स्त्री और पुरुषों में मेल बन जाता है। नहीं तो मेल बनना मुश्किल हो जाए। अपोजिट, विरोध में उनमें मेल बन जाता है।
डाइलेक्टिक्स है, जीवन का एक द्वंद्वात्मक नियम है: विपरीत आकर्षित करते हैं। स्त्री और पुरुष बिलकुल विपरीत ढंग से जीते हैं। उनके जीने के ढंग की विपरीतता की गहराई यही है कि स्त्री शुरू करती है समर्पण से और पूर्ण करती है संकल्प पर। पुरुष शुरू करता है संकल्प से और पूर्ण करता है समर्पण पर। इसलिए दोनों के बीच आकर्षण है।
इसलिए पश्चिम में स्त्री और पुरुष के बीच के संबंध रोज-रोज शिथिल और विकृत होते चले जा रहे हैं। क्योंकि स्त्री ने तय किया है कि मैं अब समर्पण नहीं करूंगी। लेकिन जिस दिन स्त्री तय कर लेती है, अब मैं समर्पण नहीं करूंगी, उसी दिन पुरुष को जीतना मुश्किल हो जाएगा। और पुरुष ने भी तय कर लिया है कि स्त्री को बराबर मौका देना है, इसलिए मैं इसको जीतूंगा नहीं। और जिस दिन पुरुष स्त्री को जीतता नहीं, उसी दिन पुरुष की हार का कोई उपाय नहीं रह जाता।
आप दोनों काम शुरू कर सकते हैं, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति के भीतर स्त्री भी छिपी है और पुरुष भी।पुरुष के भीतर भी स्त्री छिपी है, और स्त्री के भीतर भी पुरुष छिपा है। सब आदमी बाइसेक्सुअल हैं। कोई आदमी यूनिसेक्सुअल नहीं है। नवीनतम मनोविज्ञान की खोजें और नवीनतम बायोलाजी के अन्वेषण इस बात को सिद्ध करते हैं कि कोई आदमी न तो पुरुष है पूरा और न कोई स्त्री पूरी स्त्री है। फर्क डिग्रीज के हैं।
जो भेद हैं, वे परसेंटेज के हैं। इसलिए ऐसी घटना घटती है कि कभी-कभी हम पाते हैं कि कोई पुरुष बिलकुल स्त्रैण मालूम होता है और कोई स्त्री बिलकुल पुरुष जैसी मालूम होती है।कोई साठ परसेंट पुरुष हैं और चालीस परसेंट स्त्री हैं, इसलिए वह पुरुष मालूम पड़ता हैं।कोई साठ परसेंट स्त्री है और चालीस परसेंट पुरुष है, इसलिए स्त्री मालूम पड़ती है।
स्त्रैण पुरुष हैं, पुरुष जैसी स्त्रियां हैं, अनुपात अगर ज्यादा है और इसलिए कभी ऐसी दुर्घटना भी घटती है कि कोई पुरुष पुरुष की तरह शुरुआत करता है और बाद की उम्र में स्त्री हो जाता है। इक्यावन-उनचास जैसा कोई अनुपात रहे, तो अनुपात गिर सकता है, बढ़ सकता है। और अब तो वैज्ञानिक कहते हैं कि इंजेक्शन देकर हम किसी भी पुरुष को स्त्री और किसी भी स्त्री को पुरुष बना सकते हैं। क्योंकि हार्मोन का ही फर्क है। तो हार्मोन कम-ज्यादा किए जा सकते हैं।
प्रत्येक व्यक्ति अर्धनारीश्वर है ..इसलिए आप संकल्प से भी शुरू कर सकते हैं और समर्पण से भी। अगर आप संकल्प से शुरू करते हैं और अंतिम लक्ष्य आपका समर्पण है, तो आप उत्तरायण पर निकल जाएंगे। और अगर आप संकल्प से शुरू करते हैं और अंतिम लक्ष्य संकल्प ही है, तो आप दक्षिणायन पर निकल जाएंगे। अगर आप समर्पण से शुरू करते हैं और अंतिम लक्ष्य समर्पण ही है, तो भी आप उत्तरायण पर निकल जाएंगे। और अगर आप समर्पण से शुरू करते हैं और अंतिम लक्ष्य संकल्प ही है, तो आप दक्षिणायन पर निकल जाएंगे।