स्टोरी हाइलाइट्स
इसके विपरीत पांडवों के रूप में पुण्य भी विराजमान है| एक योद्धा के रूप में अर्जुन मौजूद है तो धर्म के रूप में धर्मराज युधिष्ठिर| अर्जुन की भक्ति और अनुराग की रक्षा के लिए श्रीकृष्ण भी मौजूद हैं|
श्रीकृष्ण गीता में मनुष्य के आंतरिक युद्ध में जीत का कौशल सिखाते हैं
… P अतुल विनोद
गीता आन्तरिक युद्ध का वर्णन है … P अतुल विनोद
श्री कृष्ण के संदेशों से स्पष्ट है कि हमारा शरीर ही कुरुक्षेत्र है और आसुरी शक्तियों के विनाश के बाद यही शरीर धर्मक्षेत्र बन जाता है|
इस शरीर के अंदर पांडव भी मौजूद है और कौरव भी| पांडवों का मार्गदर्शन करने के लिए श्रीकृष्ण भी इसी शरीर में मौजूद हैं|
श्री कृष्ण के संदेश क्रिस्टल क्लियर हैं| उनके संदेश अटल हैं| हर युग में हम उन्हें अपना कर अपने जीवन को सफल बना सकते हैं|
आध्यात्मिक यात्री के लिए श्री कृष्ण के वचन अमृत की तरह है| जो ज्ञान पिपासु के हर संदेह और सवाल की प्यास को सहजता से बुझा सकते हैं|
हम सब सत्य की खोज करते हैं| श्री कृष्ण ने एक लाइन में हमें सत्य की परिभाषा देदी| यदि सत्य की खोज करनी है तो हमें अपनी आत्मा का साक्षात्कार करना पड़ेगा| श्री कृष्ण कहते हैं कि आत्मा ही सत्य है| आत्मा को खोज लो तो सत्य हासिल हो जाएगा|
धर्म और अध्यात्म में दूसरा बड़ा शब्द है सनातन, ये सनातन क्या है? सनातन जो चिरस्थाई है, जिसका न आदि है न अंत है| श्रीकृष्ण कहते हैं कि परमात्मा ही सनातन है|
जब हम सनातन की बात करते हैं तो उसके साथ धर्म जुड़ा हुआ है| सनातन धर्म यानी जिसका अस्तित्व आदिकाल से है जो सृष्टि के प्रारंभ से ही अस्तित्व में है वही सनातन धर्म है| सनातन धर्म रास्ता है, उस परमात्मा को प्राप्त करने का जो अनादि है| श्री कृष्ण कहते हैं कि ये जो सनातन धर्म है वो परमात्मा से मिलाने वाली क्रिया है, वही पथ है, वही साधन है|
महाभारत में श्री कृष्ण अर्जुन को युद्ध करने की शिक्षा देते हैं, हम सब भी युद्ध करने को लालायित हैं, ये युद्ध क्या है? सकारात्मक और नकारात्मक शक्तियों का संघर्ष ही युद्ध है| श्री कृष्ण कहते हैं कि हम सबके अंदर पॉजिटिव यानी दैविय और नेगेटिव यानी आसुरी ये दो प्रवृत्तियां मौजूद हैं| जब तक दोनों मौजूद है तब तक युद्ध चलता है| बाहरी जगत में भी इसी तरह देव और दानव मौजूद हैं| अंतः करण में भी इन दोनों के बीच युद्ध होता है और बाहर भी इन दोनों के बीच ही युद्ध होता है|
धर्म, अध्यात्म में अगला शब्द आता है ज्ञान| ज्ञान और अज्ञान को लेकर हम सब भ्रमित रहते हैं, लेकिन श्रीकृष्ण एक शब्द में इस भ्रम को दूर कर देते हैं| श्री कृष्ण कहते हैं कि जिसे परमात्मा की प्रत्यक्ष जानकारी हो जाए, जिसके हृदय में परमात्मा की अनुभूति हो जाए वही ज्ञान है| इसके इतर सब कुछ अज्ञान है|
श्री कृष्ण ने गीता में योग की शिक्षा दी है ये योग क्या है? योग तो हमारा हमेशा होता है| कभी हम प्रेम से मिलते हैं कभी हम घृणा से| कभी हम सुख से मिलते हैं कभी हम दुख से| कभी संपन्नता से मिलते हैं कभी विपन्नता से|
कभी हम नाम से हमसे मिलते हैं और कभी बदनाम से| श्री कृष्ण कहते हैं कि संसार में मिलने वाली वस्तुएं योग नहीं है क्योंकि उनका बहुत जल्दी वियोग हो जाता है| जो संयोग और वियोग से मुक्त है उस अव्यक्त ब्रह्म से मिलन का नाम योग है|
श्रीकृष्ण की शिक्षा में निष्काम कर्म योग का वर्णन मिलता है| इसकी बहुत चर्चा होती है| ये कोई बहुत कठिन ज्ञान नहीं है बहुत आसान है| सृष्टि के नियमों के अनुसार प्रकृति के नजदीक रहते हुए ऐसे कर्म करना जिससे किसी का नुकसान ना हो और जिसे करते वक्त अभिमान ना हो उस कर्म को परमात्मा का कार्य मानते हुए उस में लिप्त हुए बगैर, समर्पण के साथ, उस कर्म में लगे रहना ही निष्काम कर्मयोग है|
श्री कृष्ण अपनी शिक्षा में कहते हैं कि व्यक्ति लगातार परमात्मा के रास्ते पर चलता रहे| वो यदि इस रास्ते से हट जाता है तो वर्णसंकर हो जाता है| इसलिए अपने भ्रम को एक तरफ रखते हुए| ईश्वर में पूर्ण विश्वास के साथ अपने वर्ण के मुताबिक अपने कार्य को करते रहना ही धर्म है|
श्री कृष्ण कहते हैं कि मनुष्य अपने अंदर मौजूद दैवीय और आसुरी शक्तियों में से, दैवीय शक्तियों को मजबूत रें और असुरी शक्तियों का प्रतिकार करे|
श्री कृष्ण के संदेशों से ये भी पता चलता है कि स्वर्ग नरक भी ह्रदय के आकाश में ही उपस्थित है, अवतार भी मनुष्य के अंदर ही प्रकट होता है, विराट दर्शन भी योगी के हृदय में ईश्वर के द्वारा दी गई अनुभूति है|
हम सब इष्ट को लेकर भी भ्रमित रहते हैं| श्री कृष्ण कहते हैं कि उसे ढूँढने की क्या जरूरत है| हर जगह मैं ही मौजूद हूँ, इसलिए विश्वास के साथ परात्पर ब्रह्म को पूजा जाए, वो परात्पर ब्रह्म अपने अंदर ही खोजा जाना चाहिए|
श्री कृष्ण कहते हैं किये शरीर ही एक क्षेत्र है| ये शरीर एक उपजाऊ भूमि है जिसमें जैसा बीज बोया जाएगा वैसा ही वृक्ष प्रकट होगा|
श्री कृष्ण के संदेशों से स्पष्ट है कि हमारा शरीर ही कुरुक्षेत्र है और आसुरी शक्तियों के विनाश के बाद यही शरीर धर्मक्षेत्र बन जाता है|
इस शरीर के अंदर पांडव भी मौजूद है और कौरव भी| पांडवों का मार्गदर्शन करने के लिए श्रीकृष्ण इसी शरीर में मौजूद हैं|
हमारे अंदर मौजूद दस इंद्रियां और मन यही कौरव हैं| हमारे अंदर जो अज्ञान है वही धृतराष्ट्र है| सच्चाई को जानते हुए भी जो धृतराष्ट्र की तरह अंधा बना रहता है| यही अज्ञानता है| मन ही धृतराष्ट्र है जो अपनी इंद्रिय रूपी पुत्रों के मोह में पड़कर अपना ही बुरा करने पर आमादा हो जाता है| मन का मोह ही दुर्योधन है| मन की दुर्बुद्धि ही दुशासन है| हमारे अंदर ही विजातीय कर्म कर्ण के रूप में मौजूद हैं|
भ्रम के रूप में भीष्म द्वैत के आचरण के रूप में द्रोणाचार्य, आसक्ति के रूप में अश्वत्थामा, विकल्प के रूप में विकर्ण, अधूरी साधना के रूप में कृपाचार्य, और जीव के रूप में विदुर विराजमान हैं|
इसके विपरीत पांडवों के रूप में पुण्य भी विराजमान है| एक योद्धा के रूप में अर्जुन मौजूद है तो धर्म के रूप में धर्मराज युधिष्ठिर| अर्जुन की भक्ति और अनुराग की रक्षा के लिए श्रीकृष्ण भी मौजूद हैं|
अपने अंदर श्रीकृष्ण के दर्शन वही कर सकता है जो अर्जुन की तरह उनके प्रति अनुरागी है| भक्ति और अनुराग अलग अलग नहीं है जब भक्ति अनन्य हो जाती है तो यही अनुराग बन जाती है और इसी से श्रीकृष्ण मार्गदर्शन के लिए प्रकट हो जाते हैं|
गीता में यूँ तो बाहरी युद्ध का चित्रण नजर आता है लेकिन उसमें आन्तरिक युद्ध के सूत्र छिपे हुए हैं|