पिछली कङी हमने देखा कि गाँधीजी "सभी धर्मों का धर्म" की बात कर रहे हैं और हमने जाना कि विनोबाजी ने गाँधीजी की तुलना श्रीकृष्ण से की। जब इन दोनों बातों को जोङें तो पहला प्रश्न आता है कि धर्म क्या है ? धर्म शब्द संस्कृत की धृ धातु से बना है। धर्म का अर्थ होता है - "जो शक्ति चराचर समस्त विश्व को धारण करे उसी का नाम धर्म है। महाभारत में श्रीकृष्ण ने अनेक अवसरों पर धर्म को परिभाषित किया है। उदाहरण के लिए कर्ण पर्व में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है:
धारणाद्धर्ममित्याहुधर्मो धारयते प्रजा:। यत्स्याद्धारण संयुक्तं स धर्म इति निष्चय:।।
धर्म धारण करता है इसलिए धर्म को धर्म कहा जाता है, जो धारण करने की योग्यता रखता है वही धर्म है ।
महाभारत में ही श्रीकृष्ण कहते हैं
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥
अर्थात “जब-जब इस पृथ्वी पर धर्म की हानि होती है और अधर्म आगे बढ़ता है, तब-तब मैं इस पृथ्वी पर जन्म लेता हूँ | सज्जनों और साधुओं की रक्षा के लिए, दुर्जनो और पापियों के विनाश के लिए और धर्म की स्थापना के लिए मैं हर युग में जन्म लेता हूँ”

सोचिए, जब ५००० वर्ष पूर्व श्रीकृष्ण ने इस पृथ्वी पर जन्म लिया था तब दुनिया में न तो ईसाई पंथ था और न इस्लाम । यानी धर्मांतरण का या किसी दूसरे धर्म से खतरे का तो प्रश्न ही नहीं था ? फिर किस धर्म का नाश हो रहा था ? किसकी रक्षा के लिए श्रीकृष्ण ने जन्म लिया ? वही, जिस अनुशासन का पालन करना हर मनुष्य का कर्तव्य है वही धर्म है।
गाँधीजी इसे ही धर्मों का धर्म कह रहे हैं और विनोबाजी की नजर में गाँधीजी ने इसी धर्म की रक्षा के लिए प्रयास किए। यही वजह है कि विनोबाजी ने गाँधीजी की तुलना श्रीकृष्ण से की।
अब प्रश्न है कि गाँधीजी ने धर्म की रक्षा के लिए क्या किया ? मैं पूर्व में जिक्र कर चुका हूँ कि छुआछूत जैसी बुराइयों को मिटाने के लिए गाँधीजी ने गंंभीर और अथक प्रयास किए। इस पर विस्तार से चर्चा आगे किसी कङी में करेंगे ।
(क्रमशः )