इन रोग कारक ग्रहों की दशा एवं दिशा काल में प्रतिकूल गोचर रहने पर रोग की उत्पत्ति होती है। प्रत्येक ग्रह, नक्षत्र, राशि एवं भाव मानव शरीर के भिन्न-भिन्न अंगो का प्रतिनिधित्व करते है..!
भाव मंजरी के अनुसार-
मेष राशि सिर में, वृष मुंह में , मिथुन छाती में, कर्क ह्नदय में, सिंह पेट में, कन्या कमर में, तुला बस्ती में अर्थात पेडू में, वृश्चिक लिंग में , धनु जांघो में, मकर घुटनों में, कुंभ पिंडली में तथा मीन राशि को पैरो में स्थान दिया गया है। राशियों के अनुसार ही नक्षत्रों को उन अंगों में स्थापित करने से कल्पित मानव शरीर आकृति बनती है।इन नक्षत्रों व राशियों को आधार मानकर ही शरीर के किसी अंग विशेष में रोग या कष्ट का पूर्वानुमान किया जा सकता है। शनि तमोगुणी ग्रह क्रूर एवं दयाहीन, लंबे नाखून एवं रूखे-सूखे बालों वाला, अधोमुखी, मंद गति वाला एवं आलसी ग्रह है।
इसका आकार दुर्बल एवं आंखें अंदर की ओर धंसी हुई है। जहां सुख का कारण बृहस्पति को मानते है। तो दुःख का कारण शनि है। शनि एक पृथकता कारक ग्रह है पृथकता कारक ग्रह होने के नाते इसकी जन्मांग में जिस राशि एवं नक्षत्र से सम्बन्ध हो, उस अंग विशेष में कार्य से पृथक अर्थात बीमारी के लक्षण प्रकट होने लगते हैं। शनि को स्नायु एवं वात कारक ग्रह माना जाता है । नसों वा नाडियों में वात का संचरण शनि के द्वारा ही संचालित है। आयुर्वेद में भी तीन प्रकार के दोषों से रोगों की उत्पत्ति मानी गई है। ये तीन दोष वात, कफ व पित्त है। हमारे शरीर की समस्त आन्तरिक गतिविधियां वात अर्थात शनि के द्वारा ही संचालित होती है।
आयुर्वेदिक शास्त्रों में भी कहा गया हैः-
पित्त पंगु कफः पंगु पंगवो मल धातवः।
वायुना यत्र नीयते तत्र गच्छन्ति मेघवत्।।
अर्थात पित्त, कफ और मल व धातु सभी निष्क्रिय हैं। स्वयं ये गति नहीं कर सकते । शरीर में विद्यमान वायु ही इन्हें इधर से उधर ले जा सकती है। जिस प्रकार बादलों को वायु ले जाती है। यदि आयुर्वेद के दृष्टिकोण से भी देखा जाये तो बात ही सभी कार्य संपन्न करता है।
इसी वात पर ज्योतिष शास्त्र शनि का नियंत्रण मानता है। शनि के अशुभ होने पर शरीरगत वायु का क्रम टूट जाता है। अशुभ शनि जिस राशि, नक्षत्र को पीडीत करेगा उसी अंग में वायु का संचार अनियंत्रित हो जायेगा, जिससे परिस्थिति अनुसार अनेक रोग जन्म ले सकते है। इसका आभास स्पष्ट है कि जीव-जन्तु जल के बिना तो कुछ काल तक जीवित रह सकते है, लेकिन बिना वायु के कुछ मिनट भी नहीं रहा जा सकता है। नैसर्गिक कुण्डली में शनि को दशम व एकादश भावों का प्रतिनिधि माना गया है। इन भावों का पीड़ित होना घुटने के रोग , समस्त जोडों के रोग , हड्डी , मांसपेशियों के रोग, चर्म रोग, श्वेत कुष्ठ, अपस्मार, पिंडली में दर्द, दाये पैर, बाये कान व हाथ में रोग, स्नायु दुर्बलता, हृदय रोग व पागलपन देता है। रोग निवृति भी एकादश के प्रभाव में है लिवरस्थ वायु में समायोजन से शनि पेट मज्जा को जहां शुभ होकर मजबूत बनाता है वहीं अशुभ होने पर इसमें निर्बलता लाता है। फलस्वरूप जातक की पाचन शक्ति में अनियमितता के कारण भोजन का सहीं पाचन नहीं है जो रस, धातु, मांस, अस्थि को कमजोर करता है।
समस्त रोगों की जड पेट है। पाचन शक्ति मजबुत होकर प्याज-रोटी खाने वालो भी सुडौल दिखता है वहीं पंचमेवा खाने वाला बिना पाचन शक्ति के थका-हारा हुआ मरीज लगता है। मुख्य तौर पर शनि को वायु विकार का कारक मानते है जिससे अंग वक्रता, पक्षाघात, सांस लेने में परेशानी होती है। शनि का लौह धातु पर अधिकार है। शरीर में लौह तत्व की कमी होने पर एनीमिया, पीलिया रोग भी हो जाता है। अपने पृथकत्ता कारक प्रभाव से शनि अंग विशेष को घात-प्रतिघात द्वारा पृथक् कर देता है। इस प्रकार अचानक दुर्घटना से फे्रकच्र होना भी शनि का कार्य हो सकता है। यदि इसे अन्य ग्रहो का भी थोडा प्रत्यक्ष सहयोग मिल जाये तो यह शरीर में कई रोगों को जन्म दे सकता है। जहां सभी ग्रह बलवान होने पर शुभ फलदायक माने जाते है, वहीं शनि दुःख का कारक होने से इसके विपरित फल माना है कि-
आत्मादयो गगनगैं बलिभिर्बलक्तराः।
दुर्बलैर्दुर्बलाः ज्ञेया विपरीत शनैः फलम्।।
अर्थात कुण्डली में शनि की स्थिति अधिक विचारणीय है। इसका अशुभ होकर किसी भाव में उपस्थित होने उस भाव एवं राशि सम्बधित अंग में दुःख अर्थात रोग उत्पन्न करेगा। गोचर में भी शनि एक राशि में सर्वाधिक समय तक रहता है जिससे उस अंग-विशेष की कार्यशीलता में परिवर्तन आना रोग को न्यौता देना है। कुछ विशेष योगों में शनि भिन्न-भिन्न रोग देता है।
आइये जानकारी प्राप्त करें।जानिए ज्योतिषीय कारण लिवर रोग के —–
लिवर विकार उत्पत्र करने में भी शनि एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता हैं। सूर्य एवं चन्द्र को बदहजमी का कारक मानते हैं, जब सूर्य या चंद्र पर शनि का प्रभाव हो, चंद्र व बृहस्पति को यकृत का कारक भी माना जाता है। इस पर शनि का प्रभाव यकृत को कमजोर एवं निष्क्रिय प्रभावी बनाता है। बुध पर शनि के दुष्प्रभाव से आंतों में खराबी उत्पत्र होती हैं। वर्तमान में एक कष्ट कारक रोग एपेन्डिसाइटिस भी बृहस्पति पर शनि के अशुभ प्रभाव से देखा गया है। शुक्र को धातु एवं गुप्तांगों का प्रतिनिधि माना जाता हैं। जब शुक्र शनि द्वारा पीड़ित हो तो जातक को धातु सम्बंधी कष्ट होता है। जब शुक्र पेट का कारक होकर स्थित होगा तो पेट की धातुओं का क्षय शनि के प्रभाव से होगा। शनिकृत कुछ विशेष लिवर रोग योगः-
1. कर्क, वृश्चिक, कुंभ नवांश में शनि चंद्र से योग करें तो यकृत विकार के कारण पेट में गुल्म रोग होता है।
2. द्वितीय भाव में शनि होने पर संग्रहणी रोग होता हैं। इस रोग में लिवर स्थ वायु के अनियंत्रित होने से भोजन बिना पचे ही शरीर से बाहर मल के रूप में निकल जाता हैं।
3. सप्तम में शनि मंगल से युति करे एवं लग्नस्थ राहु बुध पर दृष्टि करे तब अतिसार रोग होता है।
4. मीन या मेष लग्र में शनि तृतीय स्थान में लिवर मंे दर्द होता है।
5. सिंह राशि में शनि चंद्र की युति या षष्ठ या द्वादश स्थान में शनि मंगल से युति करे या अष्टम में शनि व लग्र में चंद्र हो या मकर या कुंभ लग्नस्थ शनि पर पाप ग्रहों की दृष्टि लिवर रोग कारक है।
6. कुंभ लग्न में शनि चंद्र के साथ युति करे या षष्ठेश एवं चंद्र लग्नेश पर शनि का प्रभाव या पंचम स्थान में शनि की चंद्र से युति प्लीहा रोग कारक है।
पंडित दयानन्द शास्त्री