महाराष्ट्र के प्रमुख संत -दिनेश मालवीय


स्टोरी हाइलाइट्स

महाराष्ट्र के प्रमुख संत -दिनेश मालवीय वीर मराठों की भूमि महाराष्ट्र में संतों की एक बहुत बड़ी श्रृंखला है. इन संतों ने इतिहास के बहुत कठिन समय में धर्म और संस्कारों की रक्षा में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है. उन्होंने सामाजिक बुराइयों और धर्म के नाम पर होने वाले आडम्बरों का विरोध कर समाज को सच्चे धर्म और सदाचार के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित और मार्गदर्शित किया.   संत ज्ञानेश्वर संत ज्ञानेश्वर- चेतना की चरम अवस्था पर पहुँच कर दूसरों को भी अनुभूति कराने में समर्थ इन संत का नाम विश्व भर में प्रसिद्ध है. नाथ परम्परा में दीक्षित संत ज्ञानेश्वर में शक्तिपात करने की अद्भुत क्षमता थी. गीता पर उनके भाष्य “ज्ञानेश्वरी” को बहुत प्रमाणिक माना जाता है. उन्होंने इस ग्रन्थ में योग और ज्ञान के बहुत सूक्ष्म तत्वों की सरल व्याख्या की है. उन्होंने जनभाषा में साहित्य की रचना की, जिससे समाज को बहुत मार्गदर्शन प्राप्त हुआ. उनके अभंग बहुत प्रसिद्ध हैं और पूरे महाराष्ट्र में बहुत भक्तिभाव से गाये जाते है. इन अभंगों का संकलन “भावार्थ दीपिका” में किया गया है. उनमें भक्ति, योग और ज्ञान का अद्भुत समन्वय था.उन्होंने अपने भाई निवृत्तिनाथ के आग्रह पर “अमृतानुभव” ग्रन्थ की भी रचना की. संत ज्ञानेश्वर ने सन 1296 में जीवित समाधि ली.आलंदी में उनकी समाधि आज भी पहले की तरह चैतन्य है, जहाँ लोगों को अद्भुत आध्यात्मिक अनुभूतियाँ होती हैं. संत पुंडलीक संत पुंडलीक- यह एक बहुत महान संत हुए हैं. वह सैंकड़ों वर्ष पहले भगवान पांडुरंग की प्रतिमा लेकर पंढरपुर आये थे. वे शिव के पुजारी थे, लेकिन भगवान विष्णु को भी उतना ही मानते थे. महाराष्ट्र में पंढरपुर एक बहुत बड़ा तीर्थ स्थान है. विष्णु भगवान् का ही एक नाम विट्ठल है. कहते हैं कि भक्त पुंडलीक माता-पिता की सेवा कर रहे थे, तभी स्वयं भगवान् उन्हें दर्शन देने आये. भक्त पुंडलीक ने माता-पिता की सेवा छोड़े बिना एक ईंट भगवान् को खड़े रहने के लिये दे दी. तभी से भगवान श्रीकृष्ण का वह ईंट वाला स्वरूप महाराष्ट्र के भक्तों ने स्वीकार कर लिया. इस रूप में उन्हें विट्ठल नाम मिला. उन्होंने वारकरी संप्रदाय की स्थापना की. आज भी हर साल कार्तिक और अषाढ़ एकादशी के अवसर पर लाखों तीर्थयात्री यहाँ आते हैं और “विट्ठल विट्ठल” का गान करते हुए थिरकते हैं. यह संप्रदाय मूल रूप से भागवत धर्म के सगुण-निर्गुण का मिश्रित रूप है. इस पर अद्वैत भक्ति का गंभीर प्रभाव है. संत नामदेव संत नामदेव- यह महाराष्ट्र के सबसे प्रतिष्ठित संतों में शामिल हैं. नामदेव में बचपन से ही भक्ति का भाव प्रबल था. आगे चलकर वह अपने परिवार के साथ पंढरपुर में आकर बस गये. उन्होंने बिसोबा खेचर को अपना गुरु मान लिया. उन्होंने नामदेव को संत ज्ञानेश्वर के पास भेज दिया. उनकी सच्ची श्रद्धा और भक्ति के कारण ज्ञानेश्वर उन्हें बहुत सम्मान देते थे और सार्वजनिक रूप से उनके चरणस्पर्श करते थे. इससे समाज पर बहुत सकारात्मक प्रभाव पड़ा, क्योंकि ज्ञानेश्वर ब्राह्मण थे और नामदेव दर्जी थे. नामदेव स्वयं नाचते-गाते और करताल बजाते हुए कीर्तन करते थे. महाराष्ट्र में कीर्तन परम्परा उन्होंने ही शुरू की. ज्ञानेश्वर द्वारा समाधि लेने के बाद वह पंजाब चले गये. उन्होंने पंजाब में भक्ति और सदाचार का प्रसार किया और समाज को संगठित कर विधर्मियों से धर्म की रक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. भक्त सावता माली भक्त सावता माली-जातिगत भेदभाव को दूर करने और भक्ति का प्रसार करने वालों में भक्त सावता माली का नाम प्रमुखता से लिया जाता है. वह किसानी का काम करते हुए भगवान का भजन इतनी निष्ठा से करते थे कि उन पर ईश्वर की कृपा हुयी. उन्हें अपने खेत की हर चीज में ईश्वर का दर्शन होने लगा. महाराष्ट्र के माली समाज के साथ ही सभी जाति-समाज के लोगों में उनका आज भी पहले जैसा ही सम्मान है.                                         संत मुक्ताबाई संत मुक्ताबाई- इस महान संत महिला के माता-पिता की मृत्यु उस समय हो गयी जब उनकी उम्र सिर्फ तीन साल की थी. वह संत ज्ञानेश्वर और निवृतिनाथ की छोटी बहन थीं. जाति बहिष्कृत होने के अपमान के बाद उनके पिता विट्ठल पन्त द्वारा जल समाधि ले ली थी. अपने भाई के साथ उनके संवाद के जो अभंग हैं, उन्हने “ताटी अभंग” कहा जाता है. उनका कहना था कि करोड़ की अग्नि में जलते हुए विश्व को संतों द्ववारा जल बनकर शांत करना चाहिए. चांगदेव जैसे योगिराज ने मुक्ताबाई को अपना गुरु बनाया. बिसोबा खेचर को शिक्षा देने का कार्य भी मुक्ताबाई ही करती थीं. मुक्ताबाई ने अपने सरल भाषा में लिखे अभंगों के माध्यम से ज्ञान और अध्यात्म की गूढ़ शिक्षा का प्रसार किया. संत जनाबाई संत जनाबाई-यह महाराष्ट्र की एक प्रमुख संत हुयी हैं. एक गरीब शूद्र परिवार में जन्मी जनाबाई ने अपनी भक्ति से समाज में उच्च स्थान प्राप्त किया. उन्होंने आजीवन विवाह नहीं किया और नाम देव को अपने छोटे भाई की तरह पाला. उन्होंने पांडुरंग की भक्ति के अभंगों की रचना की. अभी उनके साढ़े तीन सौ से अधिक अभंग प्राप्त हैं. संतचोखामेला संतचोखामेला- यह रामानुजाचार्य के शिष्य थे. उन्होंने समाज से आडम्बर और कुरीतियों के उन्मूलन के लिए जीवन भर प्रयास किया. वह एक गृहस्थ संत थे. उस समय जगह-जगह पर बलि प्रथा का बहुत चलन था. उन्होंने इसके विरुद्ध अभियान चलाया. लोगों ने इसका विरोध किया, लेकिन वह अपने कार्य में दृढ़ता से लगे रहे. उन्होंने किसी के विरोध का बुरा नहीं माना. उन्होंने लोगों को अहिंसा और पवित्र जीवन जीने के लिए प्रेरित किया.  उनके बारे में जनाबाई कहती थीं कि और तो सभी भक्त हैं, लेकिन चोखामेला भक्तराज हैं. डॉ. बी. आर. आंबेडकर ने अपनी पुस्तक The Untouchables में उनके जीवन और कार्यों की बहुत प्रशंसा की है. संत एकनाथ संत एकनाथ- यह महाराष्ट्र के अग्रणी संत थे. एकनाथ रामेश्वरम की ओर जाते हुए भगवान् पर अर्पित करने के लिए अपने साथ गंगाजल ले जा रहे थे. रास्ते में उन्हें प्यास से तड़पता हुआ एक गाथा मिला. उन्होंने यह जल उस गधे को ही पिला दिया. उन्हें उस पशु में भी अपने आराध्य विट्ठल के दर्शन हुए. उनका विश्वास था कि हर जीव में ईश्वर का अंश है. संत एकनाथ ने बड़ी संख्या में लोगों को अपना धर्म ड=छोड़कर दूसरा धर्म अपनाने से बचाया. उन्होंने अत्याचार करने वाले मुस्लिमों को बहुत फटकार लगायी. उनके द्ववारा लिखे गये भागवत को “एकनाथी भागवत” कहते हैं. इसकी प्रतियाँ महाराष्ट्र के घर-घर में मिलती हैं. संत तुकाराम संत तुकाराम-यह भी महाराष्ट्र की संत परम्परा के अग्रणी संत हैं. रूढ़ीवादी लोगों के बहुत विरोध के बावजूद उन्होंने समाज की बुराइयों को दूर कर समाज में समरसता कायम करने की दिशा में बहुत महत्वपूर्ण काम किया. उन्होंने ईश्वर की भक्ति का प्रतिपादन करते हुए अनेक अभंगों की रचना की. एक बार संत तुकाराम ने छत्रपति शिवाजी के जीवन की भी रक्षा की थी. वह हमेशा यही प्रार्थना करते थे कि लोगों को जबरन धर्म परिवर्तित करने वाले लोगों को सद्बुद्धि मिले. समर्थ गुरु रामदेव- समर्थ गुरु रामदास विश्व की सर्वमान्य आध्यात्मिक विभूतियों में शामिल हैं. वह बचपन से ही राम और हनुमान के भक्त थे. विवेक के समय पुरोहित द्वारा सावधान-सावधान कहते ही वह घर छोड़कर भाग गये. उन्होंने नासिक में गोदावरी नदी के तट पर बारह वर्ष तक कठोर साधना की. इसके बाद वह देश के विभिन्न भागों में स्थित तीर्थस्थलों के भ्रमण के लिए चले गये. जब वह पंढरपुर आये तो उनको वहाँ भी राम ही दिखायी दिए. यहीं पर उनकी भेंट तुकाराम से हुयी. समर्थ रामदास जातिगत भेदभाव के बहुत विरोधी थे. उन्होंने अपने ग्रंथ “दासबोध” में कहा कि सभी के अन्दर एक ही ब्रह्म है. उन्होंने इस्लाम के आतंक से देशो को मुक्त कराने की दिशा में योजनाबद्ध कार्य किया. पहले उन्होंने कृष्णा नदी के उद्गम महाबलेश्वर में वीर हनुमान मंदिर बनाया और मठ स्थापित किया. आगे चलकर उन्होंने ग्यारह मंदिर और मठों की स्थापना की. छत्रपति शिवाजी और बुंदेलखंड केसरी महाराजा छत्रसाल उनके कृपापात्र थे. उनके वीरतापूर्ण कार्यों में रामदासजी की ही प्रेरणा और आध्यात्मिक शक्ति काम कर रही थी.  उन्होंने “दासबोध”. “करुणाषट्क”, “मनाचे श्लोक” तथा रामायण के सुन्दरकाण्ड तथा युद्धकाण्ड की रचना की. इसके अलावा, महाराष्ट्र के महान संतों में वेणास्वामी, गाडगे महाराज, तुकडो जी महाराज आदि शामिल हैं. तुकडोजी महाराज ने देशभक्ति और ईश्वरभक्ति के क्षेत्र में अनूठे कार्य किये. उन्होंने देशभर के लाखों साधुओं के संघं के लिए “भारत साधु समाज” कि स्थापना की.