पर्यावरण बचाने में भी मददगार है शाकाहार। 35 गुना घातक है मांस का सेवन और कार्बन उत्सर्जन…..अतुल विनोद


स्टोरी हाइलाइट्स

यदि सभी लोग शाकाहारी हो जाएं तो खाद्य पदार्थों के कारण निकलने वाला कार्बन उत्सर्जन 60% तक कम हो जाएगा।

मांसाहार छोड़ने से 60% तक कम हो सकता है खाद्य पदार्थों से कार्बन उत्सर्जन। 35 गुना ज्यादा घातक है मांस।

हमारे मांसाहारी होने का सबसे बड़ा बोझ धरती पर पड़ता है। 

क्या आपको मालूम है कि जिस मांस के आप शौकीन है वह न सिर्फ आपकी सेहत के लिए नुकसानदायक है बल्कि उससे जुड़े हुए तमाम कार्यो के कारण धरती के पर्यावरण को 35 गुना ज्यादा नुकसान होता है।

हालांकि आप सोचेंगे कि मेरे अकेले के मांस छोड़ने से क्या होगा? क्या इससे पर्यावरण बच जाएगा? निश्चित ही शायद इससे पर्यावरण के संरक्षण में बहुत ज्यादा योगदान ना हो, लेकिन आपके स्वास्थ्य पर जितना असर होगा वह आपको हैरत में डाल देगा तो आगे पढ़िए!

यदि सभी लोग शाकाहारी हो जाएं तो खाद्य पदार्थों के कारण निकलने वाला कार्बन उत्सर्जन 60% तक कम हो जाएगा।

दुनिया की कुछ रिसर्च संस्थाओं ने विभिन्न प्रकार के भोजन के कारण पर्यावरण पर पड़ने वाले बोझ और मेडिकल एक्सपेंसेस का अनुमान लगाया। इसमें कई चौंकाने वाले खुलासे हुए।

क्या आपको मालूम है कि दुनिया में 15% कार्बन उत्सर्जन के लिए मवेशी जिम्मेदार होते हैं और यह वह मवेशी है जिन्हें मांसाहार के कारण पाला जाता है।

मांस, अंडा और दूध जैसे खाद्य पदार्थ विश्व की प्रोटीन की जरूरत में सिर्फ 33% का योगदान देते हैं। यदि इन चीजों के लिए पाले जाने वाले मवेशियों को एक जगह इकट्ठा कर दिया जाए तो ये उतनी ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जित करेंगे जितनी चीन और अमेरिका करता है।

20 बड़ी मीट और डेयरी कंपनियां जर्मनी और ब्रिटेन जैसे देशों से ज्यादा कार्बन का उत्सर्जन करती हैं।

मांसाहार किसी भी लिहाज से ठीक नहीं होता। रिसर्च कहती हैं कि जो प्रोसेसड रेड मीट खाता है वह आम व्यक्ति की तुलना में ज्यादा बीमार होता है। उसकी मौत की संभावना 41% ज्यादा रहती है। 

नेचर पर तो मांसाहार के घातक परिणाम होते ही हैं। सौ ग्राम सब्जी की तुलना में 50 ग्राम लाल मांस उत्पादित करने में 20 गुना ज्यादा ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जित होती है और इससे 100 गुना ज्यादा भूमि का उपयोग होता है।

अगर दुनिया के सभी लोग शाकाहारी हो जाए तो इससे भारत से दोगुने आकार वाले इलाके को बचाया जा सकता है।

बींस के अनुपात में मांस से 1ग्राम प्रोटीन प्राप्त करने के लिए 20 गुना ज्यादा जमीन की आवश्यकता पड़ती है।

इसमें ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन 20 गुना ज्यादा होता है। बीन्स के वनस्पत मीट से 1 ग्राम प्रोटीन हासिल करने के लिए 3 गुना ज्यादा जमीन के साथ 3 गुना ज्यादा ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन होता है।

अमेरिका में लोग 10 अरब बर्गर खाते हैं। अगर उनके बर्गर में मांस के स्थान पर मशरूम डाला जाए तो इससे वैसा ही असर होगा जैसे 23 करोड़ कारें सड़कों से हटा दी जाए।

यह सारी बातें बहुत हैरतअंगेज हैं लेकिन मनुष्य मजबूरी की जगह अपनी जीभ के स्वाद के लिए मांसाहार करता है, जबकि जीवन यापन के लिए मांस उतना आवश्यक नहीं होता।

आपको जानकर हैरानी होगी कि मांस के पक्ष में दिए जाने वाले ज्यादातर तर्क मांस प्रेमियों के दिमाग की उपज होते हैं। या फिर यह तर्क मीट प्रोडक्शन करने वाली कंपनियों से प्रायोजित होते हैं।

मांस का उत्पादन और सेवन किसी भी लिहाज से धरती के मनुष्य के लिए उचित नहीं है। मांस मनुष्य की जरूरत नहीं है।

मांस को लेकर अब तक हुई सभी प्रमाणिक रिसर्च इसके घातक नुकसान के लिए ताकीद कर चुकी हैं। मनुष्य का शरीर ऐसा नहीं होता कि वह मांस को एडजस्ट कर सके।

मांस का निर्माण एक जानवर की कई साल की जैविक प्रक्रिया का परिणाम होता है। मांस में उस जानवर के भाव और संस्कार भी होते हैं।

भारतीय धर्म दर्शन में तो मांसाहार की सख्त मनाई है। हालांकि मांस प्रेमियों ने इसके प्रचार-प्रसार में कोई कसर नहीं छोड़ी है। फिर भी आज दुनिया में एक बड़ा तबका है जो शाकाहारी है।

ऑक्सफोर्ड और मिनेसोटा यूनिवर्सिटी के एक अध्ययन ने मांस प्रेमियों के तमाम दावों और तर्कों को झुठला दिया है। दोनों यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने जो निष्कर्ष निकाले हैं वह शाकाहारियो के पक्ष में और मांसाहारियों के प्रबल विरोध में हैं।

भारतीय मनीषियों ने तो यहां तक कहा है कि मांस के सेवन से संबंधित जानवर का डीएनए भी मनुष्य के शरीर का हिस्सा बन जाता है। मनुष्य के संस्कार जानवरों के जैसे होने लगते हैं और अगले जन्म में उसे फिर से जानवर की योनि प्राप्त होती है।