चुनाव से पहले पार्टियों में चुनावी टिकटों की बंदरबांट से पीड़ित नेताओं का एक दल से दूसरे दल में आना जाना ससुराल और मायके जैसा फेरा लगता है. मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव 6 महीने दूर ही कहे जा सकते हैं. पार्टियों में नेताओं की सेंधमारी की पहली पारी कांग्रेस ने खेली है. ज्योतिरादित्य सिंधिया के पुराने संसदीय क्षेत्र के कद्दावर बीजेपी नेताओं को कांग्रेस में शामिल कराकर कमलनाथ और दिग्विजय सिंह ने बीजेपी के सामने एक चुनौती पेश कर दी है..!
चुनाव से पहले पार्टियों में चुनावी टिकटों की बंदरबांट से पीड़ित नेताओं का एक दल से दूसरे दल में आना जाना ससुराल और मायके जैसा फेरा लगता है. मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव 6 महीने दूर ही कहे जा सकते हैं. पार्टियों में नेताओं की सेंधमारी की पहली पारी कांग्रेस ने खेली है. ज्योतिरादित्य सिंधिया के पुराने संसदीय क्षेत्र के कद्दावर बीजेपी नेताओं को कांग्रेस में शामिल कराकर कमलनाथ और दिग्विजय सिंह ने बीजेपी के सामने एक चुनौती पेश कर दी है.
अशोकनगर जिले के बीजेपी के पूर्व विधायक के परिवार जनों का कांग्रेस में शामिल होना जिले में राजनीतिक समीकरण में उलटफेर लाने वाला साबित हो सकता है. यादव समाज से आने वाले पिछड़े वर्ग के इस परिवार और इस समाज का उस इलाके में दबदबा माना जाता है. अभी भी इसी समाज के व्यक्ति वहां से विधायक और राज्य मंत्रिमंडल में मंत्री हैं. कांग्रेस की यह सेंधमारी चुनाव तक असर डालने वाली साबित हो सकती है. ऐसा माना जा रहा है कि भाजपा से आये इन नेता को ही कांग्रेस इस सीट पर अपना उम्मीदवार बनायेगी.
ग्वालियर और चंबल अंचल में कांग्रेस अपनी उज्जवल संभावनाएं देख रही है. ज्योतिरादित्य सिंधिया की बीजेपी और मूल बीजेपी के बीच में कथित टकराव को कांग्रेस अपना बड़ा दांव मान रही है. कांग्रेस नेता ऐसा मान रहे हैं कि सिंधिया के बीजेपी में बढ़ते प्रभाव के कारण बीजेपी के अंदर असंतोष पनपा है. बीजेपी के मूल कैडर में नाराजगी है. उसी को भुनाने की पूरी कोशिश कांग्रेस द्वारा की जा रही है. अशोकनगर के जिन नेताओं को कांग्रेस में बड़े तामझाम के साथ शामिल किया है वह भी इसी रणनीति का हिस्सा माने जा रहे हैं.
बीजेपी जब सत्ता में नहीं थी तब सिंधिया के कारण वह अपनी सरकार बनाने में सफल हुई थी. सिंधिया कांग्रेस के लिए उस समय भी राजनीतिक दर्द लेकर आए थे और आज सिंधिया का दर्द कांग्रेस को अपने लिए लाभदायक दिखाई पड़ रहा है. सिंधिया जब कांग्रेस में थे तो ग्वालियर चंबल अंचल में तमाम सारे सामंजस्य के बाद भी राजा और महाराजा के बीच में टकराव का परसेप्शन बना ही रहा करता था. कभी राजा तो कभी महाराजा एक दूसरे पर भारी दिखाई पड़ते थे. सिंधिया के जाने के बाद अब पूरे अंचल में राजा दिग्विजय सिंह और युवा नेता जयवर्धन सिंह कांग्रेस के चेहरे के रूप में भूमिका को अंजाम दे रहे हैं. वैसे पहले भी राजा दिग्विजय सिंह और जयवर्धन सिंह कांग्रेस में प्रभावी भूमिका में थे लेकिन अब तो उन्हें चुनौती देने वाला सिंधिया जैसा कोई भी नेता पूरे अंचल में नहीं है.
कांग्रेस में जो भी नेता वर्तमान में प्रभावी हैं वह सब उनके खेमे के ही माने जाते हैं. इसीलिए शायद कमलनाथ ने इस अंचल में सारा फोकस इन्हीं दोनों नेताओं पर छोड़ दिया है. कांग्रेस आगामी चुनाव में परिणामों और उनकी सरकार बनने को लेकर भले ही आश्वस्त न हो लेकिन पार्टी इस बात के लिए जरूर आश्वस्त है कि ग्वालियर चंबल अंचल में पार्टी की सीटें हर हालत में बढ़ेंगी.
नेताओं की हंटिंग और सेंधमारी में बीजेपी भी कम नहीं है. कांग्रेस की सरकार गिराकर तो बीजेपी ने कांग्रेस को चारों खाने चित कर दिया है लेकिन अब राजनीतिक सेंधमारी की शुरुआत कांग्रेस की ओर से की गई है. इसके जवाब में बीजेपी भी चुनाव तक अपने तरकश के तीर निकालेगी इसमें कोई संदेह नहीं है.
राजनीति में दलबदल आज सुविधा की राजनीति का जरिया बन गया है. कोई भी दल दलबदल से परहेज नहीं करता. राजनीतिक बातें जरूर लोकतंत्र और संविधान के हित में की जाती हैं लेकिन जब भी मौका आता है तो सत्ता के लिए सुविधाजनक नेता को पार्टी में शामिल कर लिया जाता है. कांग्रेस हाल ही में पार्टी से बगावत को उछालने के लिए गद्दार दिवस मना रही थी लेकिन अब दूसरे दलों से दलबदल कराकर क्या कांग्रेस गौरव दिवस मनायेगी?
कांग्रेस के अंदरूनी हलकों में यह बात कही जा रही है कि जो सिंधिया खेमा सरकार बनाने के लिए बीजेपी के लिए खेवनहार बना था वही खेमा चुनाव में पार्टी के लिए अब लायबिलिटी साबित हो सकता है.
बीजेपी संगठन की पार्टी है और संगठन में शामिल होने के बाद व्यक्ति से ज्यादा पार्टी की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है. बीजेपी के संगठनात्मक इतिहास को देखा जाए तो बाहर से आने वाले नेताओं को पार्टी के अंदर न केवल समाहित कर लिया जाता है बल्कि उन्हें सत्ता और संगठन में महत्वपूर्ण भूमिका भी दी जाती है. सिंधिया और उनके समर्थकों के साथ भी ऐसा ही देखा जा रहा है. हो सकता है कि स्थानीय स्तर पर पार्टी के अंदर पुराने कार्यकर्ताओं और नए लोगों के बीच में कहीं-कहीं मतभेद हो लेकिन इसके कारण पार्टी की संभावनाओं पर विपरीत प्रभाव को नियंत्रित करने में पार्टी सक्षम और कारगर लगती है.
कांग्रेस सिंधिया से हारी थी और सिंधिया के कारण ही जीतने का मंसूबा पाले हुए है. बीजेपी और कांग्रेस के अलावा मध्यप्रदेश में आम आदमी पार्टी, असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी और अन्य राजनीतिक दल भी चुनावी मैदान में ताकत के साथ उतरने का एलान कर चुके हैं. कांग्रेस और बीजेपी के बीच में नजदीकी मुकाबले वाली सीटों पर तीसरी ताकत उलटफेर कर पाएगी तो नतीजे दूसरे फैक्टर को पलट सकते हैं. लेकिन नतीजों से पहले दोनों दलों को दलबदल की बड़ी चुनौती का सामना करना होगा इतना जरूर तय है.