संसद में ऑपरेशन सिंदूर की सफलता और सेना के शौर्य पर चर्चा में आम सहमति दिखी, लेकिन सरकार और विपक्ष ने अपनी पॉलिटिकल कांस्टीट्यूएंसी को साधने में कोई कमी नहीं छोड़ी..!!
विपक्ष, सत्ता पक्ष की डिप्लोमेटिक भाषा को अपने आरोपों का जवाब मानने को तैयार नहीं है. देश की जीत पर विपक्ष के सरकार से सवाल पाकिस्तान में हैडलाइन बन गए हैं. राहुल गांधी के सवाल उनके पूर्वजों की ऐतिहासिक भूलों पर सरकार का जवाब बन गए.
पीएम नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने नेहरू और इंदिरा गांधी की नेशनल सिक्योरिटी पर राजनीतिक गलतियों के इतने गोले दागे, जो नए भारत की नई पीढ़ी के लिए चौंकाने वाला रहा है. संसद में चर्चा की भाषा का स्तर छिछोरा और गद्दार तक पहुंच गया.
जो विपक्ष पहलगाम के आतंकवादियों के मारे जाने या पकड़े जाने पर हर रोज सवाल कर रहा था, उसे ऑपरेशन सिंदूर की चर्चा के दौरान आतंकवादियों के मारे जाने पर खुशी दिखाई नहीं पड़ी. गृहमंत्री ने आतंकवादियों और सेना के मुठभेड़ की जानकारी देते हुए बताया कि, हमारे सैन्य बलों ने आतंकवादी हमले का बदला ले लिया है. तीनों आतंकवादियों को मार गिराया गया है.
इस सूचना पर खुशी प्रकट करने के बजाय विपक्ष इस ऑपरेशन की टाइमिंग पर सवाल खड़े करने लगा. पीएम नरेंद्र मोदी ने भी अपने उत्तर में इस बात पर आश्चर्य व्यक्त किया कि, आतंकवादियों को मारने के लिए चलाए गए ऑपरेशन महादेव की टाइमिंग पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं? हताशा और निराशा का यह कैसा स्तर है कि, आतंकवादियों को मारने के लिए किसी खास दिन का इंतजार करने की बात की जा रही है.
ऑपरेशन सिंदूर पर चर्चा और विशेष सत्र के लिए विपक्ष सरकार पर लगातार हमले कर रहा था. लेकिन संसद में चर्चा के दौरान जो भूमिका विपक्ष ने निभाई, उसको देखकर तो ऐसा लगा कि, अगर विशेष सत्र होता तो बोलने के लिए ही कुछ नहीं रहता.
ऑपरेशन सिंदूर में भारत की जीत और सैन्य पराक्रम पर पूरी चर्चा में कोई नई बात सामने नहीं आई. हर बात पहले भारतीय सेना और विदेश मंत्रालय द्वारा स्पष्ट की जा चुकी है. विपक्ष का सबसे बड़ा हमला इस बात पर सदन में था कि, अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप सीज फायर का क्रेडिट ले रहे हैं. राहुल गांधी ने तो यहां तक कहा कि, पीएम मोदी में अगर इंदिरा गांधी जैसा साहस है तो सदन में यह कह दें कि, ट्रंप झूठ बोल रहे हैं.
राहुल की भाषा सड़क की राजनीतिक जैसी भाषा थी. पीएम ने डिप्लोमेटिक भाषा में कहा कि, किसी भी देश के किसी भी नेता ने युद्ध रोकने के लिए नहीं कहा. उन्होंने अमेरिकी उपराष्ट्रपति से अपनी बातचीत और पाकिस्तान को गोली का जबाब गोले से देने के का खुलासा किया. यह बात सेना और विदेश मंत्रालय द्वारा पहले भी कही जा चुकी है. लेकिन जहां लक्ष्य, देश का सम्मान नहीं बल्कि राजनीतिक स्कोर का हो, वहां पीएम के बोलने के बाद भी राहुल गांधी और प्रियंका गांधी अपनी पुरानी प्रतिक्रिया पर ही कायम हैं कि, प्रधानमंत्री ने ट्रंप का नाम लेने का साहस नहीं दिखाया.
कांग्रेस इंदिरा गांधी को बांग्लादेश बनाने का क्रेडिट देते हुए उनकी इच्छा शक्ति की तुलना मोदी से करके उन्हें कमजोर बताने की कोशिश कर रही है. यद्दपि इंदिरा गांधी का एक पत्र सार्वजनिक हुआ है, जिसमें उन्होंने पाक से युद्ध बंद करने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन से मदद मांगी थी.
मोदी की तो ताकत ही उनकी दृढ़ता और वैचारिक इच्छा शक्ति है. गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में जब उन पर कांग्रेस ने दंगों के लिए आरोप लगाए, तब भी वह झुके नहीं. उसका मुकाबला किया, उनकी इसी छवि को भारत ने पसंद किया और उन्हें प्रधानमंत्री के पद पर वैठाया. कांग्रेस मोदी के मामले में जो गलती गुजरात में करती रही वहीं राजनीतिक गलती ऑपरेशन सिंदूर में कर रही है.
पाकिस्तान के सामने सरेंडर होने की बात कर राहुल गांधी मोदी का नहीं, देश का असम्मान कर रहे हैं. ऑपरेशन सिंदूर में सरकार ने एक टारगेट फिक्स किया. सेना को फ्री हेंड भी दिया गया. सेना ने भी दिए गए लक्ष्य को हासिल किया. दरअसल राजीव गांधी के समय यूनाइटेड नेशंस द्वारा विभिन्न पड़ोसी देशों को सैन्य कार्यवाई या सैन्य अभ्यास की जानकारी देने की अनिवार्यता तय की गयी थी. जिसके चलते सेना ने पाकिस्तान को ऑपरेशन की जानकारी दी. इस डिप्लोमेटिक ऑब्लिगेशन को राहुल गांधी अगर मोदी का सरेंडर मानते हैं तो फिर यह उनकी समझ और बुद्धि का फेर ही कहा जाएगा.
राहुल और प्रियंका गांधी ने सदन में अपना भाषण आत्मविश्वास के साथ दिया. लेकिन उसमें कोई गंभीरता दिखाई नहीं पड़ी. राहुल द्वारा पीएम पर छवि चमकाने के लिए सेना के उपयोग का आरोप स्तरहीन कहा जा सकता है. राहुल गांधी को इसलिए भारत में विशेष दर्जा है क्योंकि वह नेहरू, इंदिरा और राजीव गांधी के वारिस हैं.
ऑपरेशन सिंदूर पर राहुल के सवाल तो अपना कोई प्रभाव नहीं डाल पाए लेकिन सरकार ने अपने जवाब में जिस तरह से नेहरू व इंदिरा गांधी की ऐतिहासिक भूलों की बम वर्षा की, उससे बहुत सारे देशवासियों को नई जानकारी मिली. पीओके पर कब्जे पर सवाल, राहुल गांधी पीएम मोदी से करते हैं, तो जवाब मिलता है कि, भारत के इस हिस्से पर कब्जा आखिर किसकी सरकार में हुआ था?
बांग्लादेश युद्ध के समय भारत ने पाकिस्तान की बड़ी भूमि जीत ली थी. लाखों सैनिकों का समर्पण कराया था. फिर इंदिरा गांधी की राजनीतिक भूल के कारण सब कुछ लौटा दिया गया. तब अगर पीओके मांग लिया गया होता तो भारत को आज यह दिन देखना नहीं पड़ता.
कांग्रेस की पाकिस्तान परस्ती पहले भी बताई गई है. इस बार चर्चा में भी इस पर खूब जोर डाला गया. पीएम ने तो यहां तक कहा कि, कांग्रेस पाकिस्तान से मुद्दे इंपोर्ट करती है. पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा सिंधु जल समझौते को देश के खिलाफ बताते हुए उसको एंबिएंस में रखने के निर्णय को सदन में खूब उछाला गया. सरकार ने कांग्रेस को उनकी पुरानी गलतियों पर घेरा तो कांग्रेस अपने अंदरुनी हालातों के कारण भी एक्सपोज हुई.
विदेशी डेलिगेशन में गए कांग्रेस सांसदों को बोलने का मौका नहीं देकर कांग्रेस बेकफुट पर आई. पूर्व मंत्री पी. चिदम्बरम द्वारा चर्चा के पहले ही यह बयान देना कांग्रेस को घर भारी पड़ गया कि, क्या इसकी पुष्टि है कि, आतंकवादी पाकिस्तान से आए थे? कांग्रेस की भाषा भले ही राजनीतिक कारणों से हो, लेकिन पाकिस्तान की भाषा से मिल जाती है. जो देश हित में नहीं हो सकती.
भारत-पाकिस्तान एक भौगोलिक स्थिति पर हैं, लेकिन अगर वैचारिक स्तर पर देखा जाएगा तो दोनों तरह के विचार भारतीय राजनीति में एक दूसरे के खिलाफ खड़े हुए हैं. बीजेपी हिंदूवादी राजनीति करती है, तो कांग्रेस मुस्लिम परस्त राजनीति करती रही है. इसीलिए वैचारिक रूप में दोनों में कोई मेल नहीं हो सकता. आतंकवाद और धर्मनिरपेक्षता ऐसे शब्द हो गए हैं जो एक खास वर्ग से जुड़ जाते हैं. इस चर्चा में भी हिंदू और भगवा आतंकवाद का उपयोग कर पीएम ने बीजेपी की वैचारिक धारा को ही आगे बढ़ाया.
संसद की चर्चा रिकार्ड में तो दर्ज हो गई है लेकिन देश के मन में किसकी बात दर्ज हुई है, यह तो आम चुनाव ही बताएगें. पुलवामा की घटना के बाद एयर स्ट्राइक पर तो भारत ने आम चुनाव में पीएम मोदी और सरकार पर ही भरोसा जताया. इतिहास तो यही कहता है कि, विदेशी युद्ध में सरकार और प्रधानमंत्री को ही राजनीतिक लाभ मिलता रहा है.
पूरी चर्चा को सुनने वाला अपने-अपने समर्थक दल के साथ ही अडिग रहेगा. राजनीतिक दल चर्चा में बात राष्ट्रहित की कर रहे थे लेकिन सबका लक्ष्य दलीय हित ही दिख रहा था. अपने पूर्वजों की ऐतिहासिक भूलों को फिर से देश के सामने रखवाने के लिए राहुल गांधी अगर जिम्मेदार हैं, तो यह तारीफ योग्य तो नहीं है.
वैसे भी मोदी और राहुल का जब सदन में वैचारिक सामना होता है, तब तराजू काफी ऊपर नीचे ही होता है. जो राजनीतिक और वैचारिक झगड़ा मोदी और विरोधियों के बीच वर्ष 2014 से शुरू हुआ है, वह ऑपरेशन सिंदूर की सदन में चर्चा के दौरान भी पूरी ताकत से दिखाई पड़ा. चुनावी भविष्य पर इसका असर तो वक्त के साथ ही साबित होगा.