सियासत में विरोधियों से जंग तो संवैधानिक व्यवस्था है लेकिन राजनीतिक दलों में आंतरिक असंतोष और टकराहट चुनाव के पहले सभी दलों को हलाकान कर देती है. कोई राज्य कोई राजनीतिक दल आंतरिक असंतोष और नेताओं की आपसी खींचतान से अछूता नहीं है..!
फूफाजी जैसे अपनी नाराजगी व्यक्त करने के लिए ससुराल में किसी बेटे की विवाह की प्रतीक्षा करते हैं, वैसे ही सियासी लोग इलेक्शन से पहले अतीत वर्तमान के हिसाब के साथ ही भविष्य के सियासी गणित को साधने में कोई कमी नहीं छोड़ते. सियासी झगड़े के रंग देखकर साफ महसूस किया जा सकता है कि यह जंग सियासी अकाल की है या सियासी मालामाल की है.
अकाल और मालामाल के दौर के सियासी रंग अलग-अलग होते हैं. मध्यप्रदेश में विधानसभा का चुनाव अब दिनों में गिना जाने लगा है. हर विधानसभा क्षेत्र में सियासी सूरमा धीरे-धीरे चुनावी अखाड़े के लिए कसरत चालू कर चुके हैं. राजनीतिक दल सरकार बनाने के लिए रणनीति बनाते हैं. अंचल और विधानसभा के नेता अपने टिकट और जीत सुनिश्चित करने के लिए जोर आजमाइश शुरू कर देते हैं.
मध्यप्रदेश में दोनों मुख्य दल बीजेपी और कांग्रेस में सियासी खींचतान के नजारे साफ दिखाई पड़ रहे हैं. हर दिन ऐसी खबरें आ जाती हैं कि नेताओं के बीच में अहम और ताकत का टकराव सतह पर आ गया है. सत्ताधारी दल में वर्चस्व की जंग होती है तो विपक्षी दल में जमावट की जंग होती है. सवाल ये उठता है कि राजनीतिक दलों के संगठन क्या इतने कमजोर हो गए हैं कि संगठन पर व्यक्ति हावी हो गए हैं. व्यक्ति क्या राजनीतिक रूप से और आर्थिक रूप से इतने ताकतवर हो गए हैं कि संगठन उनके आगे बौना हो गया है?
राजनीति को सेवा का क्षेत्र कहा तो जाता है लेकिन राजनीति में थोड़ी बहुत पहुंच बनाने में सफल होने वाला व्यक्ति समृद्धि के पायदान पर पहुंच ही जाता है. यहां तक कि नगरों और गांव में पंचायत और स्थानीय संस्थाओं की राजनीति करने वाले प्रतिनिधि भी भरे पेट ही दिखाई पड़ते हैं. सियासत में समृद्धि की संभावनाएं क्या आंतरिक संघर्ष को बढ़ाने का काम करती हैं?
बिना किसी लाभ के सेवा के लिए अपना सर्वस्व त्याग करने की मानसिकता तो अब दूर की कौड़ी ही कही जाएगी. ऐसा सामान्य रूप से कहा जाता है कि राजनीति में भ्रष्टाचार देश की एक बड़ी समस्या है. डिजिटल गवर्नेंस से पारदर्शिता बढ़ी है. इसके बाद भी राजनीतिक भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने में अभी बहुत अधिक प्रयास करने की जरूरत है. देश में अगर देखा जाए तो राजनीतिक भ्रष्टाचार के बहुत बड़े-बड़े मामले उजागर हुए हैं. करोड़ों रुपए सियासत से जुड़े लोगों से जब्त हुए हैं.
राजनीतिक दलों के अंदर नेताओं और कार्यकर्ताओं के बीच में आंतरिक संघर्ष और असंतोष वहां ज्यादा प्रभावी दिखाई पड़ता है जहां सत्ता की राजनीति में लंबे समय से सियासत से जुड़े लोगों में समृद्धि दिखाई पड़ती है. पहले कभी एक विधानसभा क्षेत्र में दो चार लोग ऐसे होते थे जिनमें ऐसी आर्थिक क्षमता होती थी कि वह विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए सक्षम होते थे. विधानसभा में टिकट मांगने वालों की संख्या भी सीमित थी.अब धीरे-धीरे विधानसभा में सैकड़ों की संख्या में लोग आर्थिक रूप से संपन्न हो गए हैं. इसके कारण कुछ भी हों लेकिन संपन्नता तो दिखाई पड़ती है. राजनीतिक दलों में उभरकर सामने आ रहे असंतोष के पीछे समृद्धि के रंग साफ महसूस किए जा सकते हैं.
राजनीतिक दलों के संगठनों और शीर्ष नेतृत्व को पार्टियों के अंदर असंतोष को नियंत्रित करना कठिन होता जा रहा है. सामान्य कार्यकर्ता तो छोड़िए मुख्यमंत्री, उप मुख्यमंत्री और मंत्री रह चुके नेता भी पार्टियों से बगावत करते देखे जाते हैं. अभी हाल ही में संपन्न हुए कर्नाटक चुनाव में सत्ताधारी पार्टी को बड़े नेताओं की बगावत से दो-चार होना पड़ा है.
आलम यह है कि किसी अंचल में मंत्रियों के बीच में खूनी जंग चल रही है तो कहीं टिकट पाने के लिए एक दूसरे को निपटाने के प्रयास हो रहे हैं. कहीं भावी संभावनाओं के आधार पर स्वयं की संभावनाएं मजबूत करने के लिए दूसरे को निपटाने की योजनाएं बन रही हैं तो कहीं एक दूसरे के काले चिट्ठे निर्णायक लोगों तक पहुंचाने में जुटे हुए हैं. चुनाव के पहले बदलाव की सुगबुगाहट भी सुनाई दे रही है.
राज्य स्तर के संगठन तो इन परिस्थितियों में कमजोर साबित हो रहे हैं. अब तो आलाकमान भी असंतोष को थामने में मजबूर सा साबित दिख रहा है. बड़ी बात यह है कि अब आलाकमान भी ऐसे व्यक्तियों को प्राथमिकता दे रहे हैं लीडर से ज्यादा फंड मैनेजर के रूप में सफल होने की योग्यता रखते हों.
चुनाव में रणनीतियां बनाने के लिए बैठकें तक नहीं हो पा रही हैं. नेताओं के बीच असंतोष खुलकर सामने आ रहा है. मान-मर्यादा की अहमियत, वरिष्ठता और राजनीतिक शिष्टाचार की सीमाएं टूट रही हैं. लक्ष्य केवल चुनावों में अपनी भूमिका सुनिश्चित करना है. चुनाव के बाद के लिए भी समीकरण चुनाव के पहले ही सेट कर लिए जाते हैं. टिकट वितरण में भी यही होता है कि अपने समर्थकों को ज्यादा उपकृत किया जाए ताकि मौका आने पर सत्ता के शीर्ष पद के लिए समर्थक विधायक ज्यादा उपलब्ध हो सकें.
सियासत के नजारे वैसे अब आम लोगों द्वारा बुरी नजर से ही देखे जाते हैं. मजबूरी है कि सिस्टम सियासत से ही चल रहा है इसलिए लोग चुपचाप सब कुछ देखते और महसूस करते रहते हैं. सियासत शायद अतीत को याद नहीं रखती. वर्तमान और भविष्य के लिए ही सियासी जंग सबसे ज्यादा होती है. अतीत का इतिहास याद रखा जाए तो सियासी जंग मर्यादा में ही रहेगी.
मध्यप्रदेश में भी सियासी जंग पहले कम नहीं हुई हैं. भितरघात और एक दूसरे को ठिकाने लगाने के अनेक किस्से सुने-सुनाये जाते हैं. सत्ता में अब शायद ‘मैं’ की भूमिका ज्यादा हो गई है. यही ‘मैं’ सत्ता के अहंकार का कारण है. ‘मैं’ का अहंकार ही आत्मबोध के रास्ते में बड़ी बाधा है. सियासी लड़ाई तो सत्ताबोध के अलावा आत्मबोध को याद ही नहीं आने देती.