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न्यायिक प्रक्रिया में खो गया, ब्लास्ट

सार

मुंबई ट्रेन ब्लास्ट मामले के अदालती फैसले ने न्याय में नज़र का नज़ारा पेश किया है. नीचे की अदालत में ब्लास्ट के लिए जिन आरोपियों को फाँसी और आजीवन कारावास की सजा दी. उच्च न्यायालय ने उन सभी को बरी कर दिया..!!

janmat

विस्तार

    महाराष्ट्र सरकार के लिए यह फैसला चुभने वाला था. सरकार तुरंत सुप्रीम कोर्ट गई. सर्वोच्च अदालत में उच्च न्यायालय के निर्णय पर रोक तो लगाई लेकिन जो आरोपी जेल से रिहा कर दिए गए थे, उन्हें राहत दे दी. आरोपियों को फिर से जेल नहीं भेजा जाएगा. उन्हें जवाब देने के लिए नोटिस जारी किया गया.

    निचली और उच्च अदालतों में एक ही प्रकरण में फैसले इतने उल्टे आते हैं कि, दृष्टिकोण ही समझना असंभव हो जाता है. कई फैसले तो ऐसे आते हैं, जिसमें अंततः अपराधिक घटनाओं के आरोपी बरी हो जाते हैं. आरोपियों का बरी होना यह तो नहीं साबित करता कि, वह अपराध ही नहीं हुआ, जिसमें उनको सजा मिली थी. 

    मुंबई ट्रेन ब्लास्ट के मामले में भी यह सवाल तो है कि, जिस आतंकवादी हमले में सैंकड़ों लोगों की जान गई हो उस घटना के लिए अदालत में किसी को भी दोषी साबित नहीं किया जा सका. इसका मतलब है, न्यायिक प्रक्रिया में ब्लास्ट और लाशें खो गई. न्यायाधीश भगवान का रूप हैं, इसलिए उन पर सवाल नहीं उठता लेकिन जिस निचली अदालत ने यह फैसला दिया था, वह भी इसी भूमिका को निभाते हैं.

    सबसे बड़ा सवाल कि, जिन सबूतों के आधार पर निचली अदालत द्वारा अपराधियों को फांसी और अजीवन कारावास की सजा दी गई थी, उन्हीं सबूतों को उच्च अदालत द्वारा सजा के लिए पर्याप्त नहीं माना गया. मतलब सबूत एक लेकिन फैसला अलग-अलग. इसका मतलब है कि, सबूत को देखने का न्यायाधीशों का नजरिया सबूत से ज्यादा महत्वपूर्ण है. 

    सबूत अपने आप में कुछ नहीं कहता. न्यायाधीश की नज़र और नजरिया मायने रखता है. जिन आरोपियों को सबूतों को आधार मानते हुए सजा दी गयी थी, उन्होंने दस साल जेल में गुजारे. अगर वह दोषी नहीं थे, फिर भी उन्हें जेल जाना पड़ा तो फिर निचली अदालत का फैसला उनके साथ अन्याय साबित हुआ.

    न्यायिक प्रक्रिया में विलंब से अन्याय शुरू होता है. अगर इसी प्रक्रिया की समीक्षा की जाए तो निचली अदालत और उच्च अदालत के फैसले के बीच दस वर्षों का समय लगा. अगर यह फैसला एक निश्चित समय अवधि में आ गया होता तो किसी भी बेकसूर व्यक्ति को जेल में नहीं रहना पड़ता. अदालतों में प्रकरणों के लिए कोई टाइम बाउंड एक्शन नहीं होता. न्यायिक प्रक्रिया में विलंब के कारण जांच एजेंसी में जिन्होंने जांच की, वह रिटायर हो जाते हैं. ऐसी स्थिति में अदालत के सामने सही तथ्यों को प्रस्तुत करने में कठिनाई आती है.

    मुंबई में ट्रेन ब्लास्ट पर तो कोई शंका नहीं है. सैकड़ो लोगों ने अपनी जानों को गंवाया है. ऐसे परिवार अभी भी न्याय की उम्मीद लगाए हुए थे, जिनके प्रियजन मौत के शिकार हुए थे. अब जब उच्च अदालत का फैसला आया है तो आरोपियों को रिहा कर दिया गया. न्यायिक प्रक्रिया के कारण जहां घटना में मौत का शिकार हुए परिवार अन्याय से पीड़ित हुए हैं, वहीं आरोपियों को भी न्याय के अन्याय से गुजरना पड़ा है. 

    कम से कम ऐसी घटनाओं में जहां आतंकवादी हमले में सैकड़ों लोग मारे गए हों वहां, न्यायिक प्रक्रिया को सावधानी और सतर्कता की जरूरत होती है. अगर निचली और उच्च अदालत के नजरिए  में अंतर है तो फिर घटनाक्रम की नए सिरे से जांच होना चाहिए. घटना तो हुई है. घटना के लिए कोई तो जिम्मेदार है? जो जिम्मेदार है वह बच निकले, यह तो न्याय का तकाजा नहीं हो सकता. 

    यह कोई पहला मामला नहीं है. ऐसे कई मामले आते हैं, जिसमें  निचली अदालत से दोष सिद्ध आरोपी, ऊपरी अदालत में दोष मुक्त हो जाता हैं. निचली और उच्च अदालत के फैसलों के बीच समय में इतना अंतर होता है कि, सजा पाया आरोपी लंबी सजा भुगत चुका होता है. ना तो घटना में आहत परिवार को न्याय मिल पाया और ना ही आरोपी ही पूर्ण न्याय का हकदार बना. ऐसी परिस्थितियां न्याय की दृष्टि से बहुत सही नहीं कहीं जा सकती.

    निचली और उच्च अदालत के बीच एक मानसिक विवाद भी काम करता है. इस बारे में अभी हाल ही में उच्च न्यायालय जबलपुर द्वारा दिए गए फैसले में कहा गया कि, उच्च और निचली अदालत के बीच सामंती मानसिकता काम करती है. इस मानसिकता का आशय है कि, जो बड़ा है वह छोटे को कुछ भी नहीं समझता. उच्च न्यायालय की यह टिप्पणी, निचली अदालत के एक जज को बर्खास्त करने के मामले में की. 

   यह फैसला इतना समझने के लिए पर्याप्त है कि, उच्च अदालत निचली अदालत को नकारात्मक दृष्टि से देखती है. अदालत भी इसी समाज का हिस्सा है. जो बुराई समाज में है, वह अदालतों में भी पहुंचेंगी, इसमें कोई शंका नहीं है. अदालतों में भ्रष्टाचार के भी मामले आते हैं. अभी जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ महाभियोग का मामला राजनीतिक क्षेत्र में विचार में चल रहा है. 

    न्यायाधीशों को इम्यूनिटी प्राप्त है. इसलिए उनकी जवाबदारी अधिक बढ़ जाती है. न्यायिक प्रक्रिया में  सुधार की गुंजाइश बनी हुई है. ट्रेन ब्लास्ट में सैकड़ों लोग मारे जाते हैं. निचली अदालत से फांसी की सजा पाने वाले उच्च अदालत द्वारा छोड़ दिए जाते हैं. सबूत एक है लेकिन फैसला अलग-अलग है. यह तो न्यायिक ब्लास्ट जैसा ही है. फैसले में ट्रेन ब्लास्ट की घटना ही खो गई है. अलग-अलग स्तर पर न्याय में अलग-अलग फैसले, अलग-अलग परिस्थितियों में न्याय और अन्याय की कहानी कहते हैं.

   न्यायाधीशों को कुछ ऐसा करना चाहिए कि, न्याय हो और अन्याय को किसी भी हालत में संरक्षण ना मिले. न्याय ही परम शक्ति है और यह शक्ति, देश की न्याय भक्ति पर टिकी हुई है.