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लोकतंत्र की शान, संसद पर दो धाराओं में बंट गया हिंदुस्तान

सार

लोकतंत्र हासिल करने के लिए भारत को विभाजन का दर्द झेलना पड़ा था. भौगोलिक विभाजन के बाद पाकिस्तान और हिंदुस्तान की अब तक की कथा वैचारिक विभाजन की कड़वी सच्चाई के रूप में हमारे सामने है..!

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विस्तार

आजादी के अमृत काल में लोकतंत्र की आन बान शान और पहचान संसद का नया भवन नए भारत के गौरव के प्रतीक के रूप में तैयार हो गया है. संसद के उद्घाटन को लेकर देश राजनीतिक रूप से विभाजित दिखाई पड़ रहा है. विभाजन के केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का समर्थन और विरोध दिखाई पड़ रहा है. वैचारिक स्तर पर देखा जाए तो हालात वैसे ही दिखाई पड़ते हैं जैसे लोकतंत्र के लिए देश का बंटवारा हुआ था. धर्म के आधार पर एक नया राष्ट्र बना दिया गया था. भारतीयता को उस समय भी नजरअंदाज किया गया था.

राजनीति में विचारधारा का संघर्ष सामान्य बात है लेकिन किसी विचारधारा का नफरत और कट्टरता की सीमा तक विरोध देशहित की राजनीति नहीं कहीं जाती. लोकतंत्र में जनादेश सबसे बड़ी कसौटी है. जनादेश प्राप्त जननेता के नाम पर देश की संसद के उद्घाटन समारोह के ही बहिष्कार की राजनीतिक कट्टरता कालांतर में लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों का ही क्षरण करेगी.

एक साथ ही लोकतांत्रिक देश के रूप में अस्तित्व में आए भारत और पाकिस्तान के राजनीतिक हालात आज जमीन आसमान जैसे अलग-अलग हैं. पाकिस्तान जहां अतिवाद, आतंकवाद, अराजकता और सैन्य शासन की बुराइयों का राष्ट्र बन गया है वहीं भारत दुनिया में लोकतंत्र की जननी के रूप में लगातार अपने महत्व को स्थापित कर रहा है. कई विषमताओं के बाद भी पकिस्तान की तुलना में भारत आज दुनिया में मज़बूत पहचान बनाने की ओर अग्रसर है.

आजादी के बाद कांग्रेस ही एकमात्र राजनीतिक विचारधारा के रूप में काम करती रही. कांग्रेस शासन की मुख्य भूमिका निभाती रही विपक्षी राजनीति गैर कांग्रेसवाद पर खड़ी हुई. जो विपक्षी राजनीति कांग्रेस के खिलाफ देश में शुरू हुई थी, वह आज बीजेपी और नरेंद्र मोदी के विरोध में खड़ी होने की कोशिश कर रही है. नया संसद भवन भी विरोध की इसी राजनीति का शिकार हो गया है.

विपक्ष चाहता है कि नए संसद भवन का नरेंद्र मोदी उद्घाटन नहीं करें. मोदी के उद्घाटन करने के विरोध में जितने भी पक्ष एकजुट हुए हैं वह सब वही हैं जो राजनीतिक रूप से बीजेपी के विरोध में काम कर रहे हैं. वैचारिक रूप से राजनीति के दो धाराओं में बंटने से देश के सामने चुनाव के लिए स्पष्ट दृष्टिकोण और नेता उपलब्ध होगा. लोकतंत्र में ऐसे हालात प्रगतिशील ही कहे जाएंगे. नया संसद भवन 2024 के चुनाव की राजनीतिक सोच का शिकार हो गया है.

संसद भवन के उद्घाटन के विपक्षी विरोध को समझने के लिए नरेंद्र मोदी के राजनीतिक जीवन को समझना जरूरी होगा. गुजरात में मुख्यमंत्री के रूप में राजनीतिक घृणा का जैसा अनुभव मोदी ने किया वैसा शायद किसी भी अन्य नेता ने नहीं किया होगा. राष्ट्रीय राजनीति के लिए जब बीजेपी की ओर से उन्हें प्रधानमंत्री उम्मीदवार के रूप में 2014 में पहली बार प्रस्तुत किया गया तब कांग्रेस और बीजेपी की राजनीतिक धाराओं में धार आना शुरू हुई. फिर 2019 के चुनाव में यह धार और तेज हुई. इन दोनों चुनावों में देश ने नरेंद्र मोदी के पक्ष में जनादेश दिया. सबके स्वार्थों की पूर्ति और घालमेल की परंपरागत राजनीति को नरेंद्र मोदी ने न स्वीकार किया और ना ही उसे चलने दिया.

पहले तो मोदी का विरोध संतुलित था लेकिन उनके कार्यकाल के दूसरे 5 साल में विपक्षी दलों ने ऐसा महसूस किया कि मोदी की रणनीतियां सफल हो गई तो देश उनका मुरीद हो जाएगा और विपक्ष का अस्तित्व सत्ता की राजनीति में कठिन हो जाएगा. यहीं से विरोध की राजनीति नफरत और कट्टरता की तरफ मुड़ गई है. लोक लुभावन वायदे जैसे ध्रुवीकरण का कम करते हैं वैसे ही नफरत भी ध्रुवीकारण का काम करती है. सभी राजनीतिक दल ऐसे ही ध्रुवीकरण को धार देने में लगे हैं.

हर उस मुद्दे पर मोदी का विरोध किया जा रहा है जिसका राजनीति से ज्यादा देश से संबंध है. नरेंद्र मोदी की सरकार द्वारा जब भी देश हित में कदम उठाए गए तब मोदी विरोधी विपक्ष ने राष्ट्रहित के मुद्दों पर भी उनका विरोध किया. सेना की सर्जिकल स्ट्राइक का भी विपक्ष द्वारा विरोध किया गया. पुलवामा के हमले के बाद भारतीय सैनिकों की शहादत का बदला लेने के लिए बालाकोट एयर स्ट्राइक पर भी सवाल उठाए गए. कश्मीर में धारा 370 हटाने पर भी मोदी सरकार का विरोध किया गया. नागरिकता संशोधन कानून का भी मोदी विरोधी विपक्षी दलों द्वारा पुरजोर विरोध किया गया.

लोकतंत्र में विरोध की राजनीति न केवल जरूरी है बल्कि संसदीय प्रणाली का प्राथमिक आधार माना जाता है. विरोध मुद्दों पर तो स्वीकार है लेकिन व्यक्ति का विरोध लोकतंत्र की भावनाओं का सम्मान नहीं कहा जाएगा. देश में अब हालात मोदी से प्यार करने वालों और मोदी से नफरत करने वालों के समूहों में विभाजित लगते हैं. जो लोग मोदी का विरोध कर रहे हैं वह पहले भी कभी मोदी का समर्थन नहीं करते थे. मोदी आज जिस स्थान पर खड़े हैं वह विपक्ष के नफरत की ईंटों पर ही बना हुआ है. नरेंद्र मोदी भी अपने फैसलों और कदमों के लिए अडिग रहते हैं. चुनौतियों को चुनौती देना उनका स्वभाव है. मोदी को पसंद करने वाले शायद उनके इसी स्वभाव के मुरीद हैं. 

भारत के लोकतंत्र को निर्णायक और मजबूत नेतृत्व की लंबे समय से तलाश थी. बहुमत के आधार पर जनादेश हासिल कर प्रधानमंत्री के पद पर पहुंचने वाले नरेंद्र मोदी पिछले दशकों के पहले नेता हैं. गठजोड़ की राजनीति से ऊबे भारत को फिर से गठजोड़ की राजनीति में ले जाने की कोशिश हो रही है. लोकतंत्र में जनादेश जनता के हाथ है. जनादेश के समय सभी विचारधाराओं को अपना पक्ष रखने का अवसर होता है. जनादेश प्राप्त नेता के वैचारिक विरोध में नफरत का पुट कभी लोकतंत्र में स्वीकार नहीं हो सकता.

नई संसद के लोकार्पण अवसर पर देश सौजन्यता की राजनीति की अपेक्षा कर रहा है. 2024 में तो जनादेश की कसौटी पर देश निर्णय करेगा ही लेकिन संसद को राजनीति का शिकार बनाना भारतीय लोकतंत्र के प्रति अनादर और अनास्था ही कही जाएगी. नई संसद बीजेपी या नरेंद्र मोदी की संपत्ति नहीं है. यह लोकतंत्र का मंदिर है यह देश की शान है. राजनीति में देश की शान से खिलवाड़ कोई देशभक्त नागरिक कैसे बर्दाश्त करेगा.