जातिगत जनगणना पर राहुल गांधी, लालू यादव, नीतीश कुमार और अखिलेश यादव से भी तेज दौड़ रहे हैं. जो कांग्रेस पार्टी दशकों तक देश में जातिगत जनगणना नहीं करा सकी, उस कांग्रेस के लिए आज जातीय जनगणना सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा बन गया है.
पंडित जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी ने अपने शासनकाल में जातीय जनगणना नहीं कराई तो क्या उनका नजरिया गलत था? राहुल गांधी क्या अपने पूर्वजों की गलती सुधार रहे हैं? नारी वंदन विधेयक में ओबीसी आरक्षण का प्रावधान यूपीए सरकार के समय नहीं किए जाने को राहुल गांधी गलती मानते हुए अफसोस व्यक्त कर रहे हैं. एमपी में चुनावी अभियान के अंतर्गत कालापीपल में राहुल गांधी का पूरा फोकस ओबीसी कार्ड और जातिगत जनगणना पर केंद्रित रहा. इस सभा का दूसरा सबसे बड़ा संदेश पीसीसी प्रेसिडेंट कमलनाथ का दावे से आया कि वे अभी वह बुड्ढे नहीं हुए हैं.
बिहार सरकार ने जातिगत जनगणना के आंकड़े जारी कर दिए हैं. जैसा वर्तमान में था कमोबेश वैसा ही दृश्य जातिगत जनगणना के आंकड़ों में भी उजागर हुआ है. जातिगत जनगणना चुनावी राजनीति का मुद्दा हो सकती है लेकिन यह भी उसी प्रकार से समाज में स्पष्ट है जैसा कि नेताओं की जवानी और बुढ़ापे के बारे में उम्र के आंकड़े नहीं बल्कि शरीर की हकीकत ही सब बता देती है. न जाति छुप सकती है और ना ही बुढ़ापा छुप सकता है. जवानी और जाति आज चुनावी गणित के लिए भले ही उपयोग की जा रही हो लेकिन दोनों को एक दिन मिट ही जाना है.
जातीय जनगणना की मांग इस देश में आजादी के समय से ही चली आ रही है. 1931 में जाति की जनगणना हुई थी. आजाद भारत में जाति की जनगणना नहीं हो सकी है. राहुल गांधी जिस कांग्रेस की विरासत संभाल रहे हैं उसी कांग्रेस के महान नेताओं पंडित जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी ने जातिगत जनगणना का तब भी समर्थन नहीं किया. पिछड़े वर्गों को शासकीय सेवाओं में आरक्षण भी कांग्रेस की सरकार में नहीं मिला. यहां तक की मंडल कमीशन का विरोध कांग्रेस द्वारा किए जाने के तथ्य तक उपलब्ध हैं. बिना जातीय जनगणना के कांग्रेस की सरकार ने ही पंचायती राज और स्थानीय निकायों में ओबीसी को आरक्षण दिया है.
राजनीतिक खींचतान में ओबीसी को लाभ से ज्यादा नुकसान पहुंचाया जा रहा है. राहुल गांधी के सहयोगी राजनीतिक दल टीएमसी द्वारा जातीय जनगणना का विरोध किया जा रहा है. ऐसा लगता है कि जातिगत जनगणना का मुद्दा मंडल और कमंडल के रूप में फिर से राजनीतिक आकाश में उछालने की पूरी कोशिश की जा रही है. जो कांग्रेस जातिगत जनगणना की विरोधी रही है वह कांग्रेस अचानक जातिगत जनगणना का इतना आक्रामक समर्थन कर रही है कि जातिवाद की राजनीति करने वाले क्षेत्रीय दल भी उससे पीछे दिखाई पड़ रहे हैं.
यद्यपि नीतीश कुमार ने जातिगत जनगणना के बिहार के आंकड़े जारी कर राहुल गांधी के ओबीसी कार्ड में पिन चुभोने का काम किया है. जातिवादी राजनीति करने वाले क्षेत्रीय दल यह कभी नहीं चाहेंगे कि कांग्रेस और राहुल गांधी जातीय राजनीति के उनके चुनावी आधार को प्रभावित कर सकें. राहुल गांधी यह दावा कर रहे हैं कि कांग्रेस के तीन राज्यों के मुख्यमंत्री ओबीसी वर्ग से आते हैं. कांग्रेस शासित राज्यों में कांग्रेस सरकारों द्वारा जातिगत जनगणना की पहल नहीं करना उनके इस चुनावी मुद्दे की हवा निकालने के लिए पर्याप्त है.
बीजेपी भी यह दावा करती है कि देश को पहला ओबीसी पीएम बीजेपी ने दिया है. एमपी में बीजेपी ने 20 सालों में तीन नेताओं को मुख्यमंत्री बनाया. यह तीनों नेता उमा भारती, बाबूलाल गौर और शिवराज सिंह चौहान ओबीसी समाज से ही आते हैं. सांसदों और विधायकों की कुल संख्या में ओबीसी समाज की भागीदारी कांग्रेस की तुलना में बीजेपी में कहीं अधिक बताई जाती है.
बिहार सरकार द्वारा जारी जातिगत जनगणना के आंकड़ों में बहुत दिलचस्प तथ्य है कि ओबीसी की संख्या 27% है और अति ओबीसी की संख्या 36 प्रतिशत बताई गई है. निश्चित रूप से ओबीसी और अति ओबीसी को वर्गीकृत करने के लिए आय सीमा को आधार बनाया गया होगा. ओबीसी के आरक्षण में क्रीमीलेयर की व्यवस्था लागू है.
बिहार की जातिगत जनगणना के आंकड़ों से यह स्पष्ट हो रहा है कि इनमें ओबीसी जातियों के आर्थिक आधार की गणना की गई है. ऐसा लगता है कि क्रीमीलेयर के आधार पर आरक्षण की सीमा में आने वाले ओबीसी वर्गों की जनगणना के आंकड़े इन वर्गों को मिल रहे आरक्षण की सीमा से अधिक नहीं हो सकते. जातीय जनगणना के आंकड़े ओबीसी में आरक्षण का अतिरिक्त लाभ देने का आधार नहीं बन सकते. कांग्रेस और दूसरे राजनीतिक दल ओबीसी समाज में क्रीमीलेयर को समाप्त करने का राजनीतिक साहस नहीं दिखा सकते हैं. क्रीमीलेयर के अंतर्गत आने वाले ओबीसी समाज की जनसंख्या के अनुपात में तो आरक्षण वर्तमान में ही मिल रहा है.
ओबीसी वर्ग में बहुत सारी जातियां ऐसी हैं जो सामान्य वर्गों से भी ज्यादा समृद्ध होने के साथ ही राजनीतिक और सामाजिक रूप से सशक्त हैं. इन वर्गों में ओबीसी और अति ओबीसी की कल्पना इसीलिए शायद आगे बढ़ रही है क्योंकि इस समाज के सबसे पिछड़े लोगों को आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए. सरकारी क्षेत्र में आरक्षण की सुविधा के अवसर और संभावना लगातार कम होती जा रही हैं.
निजी क्षेत्र में आरक्षण की व्यवस्था नहीं होने के बावजूद आरक्षित समुदायों के होनहार युवा बड़ी संख्या में अच्छे मौकों का लाभ उठा रहे हैं. बिना आरक्षण की व्यवस्था के निजी क्षेत्र में योग्यता के आधार पर सभी समाजों के युवाओं की विद्वता साफ-साफ देखी जा सकती है. राहुल गांधी और सरकारों को निजी क्षेत्र में आरक्षित समुदायों की उपस्थिति की गणना जरूर करना चाहिए ताकि देश के राजनेताओं का नजरिया खुल सके कि केवल आरक्षण मात्र ही बराबरी और समानता का जरिया नहीं है. संविधान निर्माताओं ने आरक्षण की जो कल्पना की है वह लागू है और लागू रहेगी लेकिन आरक्षण की व्यवस्था को राजनीतिक लाभ के लिए मोहरा बनाने की नेताओं की प्रवृत्ति समाज के लिए घातक हो सकती है.
नेताओं की महानता का इससे बड़ा नमूना क्या होगा कि 76 साल की उम्र में भी जवान होने का दावा किया जा रहा है. नेताओं के लिए देश में जवानी की गणना का अलग फार्मूला है और सामान्य लोगों के लिए अलग फार्मूला है. सरकारी दस्तावेजों में तो ओल्ड एज पेंशन के लिए 60 साल की न्यूनतम उम्र निर्धारित है. सरकारी सेवाओं में भी रिटायरमेंट की उम्र अलग-अलग राज्यों में 60 या 62 साल रखी गई है. भारतीय नीति शास्त्रों में तो 75 साल के ऊपर संन्यास की उम्र बताई गई है. राजनीति में रिटायरमेंट की कल्पना देश तो करता है लेकिन राजनेता तिरंगे में लिपटकर इस दुनिया से विदा होने की कल्पना में ही लीन रहते हैं. आभामंडल मंडल और कमंडल से ऊपर होता है.