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एक बार की जीत, सारा जीवन जनधन से सुविधाओं की प्रीत 

सार

जनधन के सदुपयोग और दुरुपयोग पर पक्ष और विपक्ष में आरोप-प्रत्यारोप लोकतंत्र का स्थायी भाव बन गया है. राजनीतिक लड़ाइयां कई बार तो ऐसी दिखती हैं जैसे कि जनता के लिए गला काट प्रतिस्पर्धा चल रही हो. चुनाव के समय तो ऐसे दृश्य फिल्मी दृश्य को भी मात करते हुए दिखाई पड़ते हैं. इस सबके बीच जब निजी हितों का मामला आता है तो जनप्रतिनिधियों में दलीय सीमाओं से हटकर एकता और एकजुटता लाजवाब ढंग से दिखाई पड़ती है..!

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विस्तार

कर्मचारी पेंशन और वेतन के लिए सड़कों पर संघर्ष करते दिखाई पड़ते हैं लेकिन लोकतंत्र के जनप्रतिनिधियों को कभी सड़कों पर संघर्ष करते नहीं देखा जा सकता. सड़कों पर संघर्ष तो जनता के लिए करते हुए दिखाया जाता है लेकिन उनके सारे वेतन भत्ते और सुविधाएं आम सहमति से बढ़ जाती हैं. मध्यप्रदेश की वर्तमान विधानसभा का यह अंतिम बजट सत्र चल रहा है. चुनाव के लिए सभी राजनीतिक दल अपनी-अपनी चौसर बिछा रहे हैं. पूर्व विधायक और वर्तमान विधायक इसी चौसर में अपने वेतन भत्तों, पेंशन को बढ़ाने का भी दांव चल रहे हैं.

वैसे तो विधानसभा अध्यक्ष को सदन के संचालन में विपक्ष निष्पक्ष नहीं मानता लेकिन वेतन भत्तों सुविधाओं और पेंशन को बढ़वाने में विपक्ष अध्यक्ष के माध्यम से ही अपनी बात मनवाने का प्रयास करता है. यह लगभग सुनिश्चित माना जा रहा है कि बजट सत्र के अंत तक मध्यप्रदेश में विधायकों और पूर्व विधायकों के वेतन भत्तों में बढ़ोतरी का ऐलान हो जाएगा. 

मांग होगी विपक्ष की, अध्यक्ष का हस्तक्षेप होगा और व्यापक हित में सरकार उसको स्वीकार कर लेगी. बिना किसी चर्चा के आम सहमति से यह वृद्धि हो जाएगी. उस समय विपक्ष का कोई भी विधायक यह नहीं कहेगा कि जब तक सरकार कर्मचारियों के लिए ओल्ड पेंशन स्कीम लागू नहीं करती तब तक वेतन भत्तों में वृद्धि का कोई भी प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया जाएगा.

लोकतंत्र की नैतिकता उस समय चुपचाप हो जाएगी, राजनीतिक भेदभाव भुला दिया जाएगा और जन धन से निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के लिए वेतन भत्ते, पेंशन और सुविधाएं बढ़ा दी जाएंगी. इस वृद्धि का क्या तर्क है इसके लिए एक्सपर्ट के कमीशन ने क्या कोई अनुशंसा की है? अधिकारी कर्मचारियों के लिए तो वेतन आयोग की जरूरत होती है लेकिन निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के लिए ऐसे किसी तार्किक कारण की आवश्यकता नहीं होती.

मध्यप्रदेश में विधानसभा अध्यक्ष की ओर से एक और प्रस्ताव दिया गया है जिसमें यह मांग की गई है कि पूर्व विधानसभा अध्यक्ष को भी पूर्व सीएम की तरह सैलरी और सुविधाएं दी जानी चाहिए. मध्यप्रदेश में ऐसा पहली बार हो रहा है कि रिटायरमेंट के बाद पूर्व विधानसभा अध्यक्ष कैबिनेट मंत्री की सैलरी और सुविधाएं मांग रहे हैं. इस संबंध में निश्चित ही फैसला सरकार और मुख्यमंत्री द्वारा किया जाएगा क्योंकि पूर्व मुख्यमंत्रियों को पहले से ही इस तरह की सुविधाएं मिली हुई हैं. इसलिए विधानसभा अध्यक्ष को भी यह सुविधाएं मिलने में ज्यादा कठिनाई नहीं होगी और यह व्यवस्था कायम हो सकती है.

इस बात का लगातार विरोध हो रहा है कि निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को रिटायरमेंट के बाद सैलरी और सुविधाएं क्यों मिलना चाहिए? राजनीति सेवा के लिए होती है या वेतन-भत्तों सुविधाओं के लिए? लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में शासन के सारे सूत्र निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के हाथ में ही होते हैं. इसलिए यदि निर्वाचित तंत्र ने अपने लिए ही सभी तरह की सुविधाएं लेने का मन बना लिया तो उनको रोकने वाला तो सिस्टम में कोई नहीं हो सकता.

कमोबेश हर राज्य में विधायकों के वेतन भत्ते को बढ़ाया जाता है. अभी हाल ही में दिल्ली में विधानसभा में विधायकों के वेतन भत्तों को बढ़ाया गया. दिल्ली विधानसभा में आम आदमी पार्टी और बीजेपी के बीच तलवारें खिंची हुई हैं लेकिन जब वेतन भत्तों में बढ़ोतरी हुई तब दोनों के बीच सहमति देखी गई थी. राज्य वेतन भत्ते बढ़ाने के लिए दूसरे राज्य में लागू वेतन भत्तों और सुविधाओं का सहारा लेकर इसे तर्कसंगत बनाने की कोशिश करते हैं लेकिन अभी तक तो इसका जन विरोध नहीं हुआ लेकिन भविष्य में जन विरोध होने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है.

शासकीय अमले द्वारा इस तरह का वक्तव्य तो आता ही रहता है कि उनको मिलने वाले वेतन भत्तों में तो कटौती की जाती है लेकिन निर्वाचित प्रतिनिधि अपना वेतन भत्ता और सुविधाएं स्वयं बढ़ा लेते हैं. ओल्ड पेंशन स्कीम की मांग करने वाले कर्मचारी इस बात को लगातार उठा रहे हैं कि जब निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को सारी सुविधाएं मिल जाती हैं तो उन्हें ओल्ड पेंशन स्कीम क्यों नहीं मिलना चाहिए?

जनप्रतिनिधियों को कामकाज संचालन की दृष्टि से साधन सुविधाएं दी जानी चाहिए, उनमें कोई आपत्ति नहीं होना चाहिए. इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर कोई आयोग बनना चाहिए जो यह निर्धारित करें कि विधानसभा के सदस्यों को कार्य संचालन के लिए किस-किस तरह की सुविधाएं मिलनी चाहिए. प्रत्येक राज्य में इसके लिए एक समान व्यवस्था होनी चाहिए. 

वर्तमान विधायकों के लिए तो यह व्यवस्था जायज मानी जा सकती है लेकिन पूर्व विधायकों को या अन्य जनप्रतिनिधियों को यह व्यवस्था कितने समय तक मिलनी चाहिए इस पर विचार होने की जरूरत है. इसके साथ ही रिटायरमेंट के बाद किसी भी पद के किसी भी व्यक्ति को कोई सैलरी और सुविधा देना कहां तक जायज है?

सियासत में संघर्ष क्या केवल राजनीतिक नजरिए से ही होता है. जब निजी हितों की बात आती है तब कोई टकराव दिखाई नहीं पड़ता. तब आम सहमति कहां से पैदा हो जाती है? वर्तमान विधानसभा का यह आखिरी वर्ष है. इस साल के अंत में चुनाव होना है. चुनाव में किसको फिर सदन में आने का मौका मिलता है किसको नहीं मिलता है? इसलिए हर नेता इस बात में लगा हुआ है कि वेतन भत्ते और पेंशन में बढ़ोतरी का लाभ इस मौके पर मिलना ही चाहिए. 

लोकतंत्र में जनप्रतिनिधियों की हैसियत मालिक जैसी होती है. उन्हें सरकारी नौकर जैसे वेतन भत्तों और सुविधाओं की मांग करना सेवा के पुनीत कार्य के लिए खटकने जैसा होता है. कोई कुछ भी कर ले निर्वाचित जनप्रतिनिधि अपने हितों को तो पूरा ही करेंगे. जनहित की बात स्वहित के बाद शुरू होगी. अंतःकरण की शुद्धता से ही लोकतंत्र चमकेगा. शुद्ध अंतःकरण कहने भर से नहीं बल्कि आचरण से स्थापित होगा.