राहुल गांधी की संसद सदस्यता समाप्त हो गई है. अब वह पूर्व सांसद हो गए हैं. मानहानि के मामले में अदालत की लड़ाई अब राजनीतिक लड़ाई में बदल गई है. कानूनी पहलुओं से ज्यादा राजनीतिक पहलू और भविष्य के चुनावों में इस राजनीतिक अस्त्र के उपयोग और उसके असर पर चर्चा केंद्रित हो गई है.
कांग्रेस के लिए यह आपदा ही मानी जाएगी जब उसके प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार संसद से अयोग्य हो जाते हैं और यदि अदालत राहत नहीं देती तो चुनाव लड़ने से भी प्रतिबंधित रह सकते हैं. लोकतंत्र के लिए तो इसे शुभ ही कहा जाएगा कि सत्ताधारी दल और विपक्षी राजनीतिक दलों के बीच में राजनीतिक लड़ाई युद्ध में तब्दील होती जा रही है. एक दूसरे की सच्चाई जनता के सामने लाने में कोई पीछे नहीं रहेगा और सच जानने के बाद फैसला जनता की अदालत में जनता का होगा.
राहुल का दुर्भाग्य क्या कांग्रेस के लिए भविष्य में सौभाग्य बन पाएगा? कांग्रेस सिंपैथी कार्ड भुनाने में सफल होगी या बीजेपी ओबीसी कार्ड का लाभ उठा सकेगी? लोकतंत्र में बोल और शब्दों से प्रेम के साथ सजा भी मिलती है. राहुल गांधी यह बार-बार साबित कर रहे हैं. ऐसा बताया जाता है कि कई मामलों में डिफेमेशन के केस उनके खिलाफ चल रहे हैं. कुछ अदालतों से उन्होंने बेल भी ली है. कई बार अदालतों से उन्होंने माफी भी मांगी है.
गलतियां मनुष्य का स्वभाव होता है लेकिन उन्हें बार-बार दोहराना अज्ञान ही कहा जाएगा. राहुल गांधी राजनीति को हमेशा से जहर मानते रहे हैं. उनका तो यहां तक कहना है कि वह दुर्भाग्य से सांसद हैं. वैसे तो किसी भी व्यक्ति का प्रेजेंटेशन उसके बारे में बहुत कुछ कहता है. यह कितना सटीक है कि
‘आत्मा के सौंदर्य का शब्द रूप है वाक्य, मानव होना भाग्य है, नेता होना सौभाग्य’
राहुल गांधी को यह सौभाग्य जन्म से ही मिला हुआ था. कांग्रेस का नेतृत्व उनके हाथ से कभी बाहर नहीं था. सत्ता से भले कांग्रेस हट गई हो लेकिन कांग्रेस का लोकतांत्रिक वजूद ना मिटा था और ना भविष्य में मिटने वाला है.गांधी परिवार ने इस देश का नेतृत्व किया है. अगर नेतृत्व का सुख भोगा है तो इस परिवार ने इस देश के लिए बहुत संकट भी झेले हैं. शहादत इस परिवार का इतिहास रहा है.
इंदिरा गांधी को भी राजनीतिक विरोध और संकट झेलना पड़ा था. यहां तक कि उनकी संसद सदस्यता भी गई थी. न्यायालीन आदेश को स्थगित करने के लिए आपातकाल लगाना उनकी बड़ी भूल थी. इसके बाद सहानुभूति और संघर्ष के साथ दोबारा सत्ता में वापसी भी इंदिरा गांधी की जिजीविषा और दृढ़ता थी. कांग्रेस इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की शहादत के बाद सहानुभूति कार्ड पर देश का बहुमत हासिल कर चुकी है. कांग्रेस इस बात को बहुत अच्छे से जानती है कि सहानुभूति कार्ड हमेशा राजनीति में लाभ का ही सौदा होता है. शायद राहुल गांधी के मामले में भी कांग्रेस ने यही कार्ड खेलने का ही रास्ता अपनाने का निश्चय किया है.
यह बात इसलिए उठ रही है क्योंकि मानहानि का मामला सामान्यतः माफी मांगने पर समाप्त हो जाता है या बहुत कम दंड के साथ निपट जाता है. राहुल गांधी ने सूरत की अदालत में माफी क्यों नहीं मांगी? इसके राजनीतिक निहितार्थ जरूर होंगे. जब दो साल की सजा हो गई तब सदस्यता तो जाना ही थी. वह तो एक टेक्निकल विषय बचा था. फिर सदन से लेकर सड़क तक लड़ाई करने का कांग्रेस का ऐलान सहानुभूति के सहारे सत्ता की सवारी करने का ही संकेत दे रहा है. अब सवाल यह है कि कांग्रेस क्या सहानुभूति का लाभ ले पायेगी? ऐसा सामान्य रूप से माना जा रहा है कि भारतीय लोकतंत्र में नेता को सहानुभूति मिलती रही है. इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की शहादत के बाद कांग्रेस को सहानुभूति का भरपूर लाभ मिल चुका है.
राहुल गांधी के इस पूरे एपिसोड में कई सारे सवाल खड़े हो रहे हैं. पहला सवाल नेताओं को अपनी भाषा और शब्दों की मर्यादा के प्रति सचेत रहने को लेकर है. दूसरा सवाल लोकतंत्र में ‘रूल आफ लॉ’ के तहत बराबरी का है. अभिमान और अहंकार किसी का भी नहीं चलता. राहुल गांधी ने यूपीए सरकार में अध्यादेश फाड़ने का अहंकार और ज़िद न दिखाई होती तो आज यह हालात पैदा न होते.
राहुल गांधी ने जब राजनीति के साथ भांवर ली थी. तब ऐसा माना जा रहा था कि कांग्रेस की राजनीति में इससे नवीन अर्थ उत्पन्न होंगे. नया नजरिया सामने आएगा. नया नेतृत्व भारत को मिलेगा लेकिन राहुल गांधी के राजनीतिक करियर में जिद,अहंकार और खुलकर कुछ भी कह देना ही देखने को मिला है.
वे ह्रदय से पवित्र हो सकते हैं लेकिन लोकतंत्र की पवित्रता को उन्होंने कई बार दंश पहुंचाया है. अस्तित्व की स्पष्ट अवधारणा है.
जहां मरण जिसका लिखा, वह मानक बन जाए..!
मृत्यु नहीं जाए कहीं, व्यक्ति वहां खुद जाए..!!
राहुल गांधी के साथ आज जो भी परिस्थितियां बनी है, उसके लिए तकनीकी रूप से बीजेपी को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता. यह अदालत के निर्णय के आधार पर हो रहा है. हो सकता है इसके पीछे कोई राजनीतिक नजरिया हो लेकिन प्रत्यक्ष में तो पूरा प्रकरण न्यायिक और कानूनी ही माना जाएगा.
संसद सदस्य रहना या नहीं रहना, जीवन का अंत नहीं हो सकता. राहुल गांधी और कांग्रेस के सामने निश्चित रूप से बड़ी चुनौती का समय है. ऐसा कहा जाता है कि बुरे दिनों में कभी किसी से आस नहीं करनी चाहिए. परछाई भी तब तक साथ देती है जब तक प्रकाश होता है. राहुल गांधी कांग्रेस के लिए बरगद माने जा सकते हैं. बरगद गांव के लिए कितना महत्वपूर्ण होता है. उस पर एक बहुत प्रसिद्ध दोहा है-
जब से बरगद गिरा, बिछड़ी उसकी छांव..!
लगता एक अनाथ सा, सबका सब वह गांव..!!
कांग्रेस को संभलना पड़ेगा. उसे बीजेपी के ओबीसी कार्ड का मुकाबला करना पड़ेगा. सिंपैथी कार्ड को भुनाना पड़ेगा. कांग्रेस के लिए यह सब बहुत कठिन होगा. अडानी के मामले में सर्वोच्च न्यायालय की समिति जांच कर रही है. उसका राजनीतिकरण करने में कांग्रेस कोई कमी नहीं छोड़ रही है लेकिन मोदी के प्रति विश्वसनीयता, कांग्रेस के लिए भ्रष्टाचार का माहौल बनाने में बड़ी बाधा रहेगी. मोदी यूपीए सरकार के भ्रष्टाचार पर जनता का साथ लेकर ही दिल्ली दरबार में मजबूती के साथ खड़े हो सके हैं. वर्तमान दौर में कांग्रेस के लिए भ्रष्टाचार पर कोई नेरेटिव खड़ा करना असामान्य राजनीतिक घटना ही मानी जाएगी.