भोपाल: यह कोई साधारण मामला नहीं, बल्कि उस ‘सिस्टम’ का चेहरा है जहां भ्रष्टाचारियों को सजा नहीं, बल्कि इनाम मिलता है। तत्कालीन अपर आयुक्त, भोपाल संभाग उषा परमार पर भ्रष्टाचार और पद के दुरुपयोग का मामला उच्च न्यायालय, जबलपुर तक पहुंचा। न्यायालय ने 25 अक्टूबर 2023 को दिए आदेश में उन्हें दोषी पाया, 25 हजार रुपये का जुर्माना लगाया और मुख्य सचिव, भोपाल को अनुशासनात्मक कार्रवाई करने का स्पष्ट निर्देश दिया।
लेकिन इसके बाद जो हुआ, वह पूरे सिस्टम पर सवाल खड़े करता है। न्यायालय के आदेशों का पालन करने के बजाय, उन्हें बचा लिया गया और उल्टे कलेक्टर, पन्ना बना दिया गया। यानी जहां डिमोशन होना चाहिए था, वहां प्रमोशन दे दिया गया। यह केवल एक अधिकारी की कहानी नहीं, बल्कि उस गठजोड़ की परतें खोलता है जहां सत्ता और नौकरशाही मिलकर भ्रष्टाचार को ढाल बना लेते हैं।
सामान्य प्रशासन विभाग ने कमिश्नर भोपाल से पूरे मूल दस्तावेज और संक्षेपिका 7 दिन में मांगी थी। लोकायुक्त, भोपाल ने शिकायत क्रमांक 568/2023 दर्ज कर जांच शुरू करने के आदेश दिए थे। पुलिस महानिदेशक लोकायुक्त ने सहमति दी और जांच पंजीबद्ध भी हुई। मगर, जैसे ही मामला ‘बड़े पद’ से जुड़ा, पूरा सिस्टम चुप्पी साध गया। लोकायुक्त की फाइलें ठंडी कर दी गईं और जांच की धार कुंद कर दी गई।
हाईकोर्ट के आदेश को भी किया दरकिनार..
इस मामले यह सवाल उठता है कि क्या अदालत के आदेश महज कागजी औपचारिकता बन चुके हैं? जब लोकायुक्त की जांच ही बेअसर हो जाए, तो भ्रष्टाचारियों को कौन रोकेगा। इससे भी बड़ा सवाल यह उठता है कि क्या सत्ता की छत्रछाया भ्रष्टाचारियों को सजा से बचाने और मलाईदार पद देने का नया फॉर्मूला बन चुकी है।
यह प्रकरण साफ दिखाता है कि न्यायालय की शक्ति को भी सिस्टम नकार सकता है। लोकायुक्त जैसी संवैधानिक संस्थाएं भी भ्रष्टाचारियों के लिए महज दिखावा बनकर रह गई हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलने वालों की आवाज को कुचला जाता है, और गुनहगारों को इनाम मिलता है। यह केवल उषा परमार का मामला नहीं, बल्कि उस पूरी बीमारी का लक्षण है जिसने प्रशासनिक तंत्र को खोखला कर दिया है। अगर ऐसे मामलों में न्यायालय और लोकायुक्त भी बेबस हो जाएं, तो आम नागरिक किस पर भरोसा करें।