ब्रह्माँड के रहस्य-6 : चार सृष्टियों "वेदसृष्टि,लोकसृष्टि,धर्मसृष्टि और वर्ण /गोत्र सृष्टि की स्थापना


स्टोरी हाइलाइट्स

ब्रह्माँड के रहस्य-6 रमेश तिवारी मित्रो, ब्रह्माँड के नाम से ही एक विराट चित्र सामने आ जाता है। अखिल ब्रह्म ..! खाली आसमान,चमकता सूर्य,उमड़ते,घुमड़ते बादल..! कहीं नीले, कहीं स्याह, तो कहीं आसमानी भी। ब्रह्म क्या है..!!तो क्या यही ब्रह्म है। योगीराज श्रीकृष्ण ने भी तो अर्जुन को अपना मुंह खोलकर, यही सब दिखलाया था। और यह भी दिखाया था कि -अर्जुन तू भी तो इसी विराट का एक "किनका" मात्र है। हमने गत दिवस जो बात कही थी कि ब्रह्मांँड और पिंड में सामन्जस्य कैसा है। मनुष्य के शरीर के अंदर देवताओं का वास कहां है। क्या सभी देवता मनुष्य के शरीर में ही स्थित हैं। हमने यह भी कहा था कि देवता कुल 33 ही हैं, जो कि मात्र आग्नेय पदार्थ हैं। शरीर धारी तो कतई नहीं। तब ...! इस बात की जिज्ञासा उठना सहज ही है कि फिर तो ईश्वर भी हमारे शरीर में ही रहता होगा..! प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है। किंतु हमारे ज्ञान ग्रंथों में समाधान तो और भी रुचिकर, मधुर और मनोहारी है। ब्रह्म और ब्रह्मांँड इतना आतिशी विषय है कि इसके सौन्दर्य वर्णन को देख सुन कर आप कौतूहल में पड़ जायेंगे। मन मयूर हो जायेगा और तन भी तंबूरे की तरह तुनतुनाने लगेगा । हम आज "देवताओं" के अग्नि रूपों और भुवन(भूमि) स्वर्गवासी देवताओं की प्रमाणिकता पर चर्चा करते हैं। साथ ही उस ईश्वर की चर्चा भी करेंगे जो कि "अंतर्यामी "है।और हमारे ह्रदय में स्थित होकर प्रकृति की तरह प्रत्येक मनुष्य का संचालन और संवर्धन करता रहता है। इस "अंतर्यामी "को वैदिक भाषा में...! "ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वराः "कहते हैं। अर्थ बहुत गूढ़ है किंतु बिल्कुल सामान्य भावों में व्यक्त करें तो यही महेश्वर "ब्रह्मा "हैं। हम जो बात बात में कहते भी रहते हैं न...! मेरा ईश्वर कह रहा है। मेरा अंतर्यामी जानता है। अथवा...! तुम्हारा ईश्वर भी तुमको क्षमा नहीं करेगा। हम शरीर में अवस्थित अंतर्यामी की एक एक गतिविधि का लाइव वर्णन करेंगे। विज्ञान के महान शोधकर्ता ऋषियों और ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मणों द्वारा किस प्रकार से इन अग्नि तत्वों के गुणानुगुणों का परिचय प्राप्त किया गया, देखेंगे। ऋषियों और ब्राह्मणों ने अग्नि पदार्थों को "देवता "क्यों कहा। और महत्वपूर्ण बात तो यह भी है कि समाज ने ऐसे शोधकर्ताओं को ही देवता कहना, क्यों प्रारंभ कर दिया। बात समझने के लिये थोड़ा पीछे जाना पडे़गा। प्राचीन काल में ब्राह्मणों की सत्ता थी। ब्रह्मसत्ता। तब ब्राह्मणों को साध्य, क्षत्रियों को महाराजिक, वणिकों को वैश्य और शूद्रों को तुषित कहा जाता था। कोई दस गुटों में बंटे यह साध्य बहुत बडे़ वैज्ञानिक थे किंतु नास्तिक भी थे। ब्रह्म को मानते ही नहीं थे। तब इन्हीं में से एक महान ब्राह्मण आगे आया । उसने सबको समझाया कि देखो ब्रह्म को जोडे़,बिना तुम्हारा विज्ञान अधूरा ही है। फिर उस ब्राह्मण ने ब्राह्मणों को छोड़ तुषितों के सहयोग से ब्रह्म की सत्ता की स्थापना की ।हालाकि बाद में अन्य साध्य भी साथ में आ गये। यह कथा बहुत रोचक है। हम आगे इस पर विचार करेंगे। फिर उसी ब्राह्मण ने चार सृष्टियों .."वेदसृष्टि,लोकसृष्टि,धर्मसृष्टि और वर्ण /गोत्र सृष्टि की स्थापना की। तो जिन ब्राह्मणों और ऋषियों ने ब्रह्म के तत्वों को खोजा। अग्नि तत्वों का नामकरण किया.. समाज उन सभी को देवता कहकर सम्मान देने लगी।। तो भुवन स्वर्गवासी (एक क्षेत्र विशेष) इन ऋषियों, ब्राह्मणों को देवता कहा जाने लगा। जबकि इन वैज्ञानिकों ने तो उन अग्नितत्वों को खोज निकाला था जिन पर ब्रह्माँड और मनुष्य अवलंबित है। प्रथम वेद "ऋग्वेद"के प्रथम 9 मँत्र ही अग्नि के हैं। हां एक तथ्य यह भी कि अग्नि तत्व की खोज में महारत होने पर ऋषिवंश का नाम ही "अंगिरा ""आंगिरस"पड़ गया। आज के विषय विशेषज्ञ चिकित्सकों की तरह। इन्हीं ऋषि आंगिरस का एक शोध केन्द्र हिमालय की उपत्यका में था। और बाद में प्रयाग में भी स्थापित हुआ जहां कि महाभारत काल में आंगिरस और जैन मुनि नेमिनाथ जी महाराज ने श्रीकृष्ण को ब्रह्मज्ञान की शिक्षा प्रदान की। ब्रह्मज्ञान की शिक्षा लेने के लिए ऋषि सांदीपनि ने ही कृष्ण को प्रेरित किया था। अब हम बात करते हैं, अग्नि को देवता मानने की। मित्रो, ब्रह्मांँड में अग्नि ही अग्नि व्याप्त है। इस अग्नि के कितने रुप हैं आप कल्पना भी नहीं कर सकते। हम यहां थोडा़ सा विवरण प्रस्तुत करते हैं...! अग्नि को सूर्याग्नि, सौराग्नि, संवत्सराग्नि, वैश्ववराग्नि,पार्थिवाग्नि,दिव्याग्नि,अंतरिक्ष्याग्नि ( घिष्याग्नि )ऋताग्नि, कुमाराग्नि और चित्राग्नि, आदि के नामों से पुकारते हैं । इन अग्नियों में भी बहुत से प्रकार हैं। घिष्याग्नि (इंद्र) के भी 8 प्रकार हैं। मै बहुत सहज और सरल भाषा में सविता, गायत्री (अग्नि) और उषा के उत्पन्न होने के कारण भी बताऊंगा। किंतु अभी तो आप यह भर जान लें कि कोई इच्छा करने वाला अवश्य ही है जिसकी (अग्नि) वजह से प्राण व्यापार, भूत व्यापार होता है। और उसी को प्राकृत में देवता कहा जाता है।