गढ़मुक्तेश्वर GADH MUKTESHWAR
यह माँ गँगा के तट पर जनपद हापुड़ के आखरी छोर पर राष्ट्रीय राजमार्ग 24 पर गाजियाबाद से मुरादाबाद की ओर 80 किलोमीटर की दूरी पर बसा एक प्राचीन तीर्थ स्थल है।
“गणानां मुक्तिदानेन गणमुक्तीश्वर: स्मृत:”।
इस तीर्थ का नाम गढ़ मुक्तेश्वर अर्थात् गण मुक्तेश्वर (गणों को मुक्त करने वाले ईश्वर) है। जब महर्षि दुर्वासा मंदराचल पर्वत की गुफा में तपस्या कर रहे थे तब भगवान् शिव के गण घूमते हुए वहाँ जा पहुँचे गणों ने तपस्यारत महर्षि का उपहास किया जिससे कुपित होकर दुर्वासा ने गणों को पिशाच होने का शाप दे दिया। कठोर शाप को सुनते ही शिवगण व्याकुल होकर महर्षि के चरणों पर गिर पड़े और प्रार्थना करने लगे। उनकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर महर्षि दुर्वासा ने उनसे कहा, “हे शिवगणों! तुम हस्तिनापुर के निकट खाण्डव वन में स्थित शिववल्लभ क्षेत्र में जाकर तपस्या करो, तो तुम भगवान् आशुतोष की कृपा से पिशाच योनि से मुक्त हो जाओगे”। पिशाच बने शिवगणों ने शिववल्लभ क्षेत्र में आकर कार्तिक पूर्णिमा तक तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान् शिव ने कार्तिक पूर्णिमा के दिन उन्हें दर्शन दिए और पिशाच योनि से मुक्त कर दिया। तब से शिववल्लभ क्षेत्र का नाम गणमुक्तीश्वर पड़ गया। बाद में गणमुक्तीश्वर का अपभ्रंश गढ़मुक्तेश्वर हो गया।
शिव मंदिर की स्थापना और बल्लभ सम्प्रदाय का प्रमुख केंद्र होने के कारण इसका नाम शिवबल्लभपुर पड़ा।इसका प्राचीन नाम शिव वल्लभ (शिव का प्रिय) था [शिवपुराण]
मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्री राम के पूर्वज महाराज शिवि ने अपना चतुर्थ आश्रम गढ़मुक्तेश्वर में ही व्यतीत किया था। भगवान् शिव ने भगवान् श्री परशुराम द्वारा यहाँ शिव मंदिर की स्थापना कराई थी। उस समय गढ़मुक्तेश्वर खाण्डव वन क्षेत्र के नाम से जाना जाता था।
यह हस्तिनापुर राज्य की राजधानी का एक हिस्सा रहा है। हस्तिनापुर से उत्तर दिशा की ओर पुष्पावती जो आज गँगा के किनारे बसा ग्राम पूठ है। वह भी खाण्डव वन क्षेत्र था। उस समय पुष्पावती नाम का एक मनमोहन भव्य उद्यान था। द्रोपदी यहाँ स्थित फूलों की घाटी में प्राय: घूमने आया करती थीं।
यहाँ मुक्तीश्वर महादेव के सामने पितरों को पिंडदान और तर्पण (जल-दान) करने से गया श्राद्ध करने की ज़रूरत नहीं रहती। पांडवों ने महाभारत के युद्ध में मारे गये असंख्य वीरों की आत्मा की शांति के लिए पिंडदान यहीं मुक्तीश्वरनाथ के मंदिर के परिसर में किया था। यहाँ कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी को पितरों की शाँति के लिए दीपदान करने की परम्परा भी रही है। पांडवों ने पितरों की आत्मशांति के लिए मंदिर के समीप माँ गँगा में दीपदान किया था तथा कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी से लेकर पूर्णिमा तक यज्ञ किया था। तभी से यहाँ कार्तिक पूर्णिमा पर मेला लगना प्रारंभ हुआ। कार्तिक पूर्णिमा पर अन्य नगरों में भी मेले लगते हैं, किन्तु गढ़मुक्तेश्वर का मेला उत्तर भारत का सबसे बड़ा मेला माना जाता है।
यह कुरु की राजधानी हस्तिनापुर का भाग था। बाद में यह गढ़वाली राजाओं के अधीन भी रहा। इस पर पृथ्वीराज चौहान का अधिकार भी रहा था।
मेला :: हर वर्ष कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष में एकादशी से लेकर पूर्णिमा तक एक पखवाडे का विशाल मेला लगता है, जिसमें दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान, पंजाब आदि राज्यों से लाखों श्रद्धालु मेले में आते हैं और पतित पावनी गँगा में स्नान कर भगवान गणमुक्तीश्वर पर गँगाजल चढ़ाकर पुण्यार्जन करते हैं।
“काश्यां मरणात्मुक्ति: मुक्ति: मुक्तीश्वर दर्शनात्”।
गढ़मुक्तेश्वरतीर्थ को काशी से भी पवित्र माना गया है।
सन 1900 के बाद पतित पावनी भागीरथी माँ गँगा तीर्थनगरी गढ़मुक्तेश्वर से रूठ कर दूर होती गयीं, जिससे इस तीर्थ नगरी की पावनता, शोभा और आकर्षण तिरोहित होते गए और यह तीर्थ नगरी उजड़ती चली गई, किन्तु करुणामयी गँगा माँ की अनुकम्पा से गढ़मुक्तेश्वर के निकट नये तीर्थ ब्रजघाट का प्रादुर्भाव हुआ।
यहाँ चार मंदिरो में भगवान् शिव की पूजा की जाती है, जिनमें से दो ऊँचे पहाड़ो पर स्थित हैं और दो उन पहाड़ों के नीचे। इस शहर में 80 सती स्तम्भ हैं, जो उन स्थानों को अंकित करते हैं, जहाँ हिन्दु विधवाओं को सती होने के लिए प्रतिबद्ध-मज़बूर किया जाता था। गढ़मुक्तेश्वर तीर्थवाल तगा (कौशिक त्यागी) क्षेत्र का हिस्सा है, जिसकी संस्कृत पाठशाला के निकट सती मंदिर मौजूद है। तीर्थवाल त्यागी इस तीर्थ के मालिक थे, जिसके कारण गढ़मुक्तेश्वर, टिगरी और आस पास के 12 गावों को तीर्थवाल कहा जाने लगा। तीर्थवाल तगा मूल रूप से हरियाणा, भिवानी क्षेत्र के निकट पेहरावर के कौशिक ब्राह्मण थे।
पहली बार माँ गँगा का दर्शन और स्नान का मौंका तब मिला जब मेरी आदरणीय बुआ जी, मुझे बुलंदशहर से यहाँ अपने साथ लेकर गईं थीं। अपनी परमपूजनीय माँ का दीप दान भी मैने यहीं अपने भाइयों के साथ यहीं सम्पन्न किया। अव्यवस्था और पार्किंग के नाम पर यहाँ लूटपाट खुली देखी। यहाँ जन सुविधाओं का पूरी अभाव था।
BY :: PT. SANTOSH BHARDWAJ