हमारे तीर्थस्थल न केवल धार्मिक आस्था के केंद्र हैं, बल्कि एकता के भी स्रोत हैं. यही कारण है कि भारत को राष्ट्रीय एकता के सूत्र में बांधने के दृष्टिकोण से हमारे ऋषि-मुनियों एवं महात्माओं द्वारा देश के कोने-कोने में तीर्थस्थल स्थापित किये गये ताकि एक कोने में रहने वाले लोग दूसरे कोने में जाकर वहां के रीति-रिवाज तथा संस्कृति आदि से परिचित हों एवं अपने रीति-रिवाज तथा संस्कृति से वहां के लोगों को परिचित करा कर एकता के सूत्र में बंधे रहें.

हमारे वैदिक ग्रंथों, उपनिषदों, रामायण, महाभारत, पुराणों आदि में भी भारत भूमि के पर्वतों, नदियों, झरनों, वृक्षों, लताओं, नगरों, सरोवरों, वनों, तीर्थस्थलों आदि का वर्णन कर उनके प्रति भावनात्मक प्रेम संबंध स्थापित करने का प्रयास किया गया है.

इन ग्रंथों के रचयिताओं ने संपूर्ण भारत के कोने कोने में फैले तीर्थस्थलों की महिमा का वर्णन कर राष्ट्रीय एकता को मजबूत आधार प्रदान किया है. राधाकुमुद मुखर्जी ने अपनी पुस्तक 'हिंदू संस्कृति' में लिखा है कि यह कहने की आवश्यकता नहीं कि तीर्थयात्रा की यात्रा अंततोगत्वा मातृभूमि के प्रति प्रेम की अभिव्यक्ति है, यह देश की पूजा की लाक्षणिक हिंदू जातियों में से एक है. मातृभूमि के प्रति प्रेम प्रकट करने की तीव्र भावना ने पूरे देश में चारों तीर्थ स्थानों को जन्म दिया है जिससे उनका प्रत्येक भाग पवित्र एवं पूजा योग्य माना जाता है.

इस प्रकार, हिंदुओं के चारों धाम, नदियों के किनारे के तीर्थस्थल, पर्वत, सात मोक्षदायिनी पुरियां, सप्त बद्री, पंच केदार, सप्त सरोवर, सप्त क्षेत्र, द्वादश अरण्य, त्रिस्थली, द्वादश ज्योतिर्लिंग, चतुर्दश प्रयाग, प्रधान द्वादश देवी स्थल एवं ५१ शक्तिपीठ राष्ट्रीय एकता के सशक्त उपादान हैं जिन्होंने देश के सभी लोगों को एकता के सूत्र में बांध रखा है. हमारे पौराणिक ग्रंथों में इन सबका वर्णन हुआ है. स्कंद पुराण में भारत की पवित्र नदियों एवं तीर्थों का भावपूर्ण वर्णन है, यथा गंगा, गोदावरी, रेवा, ताप्ती, यमुना च क्षिप्रा, सरस्वती, पुष्पा, गौतमी, कोशिका तथा कावेरी, ताम्रपर्णी च चंद्रभागा महेंद्रजा चित्रोत्पला, वेदवती, सरयू, पुष्पवाहिनी चर्मण्यवती, शतद्रुष्च पयस्विनीयता चंद्रिका, वादा सर्वाः पुण्या सिंधु सरस्वती मुक्ति, भुक्ति प्रदामयश्चैव सुवनामः पुनः पुनः अयोध्या, द्वारिका, काशी, मथुरा अवन्तिका तथा कुरुक्षेत्र, सोमतीर्थ, काशी, पुरुषोत्तम पुष्करं च दुर्दुरक्षेत्र वाराहं विधि नियन्तम् बदरीनाथ महापुण्य क्षेत्रे सर्वार्थ साधनम्।
अर्थात् गंगा, गोदावरी, ताप्ती, यमुना, क्षिप्रा, पुण्या गोमती, कौशकी, कावेरी, ताम्रपर्णी, चंद्रभागा, चित्रोत्पला, वेत्रवती, सरयू, पुण्य वाहिनी, चर्मण्यवति, शतद्रु, पयस्विनी, अतिसंभवना, गण्डिका, वाहुदा, सिंधु तथा सरस्वती- ये सब सरिताएं परम पुण्यमयी और मुक्ति तथा भुक्ति दोनों प्रदान करने वाली हैं. अतः, इन नदियों का पुनः-पुनः सेवन किया जाये.

अयोध्या, द्वारिका, काशी, मथुरा, अवंतिका, कुरुक्षेत्र, रामतीर्थ, पुरुषोत्तम, पुष्कर, दर्दुरक्षेत्र, वाराह एवं बदरीनाथ- ये कांतिमय पुण्य क्षेत्र हैं जो सभी अर्थो का साधन करने वाले हैं.

स्पष्ट है कि स्कंद पुराण में वर्णित इन नदियों एवं तीर्थस्थलों के माध्यम से संपूर्ण देश को राष्ट्रीय एकता के सूत्र में बांधकर रखने का प्रयास किया गया है. देश को राष्ट्रीय एकता के सूत्र में बांधे रहने के उद्देश्य से ही चारों धामों की स्थापना देश की चार दिशाओं में अंतिम सीमाओं पर की गयी. उत्तर में बदरीनाथ, दक्षिण में रामेश्वरम, पूर्व में जगन्नाथ पुरी एवं पश्चिम में द्वारिका- चारों दिशाओं में स्थापित ये चारों धाम राष्ट्रीय एकता का एक सांस्कृतिक ढांचा तैयार करते हैं.

इसी तरह पंचसरोवर- मानसरोवर, बिंदु सरोवर, नारायण सरोवर, पंपा सरोवर तथा पुष्कर सरोवर- पूरे देश में बिखरे पड़े हैं. इन सरोवरों को पुराणों में मोक्ष दायक तथा मुक्तिदाता बतायाग या है ताकि एक क्षेत्र के लोग दूसरे क्षेत्र के सरोवरों में स्नान करने जायें जिससे राष्ट्रीय भावना एवं एकता सदैव बनी रहे. कुरुक्षेत्र(हरियाणा क्षेत्र), हरिहर क्षेत्र(बिहार), प्रभास क्षेत्र(सौराष्ट्र, राजस्थान), भृगु एवं गया क्षेत्र(बिहार) नामक सप्त क्षेत्र देश के विभिन्न क्षेत्रों में हैं जिनसे राष्ट्रीय भावना को बल मिलता है. यही नहीं, बल्कि बदरी, पंच केदार, द्वादश अरण्य, चतुर्दश प्रयाग, इक्यावन शक्तिपीठ एवं द्वादश प्रधान देवी स्थल भी देश के संपूर्ण क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनसे राष्ट्रीय भावना एवं राष्ट्रीय एकता को बल मिलता है.

सात पुरियां भी देश के विभिन्न क्षेत्रों में स्थापित हैं. गरुड़ पुराण में इन सप्त पुरियों को मोक्षदायिनी कहा गया है. ये सातों पुरियां देश के अलग-अलग स्थानों में हैं, यथा- हरिद्वार, मयुरा, अयोध्या, कांची, द्वारका, काशी तथा उज्जयिनी.

देश के विभिन्न भागों में स्थापित द्वादश ज्योतिर्लिंग तो विशेष रूप से राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देते हैं, क्योंकि शिव लोकदेवता हैं जिन्हें हर वर्ग, संप्रदाय एवं धर्म के लोग पूजते हैं. सोमनाथ सौराष्ट्र(गुजरात) में, मल्लिकार्जुन श्रीशैल (आंध्र प्रदेश) पर, महाकालेश्वर उज्जैन(मध्य प्रदेश) में, ओंकारेश वर(मध्य प्रदेश) में, केदारनाथ उत्तराखंड में, भीमशंकर सह्याद्रि पर्वत(महाराष्ट्र) पर, (हालांकि कहीं-कहीं यह भी उल्लेख है कि यह गुवाहाटी के पास ब्रह्म पर्वत पर है), विश्वनाथ काशी(उत्तर प्रदेश) में, त्र्यंबकेश्वर नासिक (महाराष्ट्र) में, बैद्यनाथधाम देवघर(झारखंड) में,ना गेश्वर गुजरात में और घुश्मेश्वर महाराष्ट्र में है. इस प्रकार, स्पष्ट है कि भारत के विभिन्न क्षेत्रों में स्थापित ये तीर्थस्थल जो विभिन्न संस्कृतियों को अपने में समेटे हुए हैं, राष्ट्रीय एकता के प्रतीक हैं.