देह , विदेह और विदेही:
1- शुद्ध -विशुद्ध,
2- शेष - विशेष,
3- शिष्ट -विशिष्ट,
4- देह - विदेह,
5- कर्म - विकर्म,
उपरोक्त सभी शब्दों में उपसर्ग 'वि' लग जाने पर उनका अर्थ बदल जाता है।
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देह:-
'देह' शब्द का अर्थ होता है- ऐसा शरीर जो माया के तीन गुणों के द्वारा निर्मित हो, जो दिखाई दे, जो काल के अंतर्गत हो तथा मिटने वाला हो।
विदेह:-
'देह' शब्द के प्रारंभ में 'वि' उपसर्ग लग जाने से 'विदेह' शब्द बन जाता है, फिर इसका अर्थ बदल जाता है।
जैसे- 'विदेह' शब्द का अर्थ होता है- एक विशेष प्रकार का शरीर, जो माया के तीन गुणों के द्वारा निर्मित नहीं हो, जो दिखाई दे, जो काल के अंतर्गत नहीं हो तथा मिटने वाला नहीं हो। ऐसे शरीर को अखंड शरीर, दिव्य शरीर अथवा नूरी शरीर कहा जाता है।
कुछ लोग 'विदेह' का अर्थ लगाते हैं- बिना शरीर का, अर्थात- निराकार। लेकिन यह उचित नहीं है क्योंकि साकार- निराकार शब्द माया से संबंधित हैं तथा माया काल के अंतर्गत है। जो काल के अंतर्गत होता है उसे 'विदेह' नहीं कहा जाता है।
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कबीर जी निम्न पद में कहते हैं कि--
"जाप मरे अजपा मरे,
अनहद भी मर जाए ।
सूरत समानी शब्द में,
ताको काल न खाए ।
सो तो शब्द विदेह ।।"
वह कौन सा शब्द है जिसमें सूरत समा जाती है और उसको कॉल नहीं खाता है, और वह शब्द विदेह शरीर से उत्पन्न होता है।
"दो बिन हो न अधर आवाजा, किए कहा सो काज अकाजा।"
इस विदेह शरीर से ही शब्द की उत्पत्ति होती है, जो काल के बाहर है। इस शब्द ब्रह्म से ही सृष्टि की रचना होती है तथा पुनः इस शब्द ब्रह्म में ही सृष्टि आकर सिमट जाती है। कबीर जी कहते हैं कि इसी शब्द से सूरत(चेतन रूपी आत्मा) प्रकट होती है तथा इसी में पुन: विलीन हो जाती है।
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यह शब्द है- 'ओंकार'। अक्षर पुरुष का मन, ज्योति स्वरूप है, जिसे प्रणव ब्रह्म ओंकार का धाम कहा जाता है। इस प्रकार असंख्य जीवों का मूल यह ज्योति स्वरूप प्रणव ब्रह्म है तथा ओंकार सहित ये सभी काल के अंतर्गत नहीं है।
विदेही:-
एक शब्द है- 'कर्म' उसमें उपसर्ग 'वि' जुड़ने पर 'विकर्म' शब्द बन जाता है इन दोनों शब्दों का अर्थ एक नहीं है ।
'कर्म' का अर्थ है:- ऐसा पूण्य कार्य जिससे पुनर्जन्म के पश्चात रूप, राग, धन विद्या, मान, बड़ाई एवं इंद्रिय सुख आदि का भोग सम्भव है। परंतु इसमें आवागमन बना रहता है।
'विकर्म' शब्द का अर्थ है:- ऐसा पाप कर्म जो शास्त्रों द्वारा निषिद्ध हो। इससे भी आवागमन बना रहता है। परंतु पुनर्जन्म के पश्चात जीव को इन्द्रीयजनित सुख प्राप्त नहीं होते हैं।
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ऐसा कर्म, जो पाप और पुण्य की श्रेणी में न आता हो, उस कर्म को 'अकर्म' कहते हैं। ऐसे कर्म के द्वारा जीव आवागमन से मुक्त हो जाता है। परन्तु ऐसा तभी संभव है जब कोई जीव अपने तीन गुणों को वश में कर लेता है क्योंकि कर्म की उत्पत्ति गुणों के द्वारा ही होती है।
जो कर्म 'मैं' और 'मेरा' अथवा अहम भाव के बिना किया जाता है। ऐसा कर्म 'अकर्म' कहलाता है। 'अकर्म' कार्य करने वाले ही 'विदेही' कहे जाते हैं।
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कुछ लोग राजा जनक के विषय में कहते हैं कि वे 'विदेही' थे। इसका तात्पर्य यह है कि- उन्होंने अपने माया के तीन गुणों को बस में कर लिया था, जबकि उनका शरीर माया के तीन गुणों से निर्मित था। अतः उनको 'विदेही' की उपाधि दी गई।
प्रणाम जी,
बजरंग लाल शर्मा
