धर्म सूत्र-2: क्या परमात्मा का कोई नाम है? जिसका नाम है क्या वो परमात्मा है? P अतुल विनोद 


स्टोरी हाइलाइट्स

परमात्मा कौन है? क्या परमात्मा का कोई नाम है? जिसका नाम है क्या वो परमात्मा है? वेद कहते हैं कि परमात्मा का अनाम है| जिसका नाम है वो परमात्मा नहीं वो उसकी

क्या परमात्मा का कोई नाम है? जिसका नाम है क्या वो परमात्मा है? P Atul Vinod  वेद कहते हैं कि परमात्मा का अनाम है| जिसका नाम है वो परमात्मा नहीं वो उसकी “प्रकृति” है| जिसका “आकार” है उसे ही नाम दिया जा सकता है| सारे आकार, प्रकार, पदार्थ परमात्मा की प्रकृति से पैदा होते हैं सीधे परमात्मा से नही| जिसका रूप है उसी का नाम है| परमात्मा जगत का “कारण” है “कार्य” नहीं| परमात्मा के “कारण” चैतन्य/पुरुष उसकी कार्य रूपी जड़/प्रकृति पैदा होती है| पुरुष और प्रकृति से ही इस जगत का निर्माण होता है| हम सब परमात्मा की प्रकृति का हिस्सा हैं| हम सब पदार्थ ही हैं जब तक नाम और रूप से बंधे हैं| नाम रूप से परे होते ही हम उस चैतन्य का साक्षात्कार करते हैं| नाम और रूप से जुड़ाव पदार्थ से जुड़ाव है| चाहे किसी भी रूप में हो| यदि हम किसी को गुरु मानते हैं और सिर्फ उसके नाम और रूप से यानी उसकी प्रतिष्ठा, उसका यश, उसका वैभव, उसका रूप, रंग, शरीर ही देखते हैं, तो हम वास्तव में गुरु से नहीं जुड़ते| हम सिर्फ पदार्थ से जुड़ते हैं| पदार्थ से जुड़ने से कभी-खुशी कभी गम की स्थिति बनती है| पदार्थ कभी हमें बहुत ज्यादा खुशी देता है और कभी दुख देता है| उस गुरु के नाम-रूप में कुछ अच्छाइयां होती है तो कुछ बुराइयां|  वह कभी अच्छा लगता है तो कभी रोग, दोष शोक के कारण बुरा लगने लगता है| लेकिन हम उस नाम-रूप के पीछे मौजूद सत, चित आनंद रूप “गुरुतत्व” को देखते हैं तब हमें उस नाम-रूप की रूप या कुरूपता से असर नहीं पड़ता| यदि हम किसी व्यक्ति से प्रेम करते हैं और सिर्फ नाम रूप के कारण तो हमें सुख और दुख से गुजरना पड़ता है| लेकिन यदि हम नाम-रूप से परे जाकर उसके अंदर मौजूद चैतन्य से प्रेम करते हैं तो वह प्रेम सत, चित, आनंद स्वरूप बन जाता है| प्रकृति, जीव, जड़, वस्तु, द्रश्य, प्रतीक, प्रतिमान, रूप, रंग, आकृति, मैटर, विजिबल| ये सब आनंद, ब्रह्म, चैतन्य, सत्य नही क्योंकि ये सब मिट जाने वाले हैं| “बदल” जाने वाले हैं| नाम और रूप में “द्वैत” जुड़ा हुआ है| इनसे सुख मिलेगा तो दुख भी मिलेगा| इनसे प्रेम मिलेगा तो घृणा भी मिलेगी| शरीर कभी भी “उपास्य” नहीं हो सकता| ”अनुपप्त्तेस्तु न शरीरः”| शरीर के अंदर चैतन्य को देखते हुए यदि शरीर की उपासना की जाए तब तो ठीक है लेकिन सिर्फ शरीर, नाम, रूप को  गुरु, देव या भगवान मानते हुए शरीर में ही अटक गए तो आगे बढ़ना मुश्किल है| इसलिए शरीर के अंदर के चैतन्य को देखने की सलाह दी गई है| मंदिर में जाइए लेकिन मंदिर में मौजूद मूर्ति में मत अटक जाइए| मूर्ति के अंदर उस चैतन्य को देखने की कोशिश कीजिए| वो मूर्ति भले ही किसी नामरूप से जानी जाती है लेकिन आप उसके अंदर के अनाम ईश्वर से अपना नाता जोड़ने की कोशिश कीजिए| “रिश्ते नाते”, कार्य, व्यवहार में भी जितना आप नाम रुप से ऊपर उठने की कोशिश करेंगे उतना ही आप उस चैतन्य से जुड़ेंगे|  [embed]https://youtu.be/TAHFH68hrHc[/embed] जहां भी नाम है वहां तकलीफ है| जिस रिश्ते में भी नाम है वहां ढेरों उम्मीदें हैं| पूरी होती है तो सुख होता है नहीं होती तो दुख होता है, भले ही उम्मीदें व्यक्ति से जुड़े या नाम रूपी भगवान से| जो नेत्र से दिखाई देता है वह परमात्मा की प्रकृति का हिस्सा है, जो नेत्र के अंदर दिखाई देता है वही असली चैतन्य है| “अंतर उपपत्ते:” नाम शब्द है और शब्द पदार्थ की अभिव्यक्ति है| पदार्थों को ही शब्द दिया जा सकता है|  परमात्मा “शब्द” से परे है| जहां शब्द है वहां परमात्मा की प्रकृति है, जहां वर्ड नहीं है वहां स्वयं परमात्मा का चैतन्य है| धर्म कहता है- “कलयुग केवल नाम अधारा, सुमर सुमर जग उतरही पारा”   यहां तो नाम की बात हो रही है| यहां जिस नाम की बात हो रही है वह सहारा है| उस नाम को रटते रटते एक स्थिति ऐसी आती है कि नाम छूट जाता है| शब्द शब्द करते हुए हम “निशब्द” हो जाते हैं| नाम रटते रटते ऐसा संयोग बनता है कि नाम अजपा (“स्वचालित”) हो जाता है| चेतन मन “नाम” में अटक जाता है, विचार इस नाम में अटक जाते हैं| पीछे शून्य घटित होने लगता है उस शून्य में ही चैतन्य से नाता जुड़ता है|  धर्म सूत्र-1: परमात्मा क्या है? कौन है? क्या कहते हैं वेद .. उसे कैसे जाना जा सकता है? ….P अतुल विनोद धर्म सूत्र-2: क्या परमात्मा का कोई नाम है? जिसका नाम है क्या वो परमात्मा है? P अतुल विनोद धर्म सूत्र-3: कामनाओं के पार ही मोक्ष है| लेकिन इच्छाओं के बिना कैसे जिया जाए? P अतुल विनोद Dharm sutra:4 : द्वैत और अद्वैत: सत्य और मिथ्या… क्या सही है क्या गलत? P ATUL VINOD